पुनरुत्थान युग का द्रष्टा
– स्व. डॉ. रघुवंश
कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषि भक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं। – समपादक
पिछले अंक का शेषभाग…..
वस्तुतः वैदिक संस्कृति में स्वस्थ और स्वच्छन्द जीवन के ऐसे मूल्यों की प्रतिष्ठा रही है, जो व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और परिवार, परिवार और समाज, व्यक्ति और राष्ट्र, व्यवहार और अध्यात्म, आत्मा और ब्रह्म के उचित सन्तुलन पर प्रतिष्ठित हैं। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की पूरी संभावनाएँ समाज की व्यवस्था में समाहित रही हैं और समाज की गति तथा सर्जन शीलता को सुरक्षित रखने के लिए व्यक्ति दायित्व-बोध तथा आत्मानुशासन की प्रक्रिया से अपनी रचनात्मक क्षमता को समृद्ध बनाता रहा है। निश्चय ही संस्कृति की यह परिकल्पना भारतीय जीवन की नये स्तर पर संघटना तथा संरचना के लिए आकर्षक थी और इस भूमि पर भारतीय व्यक्तित्व को नये सन्दर्र्भों से जोड़ पाना अधिक उचित था। स्वामी दयानन्द के सामने यही संकल्प था कि भारतीय समाज अपनी तत्कालीन अधोगति से मुक्त होकर किसी प्रकार स्वस्थ होकर नई रचनात्मक क्षमता से गतिशील हो सके। उन्होंने स्पष्टतः इस समाज के पतन तथा ह्रास के कारणों को समझा और विवेचन किया। जैसा कहा गया कि मध्ययुगीन ब्राह्मणवाद, पुरोहितों-महन्तों का निहित स्वार्थ, पुराण-पंथ, धर्म और दर्शन की एकांगिता तथा आध्यात्मिक साधनाओं की व्यक्तिनिष्ठा आदि कारणों का विवेचन करके दयानन्द ने इनका घोर विरोध किया। परन्तु भारतीय समाज के प्रचलित अन्ध्विश्वासों, अन्यायों, रूढ़ियों, कुरीतियों तथा जड़ताओं के कारण पश्चिमी संस्कृति से आकर्षित नेताओं के समान उन्होंने समस्त भारतीयता अथवा भारतीय संस्कृति को उपेक्षणीय तथा अविकसित नहीं मान लिया। उन्होंने भारतीय संस्कृति के आदिस्रोत तक जाकर उसकी आन्तरिक शक्ति और ऊर्जा का अन्वेषण किया और फिर उन तत्त्वों के संयोजन के आधार पर भारतीय व्यक्तित्व को पुनः प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयत्न किया। वस्तुतः दयानन्द आधुनिक भारत की समस्त अपेक्षाओं से भली भाँति परिचित थे और उनमें से प्रत्येक को सामने रखकर भारतीय समाज के पुनर्गठन का कार्य उन्होंने शुरू किया था।
भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के नेताओं ने, मुखयतः गाँधी ने देश का आह्वान करते समय अपने समाज की जिन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और समाज के जिन क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य के द्वारा गति प्रदान करने की चेष्टा की है, उन सभी समस्याओं को स्वामी दयानन्द ने बहुत बल देकर सामने रखा था और सभी क्षेत्रों में कार्य करना शुरू किया था। एक भी ऐसी समस्या नहीं है, जिसकी ओर उन्होंने संकेत न किया हो और कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिसे उन्होंने छोड़ा हो। समाज के वर्ण-भेद, उनकी असमानता, उनमें छुआछूत, जन्म से वर्णों के विभाजन आदि के बारे में दयानन्द ने अपने प्रखर विचार रखे थे। उन्होंने