परोपकारिणी सभा ने निर्णय लिया कि महर्षि के गृह-त्याग के पश्चात् उनकी पहली व अन्तिम गुजरात यात्रा को 140 वर्ष हो गये है- इस उपलक्ष्य में गुजरात के उन स्थानों की प्रचार यात्रा की जाये। श्री डॉ. धर्मवीर जी इन दिनों प्रतिवर्ष कुछ दिन के लिए दूरस्थ स्थानों की प्रचार-यात्रा पर निकल जाते हैं। मैं भी उनके साथ जाता रहा हूँ। जहाँ आर्यसमाजें नहीं, जहाँ आर्यसमाजें बंद पड़ी हैं। जहाँ प्रचार मन्द पड़ा है, वहाँ वहाँ हम बिन बुलाये जाते रहे हैं। दक्षिण भारत में एक बार वहाँ कार्यकर्त्ताओं को कहा, भले ही सुनने वाले दो हों या चार, आप हमें अपने विचार उन तक पहुँचाने की कुछ व्यवस्था कर दें।
गुजरात यात्रा में भी भारी भीड़ व बड़े समारोह की आशा अभिलाषा लेकर हम नहीं निकले थे। ऋषि की अन्तिम यात्रा, ऋषि के व्यक्तित्व, ऋषि के दर्शन, उपकार व सुधार का गुजरात वासियों को स्मरण करवाना हमारा उद्देश्य था। हम 23 जून की प्रातः नासिक पहुँचे। भारी वर्षा में उन स्थानों को देखा जहाँ ऋषि का डेरा था, जहाँ व्यायान दिये, विरोध हुआ। यहीं पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश श्री गजेन्द्रगडकर के विद्वान् पितामह को ऋषि के साथ शास्त्रार्थ करने के लिये लाया गया था परन्तु शास्त्रार्थ न हो सका। न्यायाधीश गजेन्द्रगडकर ने सन् 1964 में दयानन्द कालेज शोलापुर में अपने भाषण में महर्षि का कृतज्ञता से पुण्य स्मरण किया।
गृहत्याग के वषरें बाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी (तब प्राणपुरी) को उनके पिताजी ने यहीं कुभ मेला पर पकड़ा था। आर्य यात्रियों ने गोदावरी नदी के तट पर अपने महान साधु का ‘सिद्धपुर’ भी देखा नासिक, पूना, मुबई विषयक कुछ अलय दस्तावेज तब मेरे पास थे परन्तु, वहाँ उनकी विशेष चर्चा न की जा सकी। हम वीर सावरकर के जन्म स्थान भगूर भी गये। वहाँ के आर्यमन्दिर में श्री डॉ. धर्मवीर जी ने यात्रा के उद्देश्य पर अपने विचार रखे। वानप्रस्थी नोबतराम जी,ाूपेन्द्रजी के भजन हुए। मैंने वीर सावरकर जी के ऋषि दयानन्द के प्रति उद्गार तथा उनके साहित्य में आर्य हुतात्माओं पर लिखे गये लेखों की चर्चा की। देवलाली के आर्यसमाज में भी बहुत अच्छा कार्यक्रम हुआ। देवलाली वालों नेाी अच्छी सेवा की। बड़ी श्रद्धा व प्रेम से हमें पूना के लिए विदाई दी गई। पूना जाते हुए हम सब हुतात्मा राजगुरु का स्मारक भी देखते गये।
पूना में रात के समय पिपरी समाज में हमारा कार्यक्रम रखा गया। श्री कृष्णचन्द्र जी आर्य, श्री हरिकृष्णजी, पं. धर्मवीर जी आर्य, पं. विश्वनाथ जी ने कार्यक्रम को सफल बनाने में बहुत पुरुषार्थ किया। वैदिक साहित्य की अच्छी बिक्री हुई। वर्षा के कारण पूना में ऋषि से सबन्धित स्थान यात्रियों को न दिखाये जा सके। एक समारोह एक दूसरे समाज में 26 जून को भी लखमजी वेलाणी व उनके साथियों ने रखा। पूना आगमन के समय महर्षि के व्यायानों की धूम, घोर विरोध का इतिहास सुनाया गया। यहाँ भी श्री ओम्मुनि के उद्योग से वैदिक साहित्य की अच्छी बिक्री हुई। पूना के दोनों समाजों ने परोपकारिणी सभा को अच्छा सहयोग किया।
