प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बढाने वाला धन मिलता है ,

ओउम
प्रभु उपासक को पोषण को,यशस्वी बनाने को तथा वीरता बढाने वाला धन मिलता है , जो मानव परमपिता के समीप बैठ कर उस प्रभु का स्मरण करता है , प्रभु उसे अनेक प्रकार के धनों को देता है । यह धन पोषण को बनाने वाला होता है , उसको यश दे कर यशस्वी बनाता है तथा उपासक में वीरता का संचार करता है । यह मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये उपदेश करता है कि : –
अग्निनारयिमश्नवत्पोषमेवदिवेदिवे।
यशसंवीरवत्तमम्॥ ऋ01.1.3
यह मन्त्र अग्नि स्तवन पर बल देते हुये कहता है कि मनुष्य प्रभु की उपासना करने से कभी सांसारिक दृष्टि से असफ़ल नहीं होता । प्रभु स्तवन से ही वह निरन्तर आगे बढता है । वास्तव में प्रभु स्तवन से ही लक्षमी के दर्शन होते हैं । स्पष्ट है कि जहां प्रभु स्तवन है, वहां लक्ष्मी तो है ही, तब ही तो कहा जाता है कि मानव अग्नि से धन को प्राप्त करता है अर्थात जो प्रतिदिन यज्ञ करता है, उसे धन एश्वर्य के नियमित रुप से दर्शन होते रहते हैं ।
सामान्यत:; लोग इस बात को जानते हैं कि जिसके पास अपार धन सम्पदा होती है , उसके लिये अवनति का मार्ग खुला रहता है । इस धन की सहायता से वह अपनी इन्द्रियों को सुखी बनाने का यत्न करता है ,शराब, जुआ आदि अनेक प्रकार की बुराइयां उस में आ जाती हैं किन्तु जो धन प्रभु स्मरण से मिलता है,जो धन प्रभु स्तवन से मिलता है, जो धन अग्निहोत्र से मिलता है, जो धन यज्ञ से मिलता है, उस धन की एक विशेषता होती है , इस प्रकार से प्राप्त धन प्रतिदिन हमारे पोषण का कारण होता है । इससे हमारा किसी प्रकार का नाश, किसी प्रकार का ह्रास नहीं होता । इस प्रकार प्राप्त धन हमें कभी विनाश की ओर , मृत्यु की ओर नहीं ले जाता अपितु यह् तो हमें वृद्धि की ओर , उन्नति की ओर ले जाता है , जीवन को जीवन्त बनाने व उंचा उठाने की ओर ले जाता है ।
इस प्रकार यज्ञीय विधि से हमें जो धन मिलता है , यह धन हमें यश्स्वी बनाता है, यश से युक्त करता है । इस धन में परोपकार की भावना भरी होने से हम इसे दान में लगाते हैं , दूसरों की सहायता में लगाते हैं । इस कारण हम निरन्तर यशस्वी होते चले जाते हैं । हमारा यश व कीर्ति दूर दूर तक जाती है । मानव अनेक बार अपार धन सम्पदा पा कर इसके अभिमान में मस्त हो जाता है । इस मस्ती में वह अनेक बार एसे कार्य भी कर लेता है , जो उसे अपयश का कारण बनाते हैं । किन्तु यज्ञ आदि में धन का प्रयोग करने से उस का यश व कीर्ति बढते हैं ।
प्रभु उपासना से प्राप्त धन हमें अत्यधिक सशक्त करने वाला होता है, हमारी शक्ति बढाने वाला होता है । जब अत्यधिक धन के अभिमान में व्यक्ति अनेक नोकर – चाकरों को रख कर आलसी बन जाता है , कोइ कार्य नहीं करता, निठला हो जाता है तो स्वाभाविक रूप से शारीरिक कार्य वह स्वयं नहीं करता, इस कारण निर्बल हो जाता है । क्रिया अर्थात मेहनत ही सब प्रकार की शक्तियों का आधार होती है , जो व्यक्ति क्रियाशील रहता है , उसमें शक्ति की सदा वृद्धि होती रहती है, ह्रास नहीं होता । यह क्रियाशीलता ही शक्ति की जन्मदाता होती है । जब क्रिया का क्षय हो जाता है तो शक्ति का नाश होता है । हम अपने शरीर को ही देखे , हमारे दो हाथ हैं , एक दायां तथा दूसरा बायां । प्रत्येक व्यक्ति का बायां हाथ उसके अपने ही दायें हाथ से कमजोर होता है । एसा क्यों , क्योंकि मानव अपना सब काम दायें हाथ से ही करता है, बायें हाथ से वह बहुत कम कार्य करता है । इस कारण बायां हाथ दायें की अपेक्षा कमजोर रह जाता है । यही कारण है कि क्रियाशीलता के बिना तो प्रभु स्मरण भी नहीं होता । अत: प्रभु स्मरण हमें क्रियाशील बना कर बलवान बनाता है । क्रियाशील होने से हमारा शरीर पुष्ट होता है, पुष्टी से हम अधिक कार्य करने में सक्षम होते हैं, धनेश्वर्य के स्वामी बनते हैं। हमें यश व कीर्ति मिलतै हैं तथा हम में शक्ति का संचय होता है , जिससे हम वीर बनते हैं ।
डा. अशोक आर्य

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