कुरान का उतरना

कुरान का उतरना

जो लोग परमात्मा के विश्वासी हैं और उसमें सत् ज्ञान की शिक्षा का गुण मानते हैं उनके लिए इल्हाम (ईश्वरीय सन्देश) पर विश्वास लाना आवश्यक है। परमात्मा ने अपने नियमों का प्रदर्शन सृष्टि के समस्त कार्यों में कर रखा है। इन नियमों का जितना ज्ञान मनुष्य को होता है उतना वह प्रकृति की विचित्र शक्तियों से जो स्वाभाविक रूप से उसके भोग के साधन हैं, उनसे लाभान्वित हो सकता है। मनुष्य के स्वभाव की विशेषता यह है कि विद्या उसे सिखाने से आती है। बिना सिखाए यह मूर्ख रहता है। अकबर के सम्बन्ध में एक कवदन्ती है कि उसने कुछ नवजात बच्चे एक निर्जन स्थान में एकत्रित कर दिए थे और केवल गूँगों को उनके पालन पर नियत किया था।

वे बच्चे बड़े होकर अपनी गूँगी वाणी से केवल वही आवाज़ें निकालते थे जो उन्होंने गूँगे मनुष्यों और वाणी रहित पशुओं के मुँह से सुनी थीं। कुछ वन्य जातियाँ जो किसी कारण से एक बार पाशविकता की अवस्था में पहुँच गई हैं स्वयमेव कोई बौद्धिक विकास करती दिखाई नहीं देतीं जब तक सभ्य जातियाँ उनमें रहकर उन्हें सभ्यता की शिक्षा न दें।

वे सभ्यता से अपरिचित रहती हैं। अफ़्रीका में कुछ गिरोह शताब्दियों से नंगे चले आते हैं यही दशा मध्य भारत की कुछ पहाड़ी जातियों की है। हाँ! एक बार इन जातियों के जीवन को बदल दो फिर वह उन्नति के राजमार्ग पर चल निकलती हैं। बच्चा भी विद्या का प्रारम्भ अध्यापक के पढ़ाने से प्रारम्भ करता है। परन्तु एक बार पढ़ने लिखने में निकल खड़ा हो फिर बौद्धिक विकास का असीम क्षेत्र उसके सन्मुख आ जाता है।

ज्ञान का स्रोत ही भाषा का आदि स्रोत है—मानव जाति इस समय बहुत-सी विद्याओं की स्वामी हो रही है। शासकों के सामने यह प्रश्न प्रायः आता रहा है कि इन विद्याओं का प्रारम्भ कहाँ से हुआ। मानवीय मस्तिष्क का उसकी बोल-चाल से बड़ा सम्बन्ध है। सभ्यता की उन्नति भाषा की उन्नति के साथ-साथ होती है। व्यक्ति और समाजें दोनों जैसे-जैसे अपनी भाषा की उन्नति करती हैं   त्यों-त्यों उनके मानसिक अवयवों का भी परिवर्तन व विकास होता जाता है।

वास्तव में ज्ञान के प्रारम्भ और भाषा के प्रारम्भ का प्रश्न सम्मिलित है। मानव के ज्ञान का जो प्रारम्भिक स्रोत होगा वही भाषा का भी स्रोत माना जाएगा।

मनोविज्ञान व भाषा विज्ञान के विशेषज्ञों ने इस समस्या पर बहुत समय विचार विनमय किया है। परमात्मा के मानने वाले सदा इस नियम के समर्थक रहे हैं कि भाषा और विद्याओं का आदि स्रोत समाधि द्वारा हुआ है। परमात्मा ने अपने प्यारों की बुद्धियों में अपने ज्ञान का प्रकाश किया वह प्रारम्भिक ज्ञान था। वेद में इस अवस्था को यों वर्णन किया गया है—

यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

—ऋग्वेद 10।71।3

उपासनीय परमात्मा से (ऋषियों ने) भाषा का मार्गदर्शन पाया और ऋषियों में प्रविष्ट हुई भाषा को (लोगों ने) तत्पश्चात् प्राप्त किया।

इस घटना की ओर संकेत प्रत्येक धार्मिक पुस्तक में पाया जाता है। कुरान शरीफ़ में पाया है—

व अल्लमा आदमल अस्माआ कुल्लहा।

—(सूरते बकर आयत 31)

बिना नामों के वार्तालाप कैसे? : अर्थात् सिखाये आदम को नाम सब वस्तुओं के।

यह और बात है कि इन आयतों में फ़रिश्तों का भी वर्णन है। उनसे अल्लाह ताला बातचीत करता है और आदम को श्रेष्ठता प्रदान की है कि उसे नाम सिखाए। फ़रिश्तों के साथ बातचीत बिना नामों के कैसे होती होगी यह एक रहस्य है। यह भी एक पृथक् प्रश्न है कि आदम को श्रेष्ठता प्रदान करने का क्या कारण था? और फ़रिशतों को इससे वञ्चित रखने का भी क्या कारण था? आदम को स्वर्ग से निकाले जाने की कहानी पिछले एक अध्याय में वर्णन की जा चुकी है। इस अवसर पर यह भी कहा गया है—

फ़तलक्का आदमामिन रब्बिही कलमातिन।

—(सूरते बकर आयत 37)

फिर सीखे आदम ने ख़ुदा से वाक्य।

परिणामस्वरूप यह सिद्ध है कि कुरान में इस्लाम का अस्तित्व सृष्टि के प्रारम्भ से माना है। कोई पूछ सकता है कि जो शंका तुम आदम को इल्हाम की विशेष श्रेष्ठता दिए जाने के सम्बन्ध में करते हो क्या वही शंका वेद के ज्ञान प्राप्त करने वालों के बारे में नहीं की जा सकती? उन्हें क्यों इस वरदान के लिए विशेषतया चुना गया। हम सृष्टि उत्पत्ति का क्रम अनादि मानते हैं। प्रत्येक नई सृष्टि में पुरानी सृष्टि के उच्चतम व्यक्तियों को ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने को चुना जाता है। यह उनकी नैतिक व आध्यात्मिक श्रेष्ठता का स्वभाविक फल होता है। इस सिद्धान्त में उपरोक्त शंका का कोई स्थान नहीं। मुसलमानों को कठिनाई इसलिए है कि वे अभाव से भाव की उत्पत्ति मानते हैं। अब अभाव की दशा में विशेष वरदान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि बिना योग्यता व कर्म के विशेष फल प्राप्त नहीं कराया जा सकता जिसका विशेष फल ईश्वरीय ज्ञान हो।