मुबई के काकड़वाडी समाज में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। सभी ने कई दस्तावेज प्राप्त किये। श्री राघव जी ने हम लोगों से ऋषि जीवन की जी भर कर चर्चा की। आपका ऋषि जीवन का बहुत अच्छा अध्ययन है। यहाँ भी साहित्य की अच्छी बिक्री हुई। आर्य समाज मुबई क ी स्थापना से पूर्व की ऋषि की मुबई यात्रा के दस्तावेज देखकर राघव जी गद्गद् हो गये। पूछा यह सामग्री कब तक प्रकाश में आयेगी। उन्हें बताया गया कि इसका प्रकाशन सभा की प्राथमिकता है।
मुबई से यात्रा का अगला पड़ाव स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा स्थापित ऐतिहासिक गुरुकुल सूपा था। अब वहाँ एक अच्छा स्कूल चलता है। विद्यालय के अधिष्ठाता एक लगनशील आर्य पुरुष हैं। हमारे सेवा, सत्कार में गुरुकुल की सभा ने कोई कमी न छोड़ी। इस गुरुकु ल में सब आर्य नेता, विद्वान् महात्मा व बड़े-बड़े राष्ट्रीय नेता आते रहे। मैंने गुरुकुल में पैर रखते ही पुरानी पत्रिकाओं व गुरुकुल का रिकार्ड दिखाने की मांग की। गुरुकुल में अब कोई पत्रिका तो नहीं मिली परन्तु साा के अधिकारियों व श्री इन्द्रजित देव आदि विद्वानों ने गुरुकुल में सुरक्षित सारे रिकार्ड की सूक्ष्म जाँच करके बहुत कुछ प्राप्त किया।
गुरुकुल के आचार्य पद को कभी पं.वंशीधर जी विद्यालङ्कार ने भी सुशोभित किया था।
दयानन्द के वीर सैनिक बनेंगे।
दयानन्द का काम पूरा करेंगे।।
यह ऐतिहासिक गीत वहाँ आज भी गाया जाता है। मैंने उन्हें बताया की यह गीत आपकी इसी पुण्य भूमि में रचा गया था। मथुरा जन्म शतादी पर इस गीत की धूम मच गई। यह जानकर गुरुकुल वासी गौरवान्वित हो गये। मैंने अपने व्यायान में ऋषि की अन्तिम गुजरात यात्रा के साथ इस गीत की ऐतिहासिक महत्ता पर प्रकाश डाला। हैदराबाद सत्याग्रह का एक कारण यह गीत भी रहा।
हम सूपा से महत्त्वपूर्ण दस्तावेज लेकर आये। नेता जी सुभाष बोस भी कभी यहाँ रहे थे। इसके प्रमाण हमें मिल गये। परोपकारी के पाठक इस यात्रा के मधुर फल चखेंगे। जो शोध हम इस यात्रा में कर पाये उसके कारण यह यात्रा आर्य समाज के इतिहास में अविस्मरणीय रहेगी। अभी इतना ही संकेत पर्याप्त है। ‘इतिहास के हस्ताक्षर’ स्तभ में सारा आर्यजगत् इस यात्रा की एक उपलधि पर वाह। वाह। कह उठेगा।
सूपा से हम सूरत पहुँचे। वहाँ ऋषि से जुड़े स्थानों को देखना हमारी विशेष प्राथमिकता थी। समाज ने सेवा, सत्कार तो अच्छा किया। कार्यक्रम भी बहुत अच्छा था परन्तु ऋषि से जुड़े स्थानों यथा जहाँ-जहाँ व्यायान हुए, ईंटे फैंकी गईं, जहाँ -जहाँ डेरा रहा- उनको वहाँ वालों को धुँधला सा ही ज्ञान था। मैं ऐसी पूरी जानकारी लेकर यात्रा पर निकला था। वहाँ केन्द्रीय विद्यालय तथा अणुमाला में कई आर्य थे। वे वहाँ से समाज में आते भी हैं। चालीस किलोमीटर से वे आ सकते थे परन्तु समाज वालों के पास उनके मो. नं. ही न थे। हमारे आर्य युवक समाज अबोहर के श्री कोमल का नबर खोजकर मेरे से बात करवाई गई। वह तब गाड़ी पर सवार कहीं जा रहे थे।
