ओउम
प्रभु स्मरण के सात लाभ होते हैं
डा अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा हम सब का ,जन्मदाता है वही हम सब का पालन करता है , वही हम सब का पौषण करता है तथा वह प्रभु ही हम सब का संहार अर्थात मोक्षदाता है । भाव यह है कि हमारे जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत हमारा सब कुछ करने वाला वह प्रभु ही है । हम उसके आदेश के एक कदम भी अलग से नहीं चल सकते । जब हम उस प्रभु के आदेशके बिना
चार साधन है मोक्ष पाने के लिए
संसार का प्रत्येक प्राणी मोक्ष पाने की इचछ रखता है । यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है कि प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है । परंम सुख है जन्म मरण के बंधन से मुक्ति । इस बंधन से छुटने पर ही परम सुख मिलता है । इसलिए सब प्राणी जन्म मरण के बंधन से छुट कर मुक्ति पाने की कामना करते है । कामना तो सब करते हैं किन्तु इस मुक्ति के मार्ग को पाने के लिए जो उपाय बताये गए हैं , उनको करने का यत्न नहीं करते , उन पर चलने की प्रेरणा भी उनमें नहीं होती । परमपिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है । अत: कुछ कर्म हैं जिन के किये बिना मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता । यह कर्म कौन से हैं , इन का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 51 में विस्तार से किया गया है । जो इस प्रकार है : –
प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना ।
अनु मातरं पृथिवी वि वाव्रते तस्थो नाकस्य शर्मणि ।।सामवेद 51 ।।
मानव अथवा जीव इस धरती पर जन्म लेकर अनेक प्रकार के कर्म करता है । अपने कर्म करने के पश्चात वह मृत्यु को प्राप्त होकर यहाँ से लौट जाता है । यहं से लौटने के पश्चात वह मोक्ष में जा कर वहां के सुखमय जीवन को प्राप्त करता है ।
मन्त्र का अंतिम भाग अथवा उतरार्ध भाग ऊपर वर्णित के अनुरूप स्पष्ट करते हुए कहता है कि इस पृथ्वी पर जीव का निवास कभी भी स्थायी न हो कर सदा अस्थायी ही होता है । अत: यहाँ से उसे निश्चित रूप से लौटना ही होता है । जैसे कोई मनुष्य प्रात:काल उठकर स्कुल पढ़ने को जाता है , तो कोई पढाने को, कोई कार्यालय में काम करने को जाता है तो कोई कार्यालय से अपना काम निकलवाने को । इस प्रकार संसार के सब प्राणी अपने निश्चित कार्य के लिए घर से बाहर जाते है । यदि किसी को कोई अन्य कार्य नहीं है तो वह भ्रमण के लिए ही चला जाता है किन्तु अपने निर्धारित कार्य की पूर्ति के पश्चात वह अपने घर अथवा अपने निवास पर लौट आते हैं , बाहर ही नहीं रह जाते । ठीक इस प्रकार ही परमपिता परमात्मा ने हमें इस पृथ्वी पर भेजा है । यह हमारा अस्थायी निवास है । परमात्मा ने हमें यहाँ कुछ समय के लिए अस्थायी रूप से भेजा है । इस लिए यहाँ से हमारा लौटना निश्चित है । हमारा स्थायी निवास तो उस पिता के चरणों में है, जिसे ब्रह्मलोक कहते हैं । हम ने जो यात्रा की है , जो कर्म किये हैं , उनके परिणाम स्वरूप हम यात्रा के, कर्म के कष्टों को सहने के परिणाम स्वरूप मोक्ष पाते हैं तथा फिर पूर्ण सुख व आनंद से रहते हैं ।
यह जीवन एक यात्रा है तथा यात्रा के भी अपने कुछ नियम होते हैं, कुछ सिद्धांत होते हैं , यात्री को इन नियमों का , इन सिद्धांतों का यात्रा के समय ध्यान रखना होता है । यह नियम दो प्रकार के होते हैं : –