फिर भी मुसलमान इस सिद्धान्त के मानने वाले हैं कि आदम ने अल्लाह ताला से नाम व पश्चात् वाक्य प्राप्त किए थे। इस पर प्रश्न होगा कि क्या वह ज्ञान मानवीय आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त था? कुरान में कहा है कि नाम सभी वस्तुओं के सिखाए गए। स्वभावतः विज्ञान, सदाचार व आध्यात्मिकता यह सभी विद्याएँ उन नामों व वाक्यों में सम्मिलित होंगे। क्योंकि मानव भले ही उन्नति के किसी भी स्तर पर उत्पन्न किया गया हो उसकी आवश्यकताएँ वैज्ञानिक, नैतिक व आध्यात्मिक सभी प्रकार की होंगी।

मुसलमानों का एक और सिद्धान्त है कि अल्लाह ताला का ज्ञान लोहे महफ़ूज़ (आकाश में ज्ञान की सुरक्षित पुस्तक) में रहता है। सूरते वरुज में कहा है—

बल हुवा कुरानो मजीदुन फ़ीलोहे महफ़ूज।

—(सूरते बरुज आयत 21-22)

बल्कि वह कुरान मजीद है लोहे महफ़ूज़ के बीच। इस आयत की व्याख्या के सन्दर्भ में तफ़सीरे जलालैन में लिखा है—

इस (लोहे महफ़ूज़) की लम्बाई इतनी जितना ज़मीन व आसमान   के मध्य अन्तर है और इसकी चौड़ाई इतनी जितनी पूर्व व पश्चिम की दूरी 1 और वह बनी हुई है सफ़ेद मोती से।

—जलालैन

[1. पूर्व व पश्चिम की दूरी क्या है? रोहतक वालों के लिए देहली पूर्व में है और मथुरा वालों के लिये पश्चिम में है। पूर्व व पश्चिम में कोई विभाजक रेखा नहीं है, अतः यह दूरी वाला कथन अज्ञानमूलक है। —‘जिज्ञासु’]

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

 

व ओ दर किनारे फ़रिश्ता अस्त व दर यमीने अर्श।

और उसे एक फरिश्ता है बगल में रखे, अर्श (अल्लाह का सिंहासन) के दाएँ ओर।

इस लोहे महफ़ूज़ को दूसरे स्थानों पर “उम्मुल किताब” (पुस्तकों की जननी) कहा है। दूसरे शब्दों में तमाम विद्या का आदि स्रोत। इस सिद्धान्त के होते यह प्रश्न अनुचित न होगा कि क्या हज़रत आदम की शिक्षा इसी लोहे महफ़ूज़ से हुई थी या इसके बाहर से? जब सारी वस्तुओं के नाम हज़रत आदम को सिखाए गए अपनी ज़ुबानी (बोली में अल्ला मियाँ ने सिखाए तो वह लोहे महफ़ूज़ ही पढ़ा दी होगी? दूसरे शब्दों में प्रारम्भ में पूर्ण ज्ञान ही दिया होगा। यदि ऐसा कर दिया तो हज़रत आदम के बाद कोई और पैग़म्बर भेजने की आवश्यकता नहीं रहती। मगर कुरान शरीफ़ में आया है—

वलकद आतैना मूसलकिताब व कफ़ैना मिन्बादिही ब रुसुलो।

—(सूरते बकर आयत 87)

और वास्तव में मूसा को किताब दी और लाए बाद में रसूलों को।

व इज़ा जाआ ईसा बिलबय्यनाते।

—(सूरते ज़खरुफ़ आयत 63)

और जब आया ईसा प्रकट युक्तियों के साथ

वलकद बअसना फ़ीकुल्ले उम्मतिन रसूलन।

—(सूरते नहल आयत 36)

और भेजें हैं हर समुदाय के बीच रसूल।

यही नहीं इन पैग़म्बरों और उनके इल्हाम पर ईमान लाना हर  मुसलमान के लिए आवश्यक है।

अल्लज़ीन योमिनूना बिमाउन्ज़िला इलैका वमा उन्ज़िला मिनकबलिक।

—(सूरते बकर आयत 4)

जो ईमान लाए उस पर जो तुझ पर उतारा गया और उस पर जो तुझसे पहले उतारा गया।

यह मुसलमानों को अनसूजा है—अब विचारणीय प्रश्न यह रहा कि अगर हज़रत आदम का इल्हाम सही व पूर्ण था तो उसके पश्चात् दूसरे इल्हामों की क्या आवश्यकता पैदा हो गई। हज़रत मूसा व हज़रत ईसा की पुस्तकें आजकल भी मिलती हैं उन्हीं से हज़रत मुहम्मद ने काम क्यों न चला लिया? इस पर मुसलमान दो प्रकार की सम्मितियाँ रखते हैं।

पहली यह कि हज़रत आदम मानव विकास की पहली कक्षा में थे उनके लिए इस तरह का ही इल्हाम पर्याप्त था अब वह अपूर्ण है। यही दशा उनके बाद आने वाले पैग़म्बरों व उन पैग़म्बरों के इल्हामों की है। इस मान्यता पर विश्वास रखने का तार्किक परिणाम यह होना चाहिए कि कुरान को भी अन्तिम इल्हाम स्वीकार न करें। क्योंकि यदि मानवीय विकास सही हो तो उसकी हज़रत मुहम्मद के काल या उसके पश्चात् आज तक भी समाप्ति तो हो नहीं गई।

फिर यह क्या कि इल्हाम का क्रम जो एक काल्पनिक  मानवीय विकास के क्रम के साथ-साथ चलाया जाए। वह किसी विशेष स्तर पर पहुँचकर पश्चात्वर्ती क्रम का साथ छोड़ दे। वास्तव में यह विकास का प्रश्न ही मुसलमानों का प्रारम्भिक विचार नहीं। यह विचार उन्हें अब सूझा है। जो लोग इस समस्या के समर्थक हैं उन्हें धार्मिक विकास की मान्यता के अन्य विषयों पर भी विचार करना होगा। धार्मिक उन्नति के अर्थ यह हैं कि पहले मनुष्य का कोई धर्म नहीं था। या कम से कम अनेक ईश्वरों का मानने वाला था, निर्जीव शरीरों को पूजता या फिर धीरे- धीरे उन्नति करके ईश्वरीय एकता का मानने वाला हुआ।