महाकवि नर्मदाशंकर के घर की समाज को जानकारी नहीं थी। इन्हीं के निमन्त्रण पर ऋषि सूरत पधारे थे। जहां ईंटें बरसाई गई, वह स्थान दिखाया गया। हमने अड़ोस-पड़ोस से पूछा, क्या यह भवन कभी मन्दिर था? यहाँ कौन रहता था? बताया गया कि कोने पर खड़ा दुकानदार बता सकेगा। मैंने उससे पूछा तो वह तपाक से बोला, ‘‘यह महाकवि नर्मदाशंकर का घर रहा है।’’ यह सुनकर हम आनन्दित हुए। तब सूरत वालों को भी बताया कि यहाँ मकान के पास ऋषि का व्यायान करवाया गया था। यहीं ईंटें धूलि फैं की गई। हमने इसके चित्र लिये और एक शिला लगवाने की प्रेरणा दी।
समाज की स्थापना के समय का एक चित्र देखा। बापू गांधी उद्घाटन के लिए आये थे। पूज्य देहलवी जी भी आमन्त्रित थे। वह ग्रुप फोटो दोषयुक्त पाया। फोटो में देहलवी जी की ऊँचाई गांधी जी के बराबर पाई। देहलवी जी तो बहुत ऊँचे थे। समाज के लोग वर्तमान मन्दिर को ही उस समय का मन्दिर माने बैठे थे। उनका भ्रम भञ्जन करके यथार्थ इतिहास की जानकारी दी।
मैं यात्रा के आरभ से ही कतर ग्राम जाने की बात कहता रहा परन्तु, ऐसा न हो सका। वहाँ अजमेर के दो भाई तथा भिवानी के श्री निडर जी का पौत्र अन्त में मिलने आये। यदि वे पहले मिल जाते तो हम कतर की यात्रा भी कर सकते थे।
सूरत से भरुच को प्रस्थान किया। सब जाम में फंस गये। श्री भावेश जी के चलभाष आते रहे। जैसे कैसे हम में से कुछ भरुच के कार्यक्रम में पहुँच गये। एक गाड़ी कई घण्टे के पश्चात् भरुच के समीप पहुँची। श्री भावेश व उनकी पत्नी जी वहीं मिलने आ गये। उनके अनुरोध पर हम रात उनके निवास पर रुके। देर रात उनसे चर्चा होती रही। उनके महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर दिये। दयालमुनि जी की नई पुस्तक को हिन्दी में तैयार करने पर उन्हें बधाई दी। आपने बहुत सेवा की। उनके सुपुत्र से न मिल सका, इसका मुझे खेद रहा।
बड़ोदरा की यात्रा अच्छी तो रही। भजन, उपदेश व व्यायान सब कुछ हुआ। आर्य समाज के सब सज्जनों में उत्साह का संचार हुआ। मैंने यहाँ भी ऋषि के काल तथा आर्य समाज के आरभिक काल के सब महत्त्वपूर्ण प्रसंग सुनाये आर्य पुरुषों को यह पता ही नहीं था कि बड़ौदा में दलितोद्धार के डॉ. चिरञ्जीव जी ने क्या-क्या कष्ट झेले। बैरिस्टर मणिलाल यहीं आर्य बनकर संघर्ष करते रहे। महात्मा आत्माराम अमृतसरी की तपस्या, डॉ. अबेडकर जी के निर्माण, पं. ज्ञानेश्वरजी सिद्धान्त भूषण के तप त्याग का इतिहास सुनाया।