इस प्रकार की असमानता को, छुआछूत को, जन्म से वर्ण के निर्धारण को धर्म-विरुद्ध और असत्य प्रतिपादित किया, परन्तु उन्होंने कर्म पर आश्रित वैदिक वर्ण-व्यवस्था की स्वीकृति दी है। हम आधुनिकता के समर्थक यह कह सकते हैं कि कर्म पर आश्रित वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार कर लेना एक प्रकार का समझौता है, क्योंकि इस प्रकार हम दूसरे मार्ग से पर परम्परित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं, परन्तु स्थिति का यथार्थ-विवेचन करने से पता चलता है कि जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार करने की घोषणा की है, उन्होंने अपने जीवन में अभी तक जातिवाद को बहुत महत्त्व दे रखा है। भारतीय राजनीति के विभिन्न स्तरों पर जातिवाद का कितना प्रभाव है, इससे यह प्रमाणित होता है। गाँधी ने सन्त भाव से निम्न जातियों को ‘हरिजन’ कहा, पर ‘हरिजन’ शबद ‘अछूत’ के समान एक पर्याय मात्र बन कर रह गया। इसकी तुलना में दयानन्द की दृष्टि अधिक स्पष्ट थी। पहले तो उन्होंनें कहा कि समाज के विविध अंग रूप उसके वर्णों में ऊँच-नीच का भाव ही अधर्म है, क्योंकि अंगों का ऊँचा-नीचा स्थान उनकी श्रेष्ठता का निर्धारक नहीं हो सकता। यह कहना नितान्त मूर्खता है कि पैरों से हाथ इसलिए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि प्राणी के खड़े होने पर वे ऊपर स्थित होते हैं। समाज की व्यवस्था और सन्तुलन के लिए कार्यों का विभाजन किसी न किसी रूप में अनिवार्य है, पर कार्य के समपादन की क्षमता जन्मतः सिद्ध नहीं हो सकती, अतः वर्ण का जन्म से कोई समबन्ध नहीं है। इस प्रकार के तर्क और व्यवस्था में कितना बल है, यह स्पष्ट है। साथ ही दयानन्द ने वर्ण-व्यवस्था के नाम पर जो सामाजिक अन्याय हो रहा था, उसका बड़ा विरोध किया था और इस विद्रोह भाव को समाज की नई रचना में समाहित करने का प्रयत्न भी किया था। बाद के समन्वयवादियों के दृष्टिकोण से उनका विचार कहीं अधिक क्रान्तिकारी रहा है। यह अलग बात है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रयोग से जिस प्रकार की औद्योगिक और यांत्रिक प्रगति हो रही है, उसमें समाज-रचना का स्वरूप ऐसा बदल रहा है, जिसमें पिछली कर्माश्रित वर्ण-व्यवस्था असंगत हो गई है।
स्वामी दयानन्द ने सत्य धर्म एक ही माना है और उनकी दृष्टि में वह धर्म वही हो सकता है जो श्रेष्ठ मानव मूल्यों की रचनात्मक प्रक्रिया को गतिशील रखने में सक्षम हो सके। बाद के समन्वयवादियों और अन्तर्राष्ट्रीयतावादियों ने दयानन्द को कट्टर पंथी और खण्डन-मण्डन करने वाले सुधारक के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है, परन्तु वस्तु स्थिति यह है कि उनके जैसा उदार मानवतावादी नेता दूसरा नहीं रहा है। उन्होंने धर्म की सदा भारतीय व्यापक परिकल्पना सामने रखी है। वे धार्मिक समप्रदायों को अस्वीकार कर शुद्ध मानव मूल्यों पर प्रतिष्ठित धर्म को स्वीकार करने के पक्ष में रहे हैं। सन्तों का दृष्टिकोण मुखयतः आध्यात्मिक जीवन तक सीमित था, जब कि दयानन्द के सामने भारतीय जन-समाज के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य था।