परन्तु कुरान में प्रत्येक पैग़म्बर के इल्हाम का एकेश्वरवाद को एक आवश्यक भाग माना गया है। प्रत्येक पैग़म्बर अपने सन्देश में यह मान्यता अवश्य सुनाता है। हज़रत मूसा का यह सन्देश दूसरी आयतों के अतिरिक्त सूरते ताहा आयत 50 में लिखा है। हज़रत ईसा का सूरते   मायदा आयत 111, में हज़रत यूसुफ का आयत 101 में। इसी प्रकार अन्य पैग़म्बरों के भी प्रमाण दिए जा सकते हैं।

कुरान के पढ़ने वाले इन कथनों से परिचित हैं। इन सन्देशों का आवश्यक और प्रमुख भाग ईश्वरीय एकता है। यदि यह विचार इससे पूर्व के सभी इल्हामों में स्पष्ट रूप से विद्यमान था तो फिर मुसलमानों के दृष्टिकोण से धार्मिक विकास के कोई अर्थ ही नहीं रहते।

वास्तव में इल्हाम और विकास दो परस्पर विरोधी मान्यताएँ हैं। यदि बौद्धिक विकास से धर्म में उन्नति हुई है तो इल्हाम की आवश्यकता क्या है? मुसलमानों का एक और सिद्धान्त यह है कि पहले के इल्हामों में परिवर्तन होते रहे हैं। कुछ इल्हामी पुस्तकें तो सर्वथा समाप्त हो गई हैं और कुछ में हेर-फेर हो चुका है।

चलो वाद के लिए मान लो कि ऐसा हुआ अब प्रश्न यह होगा कि वे पुस्तकें ईश्वरीय थीं या नहीं थीं? थीं और उसी परमात्मा की देन थीं जिसकी देन कुरान है तो क्या कारण है कि वे पुस्तकें अपनी वास्तविक अवस्था में स्थिर नहीं रहीं? और कुरान रह गया या रह जाएगा? हेर-फेर में दोष मनुष्यों का है या (नऊज़ोबिल्लाह) अल्लामियाँ का? अब मनुष्य भी वही हैं और अल्लामियाँ भी वही किसका स्वभाव समय के साथ बदल गया कि आगे चलकर ईश्वरीय पुस्तकों को इस हेरा-फेरी से सुरक्षित रख सकेगा जिनका शिकार पिछली पुस्तकें होती रहीं?

मुसलमानों की मान्यता है कि अल्लाताला ने कुरान की रक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया है। पूछना होगा कि पहली पुस्तक के सम्बन्ध में यह उत्तरदायित्व क्यों नहीं लिया गया? क्या अल्लामियाँ का स्वभाव अनुभव से बदलता है? या पहले जान बूझकर उपेक्षा बरती गई? दोनों अवस्थाओं में ईश्वर की सत्ता पर दोष लगता है। कुरान को दोष से बचाने के लिए अल्लामियाँ पर दोष लगाना इस्लाम के लिए बुद्धिमत्ता नहीं। या तो अल्ला मियाँ के ज्ञान में दोष मानना पड़ता है या उसकी इच्छा में। दोनों ही अनिवार्य दोष पूर्ण अवस्थाएँ हैं दोनों कुफ़्र (ईश्वरीय विरोधी) हैं।

बात यह है कि सृष्टि के प्रारम्भ में इल्हाम मान लेने के पश्चात् किसी भी बाद के इल्हाम को स्वीकार करना विरोधाभास का दोषी बनना पड़ता है। इल्हाम और उसमें हेर-फेर? इल्हाम और उसमें परिवर्तन? इल्हाम एक हो सकता है। वह पूर्ण होगा। जैसा कि परमात्मा पूर्ण है।

बौद्धिक विकास का प्रश्न आए दिन की ऐतिहासिक खोजों से झूठा सिद्ध हो रहा है। प्रत्येक महाद्वीप में पुराने खण्डहरात की ख़ुदाई से सिद्ध हो रहा है कि वर्तमान पीढ़ी से शताब्दियों पूर्व प्रत्येक स्थान पर ऐसी नस्लें रह चुकी हैं जो सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में वर्तमान सभ्य जातियों से यदि बहुत आगे न थीं तो पीछे भी न थीं। इस खोज का आवश्यक परिणाम धर्म के क्षेत्र में यह विश्वास है कि इल्हाम प्रारम्भ में ही पूर्ण रूप में आया था।

यदि परमात्मा अपने किसी इल्हाम का रक्षक है तो उस प्रारम्भिक इल्हाम का भी पूर्ण रक्षक होना चाहिए था। उसके ज्ञान व आदेश में निरस्त होने व हेरा-फेरी की सम्भावना नहीं।

कुरान के इल्हाम होने पर एक और शंका यह उठती है कि यह अरबी भाषा में आया है—

व कज़ालिका अन्ज़ल नाहो हुकमन अरबिय्यन।

—(सूरते रअद आयत 37)

और यह उतारा हमने आदेश अरबी भाषा में।

क्या अरबी भाषा लौहे महफ़ूज़ की भाषा है। यदि है तो उसे मानव समाज की पहली भाषा होना चाहिए था जिसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं। अन्य भाषाओं के उत्पत्ति स्थल अरबी भाषा के शब्दों को कोई भाषा विज्ञान का विशेषज्ञ स्वीकार नहीं करता है। फिर हज़रत मूसा और ईसा को इबरानी भाषा में इल्हाम मिला था यदि वह भी लौहे महफ़ूज़ की नकल थी तो लौहे महफ़ूज़ की भाषा एक नहीं रही। भाषाओं की जननी अरबी के स्थान पर इबरानी को मानना पड़ेगा।

