प्रभु सब का कल्याण करते हैं
डा. अशोक आर्य
परमात्मा श्रमशील व्यक्ति , जो मेहनत करके अपना व्यवसाय चलाता है , को ही पसन्द करते हैं , उसकी ही सदा सहायता करते हैं । इस प्रकार का उपदेश इस मन्त्र में इस प्रकार दिया गया है :-
यएकश्चर्षणीनांवसूनामिरज्यति।
इन्द्रःपञ्चक्षितीनाम्॥ ऋ01.7.9 ||
इस मन्त्र में पभु ने तीन बिन्दुओं के माध्यम से जीव को इस प्रकार उपदेश किया है :-
१. श्रम से धन प्राप्त करें :-
परम पिता प्ररमात्मा की सदा यह ही इच्छा रही है कि मानव अथवा जीव सदा श्रम शील हो । वह चाहे कृषि करे या कोई भी अन्य व्यवसाय किन्तु यह सब कुछ वह मेहनत से करे , उद्योग से करे , पुरुषार्थ से करे । मेहनत से किया कार्य निश्चित ही कोई उतम फ़ल लेकर आता है । प्रभु जीव को पुरुषार्थी ही देखना चाहता है । जो लोग आलसी होते हैं , प्रमादी होते हैं , अन्यों पर आश्रित होते हैं , एसे जीवों को वह पिता कभी भी पसन्द नहीं करते । इस कारण ही इस मन्त्र में कहा गया है कि वह प्रभु श्रमशील व्यक्तियों तथा उनके निवास के लिए सब प्रकार के आवश्यक धनों के ईश होने के कारण वह उन जीवों की सहायता करके उन्हें अपना निवास बनाने के लिए तथा दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन आदि की व्यवस्था करने में सहयोग करते हैं किन्तु करते उसके लिए ही हैं , जो मेहनत करता है , जो श्रम करता है , जो पुरुषार्थ करता है ।
परमपिता परमात्मा सर्वशक्तिमान हैं । सब प्रकार की शक्तियां प्रभु में विद्यमान हैं । इन शक्तियों का संचालन , इन शक्तियों का प्रयोग भी वह स्वयं ही करते हैं । अपने कार्य करने के लिए उन्हें किसी अन्य की सहायता नहीं लेनी पडती । वह अपना काम स्वयं ही करते हैं । मानव को , जीव को तो अपने कार्य करने के लिए , अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदा ही दूसरों पर आश्रित होना पडता है , दूसरों की सहायता लेनी पड्ती है । चाहे कृषि का क्षेत्र हो चाहे कोई व्यवसाय , उसे दूसरे की सहायता लेनी ही होती है । वह अकेले से अपने किसी भी कार्य की पूर्ति नहीं कर सकता । इसलिए उसे प्रबन्धन करना होता है , कुछ लोगों में काम बांट कर करना पडता है , तब ही उसके काम की पूर्ति होती है किन्तु वह सर्वशक्तिमान परमात्मा एसा नहीं करता ,। वह अपने सब काम ओर उन कामों के सब भाग वह स्वयं ही पूर्ण करता है ।
२. प्रभु श्रमशील को ही पसन्द करता है :-
प्रभु को श्रमशील मनुष्य , मेहनती मनुष्य , पुरुषार्थी मनुष्य ही पसन्द हैं । एसे जीव को ही वह अपना आशीर्वाद देते हैं , जो निरन्तर परिश्रम करते हैं । आलसी – प्रमादी को वह कभी पसन्द नहीं करते । जो अपना काम स्वयं करता है , एसे को ही वह पसन्द करते हैं । मन्त्र में एक शब्द आया है चर्षणीय । इस शब्द का स्थानापन्न कर्षणीय भी कहा गया है अर्थात कृषि आदि , वह कार्य जिन को करने के लिए मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है । जो लोग इस प्रकार के मेहनत से युक्त , पुरुषार्थ से युक्त कार्यों में लगे रहते हैं , एसे व्यक्ति ही प्रभु को पसन्द हैं तथा प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं । इन्हें ही प्रभु अपनी कृपा का पात्र समझते हुए , इन पर कृपा करता है । एसे लोगों को वह पिता सब प्रकार के आवश्यक धन प्राप्त करने में सहाय होते हैं , सब एश्वर्यों के स्वामी