उन्होंने धर्म के निरर्थक कर्मकाण्डों के नाम पर चलाई गई कुरीतियों, अन्धविश्वासों, जड़-पूजाओं और मान्यताओं का घोर विरोध किया है। उन्होंने वस्तुतः जब कभी हिन्दू, मुसलमान या ईसाई धर्म का खण्डन किया है तो स्पष्टतः उन्होंने असत्य, अन्धविश्वास और जड़मान्यताओं का उल्लेख किया है और यह भी उन्होंने बार-बार घोषित किया है कि सभी धर्मों के मूल में शुद्ध मानव धर्म के तत्त्व विद्यमान हैं। यहाँ तक कि उन्होंने कई अन्य धर्म के नेताओं से प्रस्ताव भी किया कि सममिलित रूप से धर्म के मूलतत्त्वों पर विचार करके उन्हें निर्धारित कर लिया जाय और फिर सभी धर्म के नेता उन्हें स्वीकार करके उनका प्रचार-प्रसार करें। उनके मन में धर्म को लेकर कभी कोई दुराग्रह या पक्षपात नहीं रहा, उन्होंने सदा धर्म के श्रेष्ठ तत्त्वों पर ही बल दिया है। एक तथ्य की ओर ध्यान देना आवश्यक है। दयानन्द की प्रमुख चिन्ता भारतीय समाज के पुनरुद्धार की थी। उनके मन में उस समाज की अवस्था से अत्यन्त व्यथा थी। वे उसमें प्रचलित अन्धविश्वास, अन्याय, शोषण तथा नृशंसताओं से मर्माहत हो गये थे। क्रमशः उनको बोध हुआ था कि इस समाज की सदा से ऐसी अवस्था नहीं रही है। एक समय यह समाज मानव मूल्यों का वाहक रहा है, अतः उनका पहला संकल्प भारतीय व्यापक हिन्दू जन-समाज के उद्धार का था और उसके लिए उन्होंने हिन्दू धर्म की जड़ताओं पर सर्वाधिक प्रहार किया है। उनका विश्वास था कि इस आघात के बिना असत्य के मार्ग पर चलने वाले हिन्दू समाज के उद्धार का कोई उपायन हीं है। उनका सबसे बड़ा विरोध पौराणिकों, ब्राह्मण-पुरोहितों और आडमबर फैलाकर जनता को गुमराह करने वाले संन्यासियों से था और दयानन्द के विरुद्ध यह निहित स्वार्थों का वर्ग ही सदा रहा। वस्तुतः इस्लाम और ईसाई धर्म की आलोचना उन्होंने प्रासंगिक रूप में की है, क्योंकि हिन्दू धर्म के अन्धविश्वास आदि की आलोचना करके ये धर्मावलबी हिन्दुओं को मत-परिवर्तन के लिए प्रेरित करते थे, इस कारण दयानन्द ने यह प्रतिपादित किया है कि इन सभी धर्मों में हिन्दू-धर्म के समान अन्धविश्वास और जड़ताएँ प्रचलित हैं।
उनका धार्मिक उद्देश्य बहुत ऊँचा था। वस्तुतः उन्होंने संसार के सामने दो महत्त्वपूर्ण बातें रखी थीं। एक तो उन्होंने प्रतिपादित किया कि मूल सत्य तथा मानवीय मूल्यों की सर्जनशीलता से प्रेरित एक ही धर्म है। यह धर्म तत्त्व (अथवा ये तत्त्व) संसार के सभी श्रेष्ठ धर्मों के मूल में निहित है। यह धर्मों की सामप्रदायिकता है जो उन्हें अलग रूपों में प्रकट करती है। इसके साथ अनेक निहित स्वार्थ जुट जाते हैं और धर्म में अन्धविश्वासों तथा जड़ताओं का आश्रय लेकर असत्य का प्रवेश होता है। उन्होंने इसीलिए बार-बार प्रस्ताव किया कि सभी धर्म के लोग शुद्ध मानवीय धर्म का पालन कर सकते हैं, क्योंकि किसी धर्म का इससे विरोध नहीं हो सकता है और स्थान-स्थान पर यह स्वीकार किया है कि कोई भी धर्मावलमबी आर्य-धर्म अर्थात् श्रेष्ठ मानव धर्म का पालन कर सकता है। वस्तुतः उनके लिए ‘आर्य’ शबद किसी सामप्रदायिक धर्म का पर्याय कभी नहीं बना, यह