परन्तु प्रमाण न इबरानी के प्रथम भाषा होने का मिलता है और न अरबी भाषा होने का। यदि कुरान का इल्हाम समस्त मानव समाज के लिए होता तो उसकी भाषा ऐसी होनी चाहिए थी कि सारे संसार को उसके समझने में बराबर सरलता हो। किसी का तर्क है कि अन्य जातियाँ अनुवाद से लाभ उठा सकती हैं तो निवेदन है कि अनुवाद और मूल भाषा में सदा अन्तर रहता है।

जो लोग शाब्दिक इल्हाम के मानने वाले हैं उनके लिए इल्हाम के शब्द सदा अर्थों का भण्डार बने रहते हैं जिनका स्थान और तो और उसी भाषा का किया अनुवाद भी नहीं ले सकता। अरबी भाषा    इल्हाम के समय भी तो सारे संसार की भाषा नहीं थी। जैसे वेद की भाषा सृष्टि के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों की भाषा थी और संसार में प्रचलित बोलियाँ वेद की भाषा से मिली जुली हैं।

भाषा शास्त्रियों की यह सम्मति है कि मानव जाति के पुस्तकालय में वेद सबसे पुरानी पुस्तक है (मैक्समूलर) और उसकी भाषा वर्तमान भाषाओं की जननी है। वास्तव में कुरान का अपना प्रारम्भिक विचार केवल अरब जातियों का सुधार करना था। इसीलिए कुरान में आया है—

लितुन्जिरा कौमम्मा अताहुम मन्निज़ीरिन मिनकबलिका लअल्लकुम यहतदून।

—(सूरते सिजदा आयत 3)

ताकि तू डरा दे उस जाति को नहीं आया उनके पास डराने वाला तुझसे पूर्व जिससे उन्हें सन्मार्ग मिले।

यह जातियाँ अरब निवासी हैं। हज़रत मुहम्मद के सामने ईसाई और यहूदियों की मान्यता थी कि वह पुस्तकों के मालिक हैं और पैग़म्बरों के अनुयायी हैं। अरब निवासी यह दावा नहीं कर सकते थे। हज़रत मुहम्मद के कारण उनकी यह अभिलाषा भी पूरी हो गई।

कोई कह सकता है कि हज़रत मुहम्मद के प्रकट होने से पूर्व क्या अरब वासियों को बिना ज्ञान या शिक्षा के रखा गया था। कुरान शरीफ़ की भाषा से तो यही ज्ञात होता है। एक और स्थान पर लिखा है—

ओहेना इलैका कुरानन अरबिय्यन लितुन्ज़िरा उम्मिल कुरा व मन होलहा।

—(सूरते सिजदा रकुअ 1)

उतारा हमने कुरान अरबी भाषा का कि तू भय बताए बड़े गाँव को और उसके पास-पड़ौस वालों को।

बड़े गाँव से तात्पर्य प्रत्येक भाष्यकार के अनुसार ‘मक्का’ है। अरब वासी जिनमें मुहम्मद साहब का जन्म हुआ उनके लिए मक्का सबसे बड़ा गाँव था। कुरान के शब्दों के अनुसार हज़रत मुहम्मद के सुपुर्द यह सेवा सौंपी गई कि वह मक्का व उसके पास पड़ौस में इस्लाम का प्रचार करें।

दूसरे समुदायों के लिए तो और पैग़म्बर आ चुके थे। अरबवासियों के लिए इल्हाम की आवश्यकता थी। सो हज़रत के सन्देश से पूरी हो गई। कुरान की उपरोक्त आयतों का यदि कोई अर्थ है तो यही।

कुरान की मान्यता तो यह भी विदित होती है कि धर्म प्रत्येक जाति का पृथक्-पृथक् है। यह इस्लाम के लोगों की ज़बरदस्ती है कि जो मज़हब अरब के लिए निश्चित किया गया है उसे अन्य देशों में जो उसे अनुकूल नहीं पाते व्यर्थ ही में उसका प्रचार कर रहे हैं। इसीलिए लिखा है—

लिकुल्ले उम्मतन जअलना मन्सकन, हुमनासिकूहो।

—(सूरते अलहज्ज रकूअ 9)

प्रत्येक समुदाय के लिए बनाई है प्रार्थना पद्धति और वह उसी प्रकार प्रार्थना करते हैं उसको।

यही नहीं हमारी इस आपत्ति को परमात्मा का न्याय समर्थन करता है कि वह अपना इल्हाम ऐसी भाषा में प्रदान करें जिसके समझने में मनुष्य मात्र को बराबर सुविधा हो। स्वयं कुरान शरीफ़ स्वीकृति देता है। चुनांचे लिखा है—

वमा अरसलनामिनर्रसूले इल्ला बिलिसाने कौमिही।

—(सूरते इब्राहिम आयत 4)

और नहीं भेजा हमने कोई पैग़म्बर परन्तु साथ भाषा अपनी के।

कुरान का यह आशय है कि वह केवल अरबवासियों के लिए निर्धारित है। इससे अधिक स्पष्टता से और किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है।

समय पाकर निरस्त हो जाने की साक्षी भी स्वयं कुरान में विद्यमान है। अतएव फ़रमाया है—

बलइनशअना लिनज़हबन्ना बिल्लज़ी औहेना इलैका।

—(सूरते बनी इसराईल रकूअ 10)

और यदि हम चाहें (वापिस) ले जाएँ वह चीज़ कि वही (सन्देश) भेजी है हमने तेरी ओर।

कुरान के लिये नया पाठ क्या विशिष्ट था?—वास्तव में इस्लाम मानने वालों के इल्हाम के सिद्धान्त के तार्किक निष्कर्ष का वह स्वयं समर्थक नहीं। यदि यह मान लो कि प्रारम्भिक इल्हाम के पश्चात् फिर इल्हाम होने की सम्भावना है तो यह भी मानना पड़ेगा कि कोई इल्हाम पूर्ण नहीं होता।

चाहे पहला इल्हाम अपने मानने वालों की उपेक्षा वृत्ति के कारण नष्ट हो जाए चाहे उनके दुराशय के   कारण उसमें हेरा-फेरी हो जाए। प्रत्येक इल्हाम में इसकी बराबर सम्भावना रहेगी, क्योंकि परमात्मा व मनुष्य जिन दो के मध्य इल्हाम का सम्बन्ध है वह प्रत्येक काल में एक से रहते हैं।