राजमाता यमुनाबाई व दीवान टी. माधवराव जी की ऋषि से जुड़ी घटनायें सुनाई। शिला यहाँ भी आर्यसमाज कहीं भी नहीं लगवा सका। करोड़ों की संस्थायें लुट गई हैं। मन्दिर अब नया क्रय किया गया है। मास्टर आत्माराम जी की पत्नी की बेजोड़ तपस्या सारा गुजरात भूल चुका है। दलित वर्ग उनकी साधना को नहीं जानता। प्रबुद्ध वर्ग पूज्य मास्टर जी की भूत बंगले की कहानी कोई कतई नहीं जानता गुजरात के कई पुराने परिवारों के सुपठित जन बड़ौदा में हैं परन्तु सत्संग में नहीं दिखे। डॉ. धर्मवीर जी ने अत्यन्त मौलिक प्रवचन दिया।
बडौदा से हमने अहमदाबाद के लिए प्रस्थान किया। अहमदाबाद की सफलताओं का मुय श्रेय श्रीमान् पं. कमलेश जी शास्त्री तथा श्री पूनम चन्द जी को प्राप्त है। यदि अगले पड़ाव पर पहुँचने से पहले कोई स्थानीय व्यक्ति पहले पड़ाव पर मार्गदर्शन के लिए पहुँच जाता तो यात्रा का लाभ कई गुना होता परन्तु आर्यों ने कहीं ऐसी सूझ न दिखाई। पूनमचन्द जी ने तथा मान्य कमलेश जी ने बहुत समय देकर इस नगर की यात्रा को बहुत सार्थक बनाया। अहमदाबाद में बड़ी संया में मेधावी युवक-युवतियों से मिलकर हम आनन्दित हुए। आचार्य सोमदेव जी, आचार्य कर्मवीर जी, मान्य धर्मवीर जी सबके व्यायान प्रवचन हुए। भूपेन्द्र जी व नौबत राम जी ने समा बाँध दिया। ओम्मुनि जी ने अपने ओजस्वी भाषण में वैदिक साहित्य के प्रसार की तथा अपने-अपने क्षेत्र में वेद प्रचार यात्रायें निकालने की प्रबल प्रेरणा दी। यहाँ कुछ उत्साही आर्य बन्धुओं ने एक वैदिक संस्थान बनाकर लेखनी व वाणी से वैदिक धर्म प्रचार का अच्छा अभियान चला रखा है। इस संस्थान ने भी एक सभा का आयोजन किया।
यात्रा में मुझे यह लगा कि आर्यसमाज के मन्दिर संग्रहालय, चित्रशाला व विवाह घर का रूप धारण करते जा रहे हैं। आर्य मन्दिर दूसरों के हाथ में चले जायेंगे। आर्य बलिदानियों, विद्वानों, महापुरुषों के चित्र कम और राजनैतिक व्यक्तियों के चित्रों की सत्संग भवनों में भरमार देखी। ऋषि जी के पश्चात् पहले गुजराती वैदिक विद्वान् पं. ज्ञानेन्द्र जी सरीखे नेता को जानने वाला मात्र एक व्यक्ति मिला। उनका चित्र कहीं नहीं देखा। यह चिन्ता का विषय है।
भावनगर में भी कार्यक्रम अच्छा हुआ। यहाँ गाजियाबाद के श्री लक्ष्मण जी जिज्ञासु के एक प्रेमी आर्यवीर मिलने आये। वैद्यराज श्री महेश भाई जी वैदिक साहित्य के प्रसार में लगे रहते हैं। भवन तो समाज बनाता जा रहा है। व्यक्तियों का निर्माण न किया तो भावनगर जैसे भव्य भवनों की गतिाी वही होगी जो बड़ौदा के कन्या गुरुकुल की हुई है। वैदिक सिद्धान्तों के प्रचार के लिए समाज घर से निकलकर सपर्क साधें? चलााष तो साधन है। इसे मिशनरी मानना भारी भूल है। भावनगर के युवा पुरोहित जी ने कार्यक्रम को सफल बनाने में अच्छी रुचि ली।