उनके द्वारा ‘आर्य समाज’ की स्थापना से भी सिद्ध है। ‘आर्य समाज’ कभी किसी धर्म का रूप नहीं ले सका, यह उनकी इच्छा और विश्वास का ही परिणाम था। आज कल भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता की चर्चा काफी होती है, परन्तु उसकी विडमबना भी स्पष्ट है। स्वामी दयानन्द ने मानव मूल्यों पर प्रतिष्ठित धर्म की जो व्यापक तथा सर्जनशील व्याखया की थी, वह आज के भारत में अनेक धर्मो के स्वस्थ, सहज और रचनात्मक समन्वय की उचित भूमिका है।
स्वामी दयानन्द ने समाज में स्त्री के स्थान पर विशेष ध्यान दिया था। वे पुरुष के साथ नारी की समानता का पूर्ण समर्थन करते हैं। भारतीय समाज की हीनावस्था का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनके अनुसार यह भी है कि इस समाज में नारी का सममानपूर्ण स्थान नहीं रह गया है। वे नारी और पुरुष के अधिकारों की पूर्ण समानता स्वीकार करते हैं, पर दोनों के कार्य-क्षेत्र का विभाजन मानते हैं। आज के बदलते हुए समाज में स्त्री-पुरुष के कार्य-क्षेत्रों का अलगाव संभव नहीं रह गया है, परन्तु इससे दयानन्द के विचारों को संकुचित नहीं माना जा सकता और न उनकी क्रान्तिकारिता पर प्रश्न किया जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार जो समाज आज बनता जा रहा है, वह अपने आप में परिस्थिति की उपज है, उसे आदर्श समाज कहना विवादास्पद है। स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, वेश्या-उद्धार आदि अनेक समस्याओं को दयानन्द ने अपने युग के सर्न्दभ में उठाया था और उनका उचित समाधान प्रस्तुत किया था। आज ये प्रश्न हमारे लिए अमहत्त्वपूर्ण हो गये हैं, परन्तु जिस साहस और दृढ़ता के साथ उन्होंने इन समस्याओं का समाधान समाज के सामने रखा था, उससे उनके व्यक्तित्व की क्रान्तिकारिता लक्षित होती है और उनका द्रष्टा रूप भी सामने आता है।
एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व को सूक्ष्मता से उद्घाटित करता है। उन्होंने धर्म को मूल्य के स्तर पर ग्रहण किया है, उससे सामप्रदायिक व्यवस्था और कर्मकाण्डी पक्ष को बिल्कुल अलग कर दिया है, अतः धर्म संस्कृति के उच्चतम मूल्यों के स्तर को स्थापित करता है। जिस प्रकार संस्कृति के अन्तर्गत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तरों के मूल्यों का संचरण होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म स्तर पर धार्मिक, कलात्मक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की उपलबधि का क्षेत्र भी संस्कृति है। इस प्रकार संस्कृति मानवीय मूल्यों की सर्जनशीलता की दृष्टि से अधिक व्यापक है। दयानन्द का सारा प्रयत्न इस प्रकार सांस्कृतिक पुनरुत्थान से सबन्धित है। उनके लिए धर्म उसी सीमा तक महत्त्वपूर्ण है, जहाँ तक वह सांस्कृतिक मूल्यों के क्षेत्र में एक भूमिका प्रस्तुत करता है। यही कारण हे कि उनके दृष्टिकोण में संस्कृति के सभी स्तरों का समाहार है और उन्होंने भारतीय जीवन के सभी पक्षों तथा स्तरों के मूल्यों का इस प्रकार निरूपण किया है, जिससे उसका एक व्यापक तथा संश्लिष्ट सांस्कृतिक स्वरूप