परमात्मा यदि पहले इल्हाम का उत्तरदायी न रहा तो किसी दूसरे का भी नहीं होगा। यदि एक आदेश के निरस्त हो जाने की सम्भावना है तो उसके पश्चात् आने वाले अन्य इल्हाम भी इस सम्भावना से बाहर नहीं हो सकते। हमें आश्चर्य है कि अल्ला मियाँ के आदेश के निरस्त होने की सम्भावना ही क्यों? मौलाना लोग एक उदाहरण देते हैं कि जैसे एक कक्षा के विद्यार्थी ज्यों-ज्यों उन्नति करते हैं, त्यों-त्यों उनके पाठ्य पुस्तकों में भी परिवर्तन होता रहता है।

इसी प्रकार हज़रत आदम के युग के लोग जैसे पहली कक्षा के विद्यार्थी थे अब के मानव अगली कक्षाओं में आ चुके हैं। उनके लिए इल्हाम पहले की अपेक्षा उच्चस्तर का होना चाहिए। हम इस तर्क का उत्तर ऊपर दे चुके हैं कि कुरान का सब से उच्च आदेश परमात्मा की एकता के सम्बन्ध में है तथा वह पूर्व काल के पैग़म्बरों के इल्हाम में भी स्वयं कुरान के शब्दों में विद्यमान है। फिर वह कौन-सा नया पाठ है जो कुरान के लिए ही विशिष्ट था? और वह पहले के पैग़म्बरों के इल्हाम में भी स्वयं कुरान के शब्दों में पाई जाती है।

यहाँ हम इस उदाहरण का उत्तर तर्क से देंगे। समय बीतने पर पाठ्य पुस्तक बदलने की आवश्यकता उस समय होती है जब विद्यार्थी विभिन्न कक्षाओं में एक रहें वही कक्षा उन्नति करती आगे बढ़ती जाए तो उन्हें निश्चय ही प्रत्येक कक्षा में नई शिक्षा देनी होगी। यदि मुसलमान पुनर्जन्म मानते होते कि इस समय भी वही मनुष्य जीवित अवस्था में हैं जो हज़रत आदम के समय में थे तो इस दृष्टिकोण से परिवर्तन की आवश्यकता की कल्पना की जा सकती थी। परन्तु मुसलमानी सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक नस्ल नई उत्पन्न की जाती है। प्रत्येक नस्ल अपने से पहली नस्ल के ज्ञान से वैसी ही अनजान होती है जैसे स्वयं पहली नस्ल प्रारम्भ में थी। उसे नया पाठ पढ़ाने के क्या अर्थ हुए? सच्चाई यह है कि जैसा हम ऊपर निवेदन कर चुके हैं कि इल्हाम व विकास दो परस्पर विरोधी मान्यताएँ हैं।

इल्हाम मानने वालों को प्रारम्भ में ही पूर्ण इल्हाम का उतरना स्वीकार करना पड़ेगा। प्रारम्भ में भाषाओं की विपरीतता का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि स्वयं कुरान कहता है—

मा कानन्नास इल्ला उम्मतन वाहिदतन फख्तलिफू।

—(सूरते यूनिस रकूअ 2)

सृष्टि के आरम्भ में (सब) लोग एक ही समुदाय के हैं बाद में पृथक् (समुदाय) बने।

उस समय भी ईश्वर ने आदम द्वारा इल्हाम भेजा यह मुसलमानों की मान्यता है। और वह इल्हाम कुरान के शब्दों में—

व इन्नहू फ़ीउम्मिल किताबे लदैनालि अल्लहुन हकीम।

और वह (ज्ञान) है उम्मुल किताब के बीच उच्चस्तर का कार्यकौशल भरा।

‘उच्चस्तर का कार्यकौशल भरा’ शाब्दिक अर्थ है, यही परिभाषा वेद भगवान की है। वेद के अर्थ हैं कार्यकौशल भरा ज्ञान, भगवान् के अर्थ हैं उच्चस्तर।

धर्मों के पारस्परिक मतभेदों का एक कारण यह है कि नया मत पुराने मत को निरस्त कहकर उसका विरोध करता है और पुराना मत नए मत को अकारण बुरा बताता है। नए पैग़म्बर के अपने दावे के अतिरिक्त उसके पैग़ाम के ईश्वर की ओर से होने की साक्षी भी क्या है? स्वयं कुरान ने कई नबिओं (ईश्वरीय दूतों) की ओर संकेत किया है—

व मन अज़लमा मिमनफ़्तिरा अलल्लाहि कज़िबन औ काला ऊही इलय्या वलम यूहा इलैहे शैउन व मन काला सउन्ज़िलो मिसला मा उंज़िलल्लाहो।

—(सूरते इनआम आयत 93)

और उस व्यक्ति से अधिक अत्याचारी कौन है जो ईश्वर पर ही दोष मढ़ता है और कहता है मेरी ओर इल्हाम उतरा है परन्तु वही (सन्देश) उसकी ओर नहीं की गई। मैं भी उतारता हूँ उसी प्रकार (सन्देश) जो ईश्वर ने उतारा।

कुरान के भाष्यकारों ने इसका संकेत मुसैलमा अबातील व इब्ने ईसा की ओर माना है जिन्होंने हज़रत मुहम्मद के जीवनकाल में पैग़म्बरी का दावा किया था। अब विद्वानों के पास ऐसा कौन-सा उदाहरण है जिससे पैग़म्बरी के झूठे व सच्चे दावा करने वालों की पहचान हो सके जिससे सच्चे पैग़म्बर और झूठे नबी में अन्तर करे?   दोनों अपने आप को अल्लाह की ओर से होने का दावा करते हैं।