भावनगर से हम सोनगढ़ गुरुकुल होते हुए जूनागढ़ गये। जूनागढ़ के प्रधानजी बहुत अनुभवी कृषि वैज्ञानिक हैं। आपसे हम लोगों ने कई विषयों पर बातचीत की। समाज के विशाल भवन में हमारे रहने की व्यवस्था की गई। कार्यक्रम भी रखा गया। श्री पुरोहित जी ने अच्छा सहयोग किया। कुछ ऐतिहासिक स्थान भी देखे। दो युवकों से श्रीयुत इन्द्रजित देव व मैंने पूछा कितने भगवानों को मानते हो। एक ने कहा मैं तो भैरव की पूजा करता हूँ और यह देवी की। वैसे भगवान् अनेक हैं। मैंने कहा, नये-नये भगवान् जन्म ले रहे हैं। क्या कोई भगवान मरााी है। उसने कहा, ‘‘कुछ तो मरे भी होंगे।’’ यह है हिन्दू की सोच व धर्मशास्त्रों का ज्ञान। उसी ने कहा,गांधीजी, स्वामी विवेकानन्द सब भगवान् हैं । ये गुजरात के ही थे। ऋषि दयानन्द का नाम तो सुन रखा है परन्तु वे गुजराती नहीं थे। गुजरात के सब नगरों में स्वामी विवेकानन्द जी की विशाल प्रतिमायें स्थापित हो चुकी हैं। मूर्तियाँ लगाने से क्या देशवासी सुधरेंगे और धार्मिक बनेंगे, यह अगले पाँच दस वर्षों में और पता चल जायेगा। अभी तो मूर्तियों का रख-रखाव ही एक समस्या बनता जा रहा है। जूनागढ़ से हम पोरबन्दर गये। आर्य समाज के प्रधान जी हमें मिलने पहुँच गये। प्रयाग के आर्य मन्दिर में माता कला देवी का चित्र देखा तो पोरबन्दर में पण्डिता सुशीला जी का चित्र देखकर हमें हर्ष हुआ। गुजरात में केवल यहीं पूज्य पं. आत्माराम जी का चित्र देखा। नानजी भाई कालीदास मेहता का कन्यागुरुकुल व कीर्ति मन्दिर गांधीजी का जन्म गृहाी देखे। पं. ज्ञानेन्द्रजी, महात्मा नारायण स्वामी जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी, दक्षिण के किसी हुतात्मा का किसीाी समाज में कोई चित्र कहीं भी दिखाई न दिया। कई मत पंथों व राजनीति के क्षेत्र के बड़े-बड़े लोगों के चित्र सत्संग भवनों में बहुत नगरों में देखे गये। घुसपैठ करने वाले समय पाकर हमारे मन्दिराी हड़प लेंगे। पोरबन्दर का समाज जागरुक लगा। पुस्तकालयाी यहाँ का अच्छा है। कन्या गुरुकुल मेंाी जान दिखाई दी। सर्वत्र अपने-अपने क्षेत्र में प्रचार यात्रायें निकालने की हमने प्रेरणा दी।
गुजरात निवासियों को सर्वत्र यह जानकर गौरव हुआ कि ऋषि दयानन्द प्रथम भारतीय सुधारक विचारक थे जिनका चित्र अमरीका के एक पत्र में छपा था। वह चित्र शीघ्र परोपकारी में छपेगा। आर्यसमाज की स्थापना से बहुत पहले पश्चिम में ऋषि की काशी विजय की धूम मच गई। ऐसी ऐसी घटनाओं की हमने नगर-नगर घूम-घूमकर जानकारी दी।
राजकोट का समाज मन्दिर खोजने में ही बहुत समय नष्ट हो गया। वहाँ न तो हम राजकुमार कालेज ही देख पाये और न धर्मशाला चौक का वह स्थल देख सके जहाँ ऋषि ने ऐतिहासिक भाषण दिया था। ऋषि से जुड़ा एक भी स्थान न देख पाये। राजकुमार कालेज तथा धर्मशाला चौक में स्मारक शिला लगवानेकी प्रेरणा समाज को दी गई। समाज मन्दिर में तो राजकोट की घटनाओं की शिला लग ही सकती है। कहीं-कहीं आर्यवीर दल की शाखायें देाकर प्रसन्नता हुई। बड़ी-बड़ी समाजों के सदस्य व अधिकारी अपने नगर के आस-पास प्रचारार्थ कुछ समय दें तो जागृति आ सकती है। बिना सपर्क किये, बिना समय दिये कोई मिशन नहीं फै लता। यह सीख सर्वत्र देते गये। क्रमशः)
– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116