बनाने में पथ प्रदर्शक का कार्य करते हैं । इस मन्त्र में चर्षणीय तथा वसूनां शब्दों का प्रयोग किया गया है । इन शब्दों के द्वारा यह भावना ही प्रकट होती है कि प्रभु की दया उसे ही मिलती है जो पुरुषार्थी है । जो मेहनत नहीं करता, आलसी है , प्रमादी है , एसे लोगों को प्रभु न तो पसन्द ही करते हैं तथा न ही उनकी किसी प्रकार की सहयता करते हैं । प्रभु उन पर अपनी दया दृष्टि कभी नहीं डालते । अत: प्रभु की दया पाने के लिए पुरुषार्थी होना आवश्यक है ।
३. प्रभु सब का कल्याण करते हैं ;-
परमपिता परमात्मा पांचों प्रकार के मनुष्यों के ईश हैं । इस वाक्य से एक बात स्पष्ट होती है कि इस संसार में पांच प्रकार के मनुष्य होते हैं । हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु ने इस संसार के मानवों को पांच श्रेणियों में बांट रखा है । यह श्रेणियां उनकी योग्यता अथवा उनके गुणों के अनुसार बनायी गई हैं । जिस प्रकार एक विद्यालय में विभिन्न कक्षाएं होती हैं तथा प्रत्येक शिक्षार्थी को उसकी योग्यता के अनुसार कक्षा दी जाती है । जिस प्रकार हम देखते हैं कि इस विद्यालय में विभिन्न प्रकार के कर्मचारी होते हैं । प्रत्येक कर्मचारी को उसकी योग्यतानुसार चपरासी,लिपिक, अध्यापक अथवा मुख्याध्यापक का पद दिया जाता है। यह सब प्रभु की व्यवस्था की नकल मात्र ही है क्योंकि प्रभु ने इस जगत के मानवों को , उनकी योग्यता के अनुसार पांच श्रेणियों में बांट रखा है । यह पांच श्रेणियां इस प्रकार हैं :-
मानव – समाज =
(क) ब्राह्मण
(ख) क्षत्रिय
(ग) वैश्य
(घ) शूद्र
(ड.) निषाद ।
यह प्रभु की व्यवस्था है । जिस में जिस प्रकार के गुण हैं अथवा जिस में जिस प्रकार की योग्यता है , उसे उस प्रकार के वर्ग में ही प्रभु स्थान देते हैं । इस के साथ ही प्रभु उपदेश भी करते हैं कि हे मानव ! तेरी वर्तमान योग्यता को देखते हुए मैंने तुझे इस श्रेणी में रखा है , इस वर्ग में रखा है , यदि तूं पुरुषार्थ करके , मेहनत करके अपनी योग्यता को बढा लेगा तो तुझे सफ़ल मानकर उपर की श्रेणी में भेज दिया जावेगा ओर यदि तूं प्रमाद कर , आलसी होकर अपनी योग्यता को कम कर लेगा तो तुझे निरन्तर उस श्रेणी में ही रहना होगा जिस प्रकार एक असफ़ल बालक को अगले वर्ष भी उसी कक्षा में ही रहना होता है किन्तु तूंने फ़िर भी मेहनत न की तो तेरी श्रेणी नीचे भी की जा सकती है । इस प्रकार पांच श्रेणियां बना कर प्रभु ने मेहनत करने का मार्ग मानव मात्र के लिए खोल दिया है ।
वह परमात्मा तो सब मनुष्यों के ईश हैं । सब पर समान रूप से दया करते है । सब को समान रुप से धन देते हैं किन्तु देते उतना ही हैं जितना उसने पुरुषार्थ किया होता है । जिस प्रकार एक कपडे की मिल के सेवक को मालिक उतना ही धन प्रतिफ़ल में देता है , जितना उसने कपडा बनाया होता है , उससे अधिक नहीं देता । इस प्रकार ही वह प्रभु भी मानव को उतना ही धन देता है , जितना उस मानव ने मेहनत किया होता है , इस से अधिक कुछ भी नहीं देता । कपडे की मिल के मालिक से तो कई बार अग्रिम भी प्राप्त किया जा सकता है किन्तु परमात्मा किसी को अग्रिम धन नहीं देता । यह ही उस प्रभु की दया है , उस प्रभु की कृपा है । इस प्रकार प्रभु सब को धन देकर सब का कल्याण करते हैं क्योंकि वह ही क्ल्याणकारी हैं ।
डा. अशोक आर्य
बहुत अच्छे विचारों का संगम है।