कुरान को ईश्वरीय पुस्तक न मानने वालों की स्वयं कुरान की आयतों में बहुत आलोचना व उठा-पटक की हैं। उन पर लानतें (दुष्नाम) बरसाई हैं और पुराने समुदायों की कहानियाँ सुना-सुनाकर डराया है कि जिन दुष्परिणामों को पूर्ववर्ती पैग़म्बरों को न मानने वाले पहुँचाए गए हैं वही दशा तुम्हारी होगी। यही बात मुसैलमा अबातील व इब्ने ईसा अपने इल्हाम के दावे में प्रस्तुत करते होंगे। इसलिए यह धमकियाँ भी कुरान के इल्हामी होने का प्रमाण नहीं। सम्भव है कोई मुसैलमा अबातील और इब्ने ईसा की पुस्तकों के नष्ट हो जाने और कुरान के बचे रहने को कुरान के श्रेष्ठ होने को कुरान की महिमा बताए। सो शेष तो ऐसी पुस्तकें भी हैं जो चरित्रहीनता का दर्पण है जिनका पठन-पाठन का साहित्य लाभ केवल दुष्चरित्रों व समाज को भ्रष्ट करने वाले लोगों का मनोरंजन भरा है।

इससे यह सिद्ध नहीं होता कि इन पुस्तकों की जड़ में ईश्वरीय सन्देश है। कुरान में अपने सम्बन्ध में यह वाद भी प्रस्तुत किया गया है—

व इन कुन्तुमफ़ी रैबिनमिम्मा नज़्ज़लना अला अब्दिना फ़ातूबि सूरतिन मिन्मिसलिह व अदऊ शुहदाउकुम मिन इनिल्लाहे इन कुन्तुम सादिकीन फ़इनलम तफ़अलू वलन तफ़अलू।

—(सूरते बकर आयत 23)

और यदि तुम्हें सन्देह है उससे जो उतारा हमने अपने बन्दे के ऊपर तो लाओ एक सूरत उसके मुकाबिले की और अपने साक्षियों को बुलाओ। परमात्मा के अतिरिक्त यदि तुम सच्चे हो फिर यदि न करो और न कर सकोगे।

इस आयत का उद्धरण हम किसी पूर्व अध्याय में कर चुके हैं। कोई व्यक्ति अपने लेख के सम्बन्ध में यह दावा करे कि उस जैसा लेख नहीं हो सकता और कल्पना करो कि उस जैसा लेख दावेदार के समय में कोई न बना सके तो क्या उसके इस निरालेपन से ही वह अल्लाह मियाँ की ओर से मान लिया जायेगा? यदि ऐसा है तो प्रत्येक काल का बड़ा लेखक व महाकवि अवश्य ईश्वरीय दूत समझा जाया करे। ईश्वरीय सन्देश होने की यह कोई दार्शनिक युक्ति नहीं।

फिर भी हम इस दावे में प्रस्तुत अनुपमता की वास्तविकता पर विचार कर लेना चाहते हैं। क्या यह अनुपमता भाषा सौष्ठव के आधार पर है जैसा मौलना सनाउल्ला साहब का विचार है? सर सैयद अहमद—जैसा विचार हम इस पुस्तक के अन्तिम अध्याय में प्रस्तुत करेंगे कुरान की भाषा सौष्ठवता के समर्थक नहीं, वे अनुपम नहीं मानते। यही दशा अलामा शिबली नौमानी की थी। स्वयं कुरान के भाष्यों में एक भाष्य मौलाना फ़ैजी का है। उसका नाम सवाति अल इल्हाम है। वह सारी की सारी बिन्दु रहित पुस्तक है।

साहित्य रचना का यह भी तो कमाल है कि पूरी की पूरी पुस्तक बिना बिन्दु के लिख दी जाए। क्या इसलिए कि उस बिन्दु रहित भाष्य जैसी अनुपम पुस्तक लिखना अन्य लेखकों को असम्भव है उस भाष्य को ईश्वरीय सन्देश मान लिया जाए? इस दावे के सम्बन्ध में सूरते लुकमान की आयत 3 पर तफ़सीरे हुसैनी की टिप्पणी निम्न है—

आवुरदा अन्द कि नसरबिन हारिस लअनुल्लाहे अलैहे ब तिजारत ब बलादे फ़ारस आमदा बूद व किस्साए रुस्तम व असफ़न्द यार बख़रीद व मुअर्रब साख़्ता बमक्का बुर्द व गुफ़्त कि र्इं कि अफ़साना आवुरदा अम शीरींतर अज़ अफसाना हाय मुहम्मद……..।

कहा जाता है कि नसरबिन हारिस ईश्वरीय शाप हो उस पर व्यापार के लिए फ़ारस देश के शहरों में गया वहाँ उसने एक पुस्तक असफ़न्दयार की कहानी खरीदी और उसे अर्बी में कर दिया व कहने लगा कि यह कहानी जो मैं लाया हूँ मुहम्मद की कहानियों से अधिक रुचिकर है……..। 1 [1. मूल में उपरोक्त फ़ारसी उद्धरण के अर्थ छूट गये थे। श्री पं॰ शिवराज सह जी ने दे दिये सो अच्छा किया।   —‘जिज्ञासु’]

मआलिमु त्तंजील में यही कहानी सूरते लुकमान आयत 3 के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए लिखा है—

यतरकूना इस्तमा अलकुरान।

लोगों ने कुरान का सुनना छोड़ दिया।

अतः भाषा सौष्ठवता या भाव गम्भीरता का कमाल भी किसी पुस्तक के ईश्वरीय होने की निर्णायक युक्ति नहीं। इस विवाद में   मतभेद होने की आशंका है और जब यह मान्यता सभी मतवादियों की है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वरीय ज्ञान (वही) परमात्मा की ओर से हुई थी व वही मानव के ज्ञान का आदि स्रोत है तो इस पर व्यर्थ में परिवर्तन व निरस्तता के दोष लगाकर ईश्वरीय सन्देश का अपमान करना कहाँ तक ठीक है, अपितु उसी सन्देश पर सब को एकमत हो जाना कर्त्तव्य है। वह इल्हाम वेद है। 1 [1. सब आस्तिक मत ईश्वर को पूर्ण (PERFECT) मानते हैं। उसकी प्रत्येक कृति दोषरहित पूर्ण है। मानव, पशु, पक्षी सभी जैसे पूर्वकाल में जन्म लेते थे वैसे ही आज तथा आगे भी वैसे ही होंगे फिर प्रभु के ज्ञान में परिवर्तन व हेर-फेर का प्रश्न क्यों?   —‘जिज्ञासु’]

