ओ३म्
वेदों पर आधारित महर्षि दयानन्द जी की कुछ प्रमुख मान्यताओं को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं:
ईश्वर विषयक
ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।
वेद विषयक
विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रांत स्वतः प्रमाण मानता हूं। वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं, और चारों वेदों के ब्राह्मण, 6 अंग, 6 उपांग, 4 उपवेद और 1127 वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मा आदि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उन को परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन है, उनका अप्रमाण मानता हूं।
धर्म व अधर्म
जो पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभंग वेदविरुद्ध है, उसको ‘अधर्म’ मानता हूं।
जीव, जीवात्मा अर्थात् मनुष्य का आत्मा
जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य है, उसी को ‘जीव’ मानता हूं।
देव
विद्वानों को ‘देव’ और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूं।
देवपूजा
उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है। इस से विपरीत अदेवपूजा होती है। इन मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूं।
यज्ञ
उसको कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिन से वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है, उसको उत्तम समझता हूं।
आर्य और दस्यु
“आर्य” श्रेष्ठ और “दस्यु” दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं। मैं भी वैसे ही मानता हूं।
स्तुति
गुणकीर्तन श्रवण और ज्ञान होना, इस का फल प्रीति आदि होते हैं।
प्रार्थना
अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान आदि होता है।
उपासना
जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, योगाभ्यास से ऐसा निश्चय व साक्षात् करना उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।
सगुण–निर्गुण–स्तुति–प्रार्थनोपासना
जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उन से युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं, उन से पृथक मानकर प्रशंसा करना सगुण-निर्गुण स्तुति, शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुण-निर्गुण प्रार्थना और सब गुणों से सहित सब दोषों से रहित परमेश्वर को मान कर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना सगुणनिर्गुणोपासना कहाती है।
हम आशा करते हैं कि पाठक उपर्युक्त वैदिक सत्य सिद्वान्तों को अपने ज्ञान व आचरण हेतु उपयोगी पायेंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
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Very nice