!) यात्रा पर निकलने वाले व्यक्ति को यह ध्यान रखना होता है कि किस प्रकार से वह निकले कि उसकी यात्रा सरल , सुगम व सफल हो । इस के लिए उसे देखना होता है कि वह किस प्रकार के साधन अपना कर यात्रा करे कि उसे मार्ग में कम से कम कष्ट हों तथा मार्ग सफलता से कट जावे । उसे पता होना चाहिए कि अत्यधिक बोझ उसे थका देगा , वह सरलता से नहीं चल पावेगा । यह भी हो सकता है कि अति बोझ के कारण उसे मार्ग से ही लौटना पड जावे अथवा मार्ग में रुक रुक कर यात्रा करनी पड़े , जिस से यथा समय वह अपने गंतव्य पर न पहुँच सकेगा । इसलिए वह अपनी यात्रा में कम से कम बोझ अथवा सामान रखने का यत्न करता है । हमारा जीवन भी एक यात्रा है । अत: यह यात्रा भी कर्म के ताने बाने में बंधी है । इस यात्रा के मार्ग में हमारी आसुरी प्रवृतिया , काम , क्रोध आदि दुरित वासनाएं आदि बोझ हैं जो हमें इस जीवन यात्रा पर सुगमता से आगे नहीं बढ़ने देते । इन सब प्रकार के बोझों को अपने कर्मों के द्वारा कम करते हुए हम तेजी से अपने गंतव्य अर्थात मोक्ष मार्ग पर बढें । यह मोक्ष ही हमारा स्थायी निवास है , जहाँ हमें लौटना है ।
2) यात्रा में सदा आराम नहीं होता, अनेक प्रकार के कष्ट भी इस यात्रा में सहन करने होते हैं । कहीं स्नान की व्यवस्था नहीं तो कहीं नाश्ता नहीं मिलता, कहीं भोजन नहीं तो कहीं जलपान के बिना ही रहना होता है । इस प्रकार यात्रा में कई प्रकार की कठिनाईयों का सामना यात्री को करना होता है । तो भी यात्री किसी प्रकार अपना गुजारा करते हुए अपनी यात्रा की पूर्ति करता है । इस प्रकार ही हमारी जीवन यात्रा में हमारा ध्येय आराम न हो कर कर्म होना चाहिए । वास्तव में ध्येय तो हमारा मोक्ष है , ध्येय के साधन हैं कर्म । अत: अपने जीवन में हम सदा निर्माणात्मक कर्म करते हुए निरंतर मोक्ष मार्ग पर चलते चलें , तब तक चलते चलें , जब तक कि हमें हमारे ध्येय अर्थात मोक्ष को न पा लें । हमारा मोक्ष स्थान तो ब्रह्मलोक ही है । यही हमारा अंतिम निवास है । इस स्थान पर पहुँचने के निर्धारित साधन निम्न हैं , जिन साधनों को अपना कर ही हम इस उद्देश्य की पूर्ति कर सकते हैं : –
क ) प्रभु का सेवक बनकर : –
ख ) आगे ले जाने वाला बने : –
ग ) खेल भावना से कर्म करें : –
कुछ भी नहीं कर सकते तो हमारे भी उस प्रभु के प्रति कुछ कर्त्तव्य बनते हैं । उन कर्तव्यों का पालन करना हमारा पुनीत कर्तव्य होता है । यदि हम अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते तो हम प्रभु के पुत्र कहलाने का अधिकार भी नहीं रखते । इन कर्तव्यों में प्रभु की स्तुति करना, प्रभु की प्रार्थना करना तथा प्रभु की उपासना करना मुख्य हैं । प्रभु स्तुति के अनेक प्रकार हैं, जिन में से सात प्रकार की स्तुति अथवा स्तुर्ती से होने वाले सात प्रकार के लाभ का वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 45 में इस प्रकार किया गया है । : –
एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे ।
प्रियं सतिष्ठमरतिन स्वध्वरं विश्वस्य दुतममृतम ।। सामवेद 45 ।।
मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभो ! आप अग्नि के सामान सब को आगे ले जाने वाले
हैं ।मैं आप को नम्रता से पुकारता हूँ क्योंकि प्रभु की आराधना नम्रता से ही संभव है । ज्ञान , धन व बल का गर्व करने वाला व्यक्ति कभी भी उस परम्पिर्ता परमात्मा का सच्चा आराधक नहीं बन सकता । प्रभु का आराधक बनाने के लिए गरव् को छोड़कर
नम्रता को ग्रहण करना होगा । अन्याथा हम केवल भटकते रहेंगे , प्रभु से नहीं मिला
सकेंगे ।
जब हम परमपितापरमात्मा की इस प्रकार की आराधना करते हैं तो हमें प्रभु के कुछ विशेषणों के रूप में कुछ लाभ प्राप्त होते हैं । मन्त्र में इस प्रकार के लाभों की संख्या सात बतायी गयी है । जो इस प्रकार है : –
1) आराधक में शक्ति का प्रवाह निरंतर चलता है : –
जिस प्रभु ने हमें इस संसार में भेजा है , वह प्रभु शक्ति को कभी गिरने नहीं देता, नष्ट नहीं होने देता । जब मनुष्य उस प्रभु से संपर्क करता है , उसकी आराधना करता है , उसकी स्तुति , उपासना करता है तो मनुष्य का संपर्क शक्ति के स्रोत उस प्रभु से जुड़ जाता है , जुड़ता ही नहीं उससे यह संपर्क निरंतर बना रहता है । जिस से किसी का संपर्क होता है , उसमें जैसी शक्तियां होती हैं , वैसी ही शक्तियां ( जो बुरी भी हो सकती हैं तथा लाभकारी भी ) ,उपासक को मिलती हैं । इस प्रकार जब मानव प्रभु की आराधना करता है , उसके संपर्क में आता है तो जिस प्रकार की शक्तियां उस प्रभु में होती हैं , वैसी ही ईश्वरीय शक्तियों का प्रवाह मानव में हो जाता है ।