यह इल्हाम लोहे महफ़ूज़ में है—अर्थात् उसकी अनादि व अनन्त काल तक के लिए रक्षा की गई है। फलतः पाश्चात्य विद्वानों की भी सम्मति जिन्होंने वेद का अध्ययन किया है यही है कि वेद में हेरा-फेरी नहीं हुई। प्रोफ़ेसर मैक्समूलर अपनी ऋग्वेद संहिता भाग 1 भूमिका पृष्ठ 27 पर लिखते हैं—

हम इस समय जहाँ तक अनुसंधान कर सकते हैं हम वेदों के सूक्तों में विभिन्न्न सम्प्रदायों के होने का इस शब्द में प्रचलित अर्थों में वर्णन नहीं कर सकते।

प्रोफ़ेसर मैकडानल अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास में पृष्ठ 50 पर लिखते हैं—

इतिहास में अनुपम—परिणाम यह है कि इस वेद की रक्षा ऐसी पवित्रता के साथ हुई है जो साहित्य के इतिहास में अनुपम है।

कुरान ने अपने सम्बन्ध में तो कह दिया कि इसे वापिस भी लिया जा सकता है। यह अरबी भाषा में है। एक ऐसी जाति के लिए है जिसमें पहले पैग़म्बर नहीं आया। इसका उद्देश्य मक्का व उसके पास-पड़ौस की सामयिक सुधारना है और यही स्वामी दयानन्द व उसके अनुयायियों का दावा है।

उम्मुल किताब (पुस्तकों की जननी) जिसको वेद ने अपनी चमत्कारिक भाषा में वेद माता कहा है वही वेद है जो सृष्टि के आरम्भ में दिया गया था और जो सब प्रकार की मिलावटों एवं बुराईयों व हटावटों से पवित्र रहा है। भला यह भी  कोई मान सकता है कि पुस्तकों की माता का जन्म तो बाद में हुआ हो और बेटियाँ पहले अपना जीवन गुज़ार चुकी थीं?

इल्हाम के सम्बन्ध में हमारी मान्यता यह है कि परमात्मा ऋषियों के हृदयों में अपने ज्ञान का प्रकाश करता है यही एक प्रकार वही (ईश्वरीय ज्ञान) का है1

[1. ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश अथवा आविर्भाव का यही प्रकार है और इस्लाम भी अब मानव हृदय में ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश के वैदिक सिद्धान्त को स्वीकार करता है। डॉ॰ जैलानी ने भी अपनी एक पुस्तक में इसे स्वीकार किया है। फ़रिशते द्वारा वही लाने को भी मानना उसकी विवशता है। —‘जिज्ञासु’]

परमात्मा सर्वव्यापक है उसके व उसके प्यारों के मध्य किसी सन्देशवाहक की आवश्यकता नहीं परन्तु कुरान का इल्हाम एक फ़रिश्ते के द्वारा हुआ है जिसने हज़रत मुहम्मद से प्रथम भेंट के समय कहा था—

इकरअ बिइस्मे रब्बिका।

पढ़ अपने रब के नाम से।

एक गम्भीर प्रश्न—दूसरे शब्दों में कुरान की शिक्षा बुद्धि के द्वारा नहीं वाणी के द्वारा दी गई है। यह इल्हाम बौद्धिक नहीं वाचक है। हज़रत मुहम्मद साहब को तो जिबरईल की वाणी (भाषा) में इल्हाम मिला। हज़रत जिबरईल को किसकी वाणी (भाषा) से मिला होगा? अल्लाह ताला तो सर्वव्यापक है उसके अंग नहीं हो सकते। स्वामी दयानन्द उचित ही लिखते हैं कि—प्रारम्भ में अलिफ़ बे पे की शिक्षा किसने मुहम्मद साहब को दी थी? आशय यह है कि यदि इल्हाम वाणी के उच्चारण से प्रारम्भ होता है तो स्वयं इल्हाम देने वाला अध्यापक बनकर पहले इन शब्दों का उच्चारण करता है जो उसके पश्चात् देने वाले की वाणी पर आए हैं तो अल्लाह ताला यह इल्हाम अपने फ़रिश्ते की वाणी पर किस प्रकार पहुँचाता है? यदि इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अल्लाह ताला फ़रिश्ते की बुद्धि में अपनी बात प्रकट करता है।

क्योंकि वह वहाँ उपस्थित है तो क्या वह पैग़म्बर के दिल में विद्यमान नहीं है कि वहाँ तक सन्देश पहुँचाने के लिए दूसरे दूत का प्रयोग करता है? सर्वव्यापक न भी हो जैसे कि हम किसी पिछले अध्याय में बता चुके हैं कि कुरान के कुछ वर्णनों   के अनुसार वह सीमित है तो भी जिस शक्ति के सहारे अर्श पर बैठाबैठा सारे संसार का काम चलाता है उसी से पैग़म्बर के हृदय में इल्हाम क्यों नहीं डालता? फ़रिश्ता अल्लाह व पैग़म्बर के मध्य एक अनावश्यक साधन है। यह दोष है इस्लामी इल्हाम के प्रकार में।

कुरान को परमात्मा की वाणी मानने में एक बात यह भी बाधक है कि परमात्मा की वाणी अटल होनी चाहिए उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। परन्तु कुरान में स्पष्ट लिखा है कि उसके आदेशों में परिवर्तन होता रहा है। जैसे सूरते बकर रुकुअ 13 में लिखा है—

मानन्सरवा मिन आयतिन औ नुन्सिहाते बिख़ैरिन मिन्हा ओमितलहा।

जो निरस्त कर देते हैं हम आयतों को या भुला देते हैं हम लाते हैं उसके समान या उससे उत्तम।

कहानियाँ भी अनादि क्या?— मुसलमानों का दावा तो यह है कि कुरान के मूल पाठ की रक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं अल्लाह मियाँ ने अपने ऊपर ले रखा है, परन्तु कुरान न केवल निरस्तीकरण की सम्भावना प्रकट करता है, अपितु भूल जाने की भी। चलो थोड़ी देर के लिए मान लो कि कुरान का कोई वचन निरस्त नहीं होता और यह वही कुरान है जो अनादि काल से लोहे महफ़ूज़ पर लिखा हुआ है तब इन ऐतिहासिक कथाओं का क्या कीजिएगा। जो कुरान में लिखे हुए हैं। जैसे सूरते यूसुफ़ में यूसुफ़ और जुलेख़ा की कहानी है—