लक्षित होता है। इसके अन्तर्गत सामाजिक आचार, नैतिक आदर्श, व्यक्तित्व की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा, लोकजीवन में समत्व, राजनीतिक आदर्श व्यवस्था, राजतंत्र की लोकसत्तात्मक तथा समत्वमूलक परिभाषा, लोकोन्मुखी तथा सामयवादी अर्थतंत्र आदि के समस्त मूल्यों का प्रतिष्ठान वेदों को अवश्य माना तथा प्रमाणित किया है, परन्तु इनकी व्याखया आधुनिक जीवन के अनुरूप की गई है। साथ ही द्रष्टा के रूप में दयानन्द ने इन समस्त मूल्यों को संस्कृति के मर्म तथा अध्यात्म समबन्धी उच्च भूमियों पर प्रतिष्ठित कर तत्समबन्धी उच्च मूल्यों में उनका संक्रमण किया है। गाँधी ने अपने सत्य और अहिंसा जैसे मूल्यों में व्यावहारिक तथा पारमार्थिक मूल्य-दृष्टियों का समाहार किया है और भौतिकतावादी तथा अध्यात्मवादी एकांगी संस्कृतियों की तुलना में गाँधी के सांस्कृतिक संतुलन को बहुत महत्त्व मिला है, पर यहाँ ध्यान देने की बात है कि दयानन्द ने लौकिक तथा आध्यात्मिक जीवन के मूल्यों के पारस्परिक अन्तःसमबन्ध को जितनी स्पष्टता के साथ प्रतिपादित और विवेचित किया है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। वस्तुतः जीवन्त, सप्राण, गतिशील तथा सर्जनात्मक संस्कृति में इन दोनों पक्षों का समाहार और उनके मूल्यों का अन्तः संक्रमण अनिवार्य है। स्वामी दयानन्द ने संस्कृति के इसी रूप की परिकल्पना की है और उनकी दृष्टि में यही भारतीय संस्कृति का सच्चा स्वरूप है। उनकी संस्कृति समबन्धी अवधारणा के आधार पर समाज के भारतीयकरण के प्रश्न का समुचित उत्तर दिया जा सकता है।
स्वामी दयानन्द आधुनिक युग में ऋषि और द्रष्टा माने जायँगे। उनमें जितनी गहरी यथार्थ की पकड़ थी, उतनी ही व्यापक इतिहास और परमपरा को ग्रहण करने की क्षमता भी। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने समाज की प्रक्रिया को तथा उसके भविष्य की संभावनाओें को पहचाना और फिर उसको एक स्वस्थ और सर्जनशील समाज-रचना की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न किया। कोई भी परिकल्पना युग के साथ, परिस्थितियों के सन्दर्भ में परिवर्तित होती है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द की भारतीय समाज की नयी रचना की परिकल्पना में भी आज अन्तर पड़ जाना स्वाभाविक है, पर उनका भारतीय समाज की वर्तमान स्थिति का निदान आज भी उतना ही सटीक है। उनकी समाज-रचना की परिकल्पना भी बहुत कुछ आज स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि उनकी सांस्कृतिक मूल्यों की अवधारणा मानव धर्म की व्यापक प्रतिष्ठा तथा सर्जन शीलता से समबन्धित है। परन्तु इन से भी अधिक महत्त्व की बात है उनके व्यक्तित्व की क्रान्तिकारिता, जो असत्य और अन्याय के सममुख अडिग खड़े होने की क्षमता प्रदान करती है और जिसके कारण उन्होंने कभी विश्व में समझौता नहीं किया। आज यह स्पष्ट हो गया है कि समस्त देशी-विदेशी पुराण-पंथ के विरुद्ध सतत विद्रोह करने के लिए ऐसे क्रान्तिकारी व्यक्तित्व की देश को सर्वाधिक आवश्यकता है। इसके बिना देश का कोई भविष्य नहीं है।
-इलाहाबाद विश्वविद्यालय