2) आराधक का मन सदा प्रसन्न रहता है :-
ऊपर बताया गया है की प्रभु आराधना से ईश्वरीय शक्तियां मिलाती है । ईश्वरीय शक्तियों को पा कर मानव अपने आप को धन्य समझता है तथा प्रसन्नता से भाव विभोर हो उठाता है । इससे स्पष्ट होता है की प्रभु आराधक सदा प्रसन्न रहता है । यह तो सब जानते ही हैं की प्रसन्न व्यक्ति सदा स्वस्थ रहता है तथा धन धान्य से उसके कोष सदा भरे रहते हैं । इससे उसकी प्रसन्नता और भी बढाती है ।
3) आराधक को उत्कृष्ट ज्ञान मिलता है : –
परमपिता परमात्मा सब प्रकार के ज्ञान का आदि स्रोत होता है । जब हम परमपिता की प्रार्थना, उपासना पूर्वक स्तुति करते हैं तो वह प्रभु हमें अपनी गोदी में स्थान देकर हमें उत्तम ज्ञान देता है । इस प्रकार प्रभु आराधक को उत्तम से उत्तम ज्ञान देता है ।
4) आराधक को ब्रह्मानंद मिलता है : –
प्रभु भक्ति से आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति होती है । जब प्रभु भक्त अपनी आराधना के बल से प्रभु के साथ साक्षात्कार कर लेता है , प्रभु का साथ उसे मिल जाता है तो उसे असीम आनंद की अनुभूति होती है । अब उसके लिए प्रभु भक्ति के आनंद के सामने अन्य सब प्रकार के आनंद फीके दिखाई देते हैं । यह ही कारण है कि अब वह विषयों की और आकर्षित नहीं होता । ब्रह्मानंद के सामने उसे अन्य सब आनंद तूचछ दिखाई देते हैं । अत: वह विषयों से मिलने वाले रस से प्रीति को समाप्त कर ब्रह्मानंद में लीन होने का यत्न करता है क्योंकि अब उसे विषयों से मिलने वाला आनंद ब्रह्मानंद की प्रतिस्पर्धा में कुछ भी दिखाई नहीं देता ।
5) आराधक सदा उत्तम कर्मों में लग जाता है : –
जब आराधक को ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है तो उसे किसी पर हिंसा करने की आवश्यकता नहीं रहती , सब कुछ उसे उस प्रभु की शरण मात्र से ही मिल जाता है । अत: वह हिसा रहित हो कर उत्तमोत्तम कर्मों में लीन हो जाता है । इससे संसार का उपकार होता है तथा उसे और भी अधिक प्रसन्नता तथा आनंद मिलता है ।
6) आराधक के पास असुर प्रवृतियां नहीं आतीं : –
मानव की शरीर रूपी देवनगरी में जब आराधक की तपशचर्या से देवगण इस नगरी के अन्दर घुस कर इसे सप्त -ऋषियों का आश्रम बना देते हैं तो असुर प्रवृतियाँ बलात रूप से इस में घुस नहीं सकतीं क्योंकि असुर प्रवृतियों का उत्पातक प्रभु उन्हें सदा इस देवग्रह से दूर भगाता है , उन्हें पास नहीं आने देता ,अन्दर घुसने देने का तो प्रशन ही नहीं उठता । तभी तो सातवें लाभ के रूप में प्रभु आराधक को सब से बड़ा विजेता कहा गया है।
7 आराधक सब से बड़ा विजेता होता है : –
परमपिता परमात्मा मोक्ष का साधक होता है । वह अपने भक्तों को जन्म मरण के बंधनों से मुक्त कर मोक्ष में ले जाता है । इस प्रकार यह आराधक मृत्यु के भय से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । यह जो मुक्ति का मार्ग है , यह प्रभु आराधना से ही प्राप्त होता है । हम ऊपर बता चुके हैं कि प्रभु की आराधना नम्रता से होती है , अभिमान से नहीं । नम्रता से अभिमानादि दुष्ट वृतियों को पूर्णतया अपने वश में कर लेने से प्राप्त होती है । हम मन्त्र की भावना को तब ही आत्मसात कर यह सात लाभ पा सकते हैं जब हम नम्रता को ग्रहण कर स्वयं पर विजेता बनकर प्रभु आराधना में नम्रता के साथ निराभिमान हो कर जुटे रहेंगे । शत्रुओं पर तो अनेक लोग विजय कर लेते हैं किन्तु अपने आप पर विजय कोई ही पा सकता है , जो अपने आप पर विजय पा लेता है , वह सब से बड़ा विजेता होता है । यह विजय प्रभु आराधना से ही संभव होती है ।
अत: आओ हम प्रभु भक्ति के इन सात लाभों से साक्षात्कार करने के लिए सप्तारिशियों को पाने के लिए तथा प्रभु शरण के अधिकारी बनने के लिए नम्रता पूर्वक प्रभु की आराधना करें ।
डा अशोक आर्य