व रावदतहू अल्लती हुवा फ़ी बतहा अन नफ़िसही व ग़ल्ल कतेल अल बवाबा व कालत हैतालका काला मआज़ल्लाहे, इन्नहू रब्बी अहसना मसवाए इन्हू लायुफ़लिज़ोल ज़ालिमून।

—(सूरते यूसुफ आयत 23)

और फुसला दिया उसको उस स्त्री ने कि वह उसके घर के बीच था उसकी जान से और बन्द किये द्वार और कहने लगी आओ, कहती हूँ मैं तुझको, कहा, पनाह पकड़ता हूँ मैं अल्लाह की वास्तव में वह पालन करने वाला है मेरा, अच्छी तरह से उसने मेरा कहना किया। सचमुच नहीं यशस्वी बनते अत्याचारी लोग।

यदि यह ज्ञान नित्य है तो स्पष्ट है कि हज़रत यूसुफ आरम्भ से ही पवित्रतात्मा नियत किए गए और ज़ुलैखा आरम्भ से ही अत्याचारिणी ठहरी, अब अल्लाह मियाँ का लेख भाग्य लेख है वह टल नहीं सकता। कोई पूछे ऐसा निर्धारण करने के पश्चात् इल्हाम की आवश्यकता क्या? पापी लोग आरम्भ से ही पापी बन चुके वे सुधारे नहीं जा सकते और पवित्रात्मा प्रारम्भ से पवित्रात्मा बनाए जा चुके उन्हें सुधार की शिक्षा की आवश्यकता नहीं।

कुरान का आना व्यर्थ।

यही दशा उस बुढ़िया की है जो लूत के परिवार में से नष्ट हुई थी, फ़रमाया है—

इज़ानजय्यनाहो व अहलहू अजमईन इल्ला अजूज़न फ़िल ग़ाबिरीन।

—(सूरते साफ़्फ़ात आयत 134-135)

जब हमने मुक्ति दी उनको और उनके सारे परिवार को एक बुढ़िया के सिवाय जो ठहरने वालों में थी।

हज़रत नूह का लड़का और पत्नी, हज़रत मुहम्मद के चाचा अबू लहब आदि ऐसे व्यक्तियों की चर्चा कुरान में है जिन्हें कुरान यदि नित्य है तो अज़ल (अनादि काल) से ही दौज़ख़ के लिए चुन लिया गया और पैग़म्बरों व उनके अन्य परिवार जनों को बहिश्त में स्थान मिल चुका है। कुरान के इल्हाम का लाभ किसके लिए है?

इससे हमने सिद्ध कर दिया कि न तो मुसलमानों का माना हुआ इल्हाम का प्रकार ठीक है, न इल्हामों के क्रम की मान्यता दोष रहित है। न कुरान इस सिद्धान्त के अनुसार अन्तिम सन्देश होने का पात्र ही है, न उसकी भाषा ऐसी है जो संसार भर की सभी जातियों की सम्मिलित भाषा हो, वेद की भाषा सृष्टि के आरम्भ में तो विश्वभर की सांझी बोली थी ही इस समय भी उस पर समस्त संसारवासियों का अधिकार सम्मिलित रूप से उसी प्रकार है कि वह प्रत्येक जाति की वर्तमान भाषा का प्रारम्भिक स्रोत है व उन अर्थों का भण्डार है जिसका प्रकटीकरण बाद की बिगड़ी हुई या बनी हुई भाषाओं के कोष के द्वारा हो रहा है।

वर्तमानकाल की प्रचलित भाषा की धातुएँ वेद की भाषाओं की धातुएँ हैं, जिनके योगिक, अर्थात् कोष के अर्थों के कारण वेद की वाणी अर्थों का असीम भण्डार बनी हुई है। फिर वेद में ऐतिहासिक कथाएँ व घटनाएँ भी   नहीं हैं जैसे कुरान में हैं। यदि कुरान अल्लाह मियाँ की प्राचीन वाणी है व वह निरस्त न हो सके तो उसके वर्णित स्थायी नित्य पापी व पवित्रात्मा प्रारम्भ से ही पापी व पवित्रात्मा घड़े गए हैं। उनका स्वभाव बदल नहीं सकता। इल्हाम से लाभान्वित कौन होगा?1

[1. जो प्रश्न महर्षि दयानन्द जी ने एक से अधिक बार उठाया फिर हमारे शास्त्रार्थ महारथी उठाते रहे। पं॰ चमूपति जी ने इस ग्रन्थ में इसे अत्यन्त गम्भीरता से उठाते हुए बार-बार उत्तर माँगा है। वही प्रश्न अब इससे भी कहीं अधिक तीव्रता व गम्भीरता से मुस्लिम विचारक पूछ रहे हैं। ‘दो इस्लाम’ पुस्तक के माननीय लेखक का भी यही प्रश्न है। आप यह कहिये कि पं॰ चमूपति उसकी वाणी से मुसलमानों से पूछते हैं, “इस हदीस घड़ने वाले ने यह न बताया कि जब एक व्यक्ति के कर्म, भोग, सौभाग्य व दुर्भाग्य का निर्णय उसके जन्म से पहले ही हो जाता है तो फिर अल्लाह ने मानवों के सन्मार्ग दर्शन के लिए इतने पैग़म्बरों को क्यों भेजा? असंख्य जातियों का विनाश क्यों किया?” दो इस्लाम पृष्ठ 306। आगे लिखा है, “चोर के हाथ काटने का आदेश क्यों दिया? जब स्वयं अल्लाह उसके भाग्य में चोरी लिख चुका था।”   —‘जिज्ञासु’]

वास्तव में कुरान नित्य वाणी नहीं है, हमने स्वयं कुरान के प्रमाणों से सिद्ध किया है कि कुरान स्वयं को अरबवासियों के लिए जो उस समय इल्हाम के वरदान से वंचित थी। उस समय की आचार संहिता बताता है और इस बात की सम्भावना भी प्रकट करता है कि उसे वापिस ले लिया जाये। उम्मुल किताब या वेद माता की ओर संकेत है कि वह उच्चकोटि का ज्ञान भण्डार है जो सदा के लिए सुरक्षित है अत्यन्त अर्थपूर्ण है।

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