प्रभु हमारे एक मात्र ओर असाधारण मित्र हैं
डा. अशोक आर्य
ज्यों ही प्रभु जीव का मित्र हो जाता है त्यो ही जीव को सब कुछ मिल जाता है । उस की सब अभिलाषाएं पूर्ण हो जाति हैं , सब इच्छाए पूर्ण हो जाती हैं , उसे किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं रह जाती । इस तथ्य पर यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
इन्द्रंवोविश्व्तस्परिहवामहेजनेभ्य: ।
अस्माकमस्तुकेवल: ॥ ऋ01.7.10 ॥
इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है :-
१. प्रभु सदा हमारा कल्याण चाहते हैं :-
इस चलायमान जगत में एक मनुष्य ही दूसरे मनुष्य की सहायता करता है । मानव में यद्यपि एक दूसरे से सदा ही प्रतिस्पर्द्धा रहती है । वह एक दूसरे से आगे निकलने का यत्न करता है , दूसरे से अधिक सुखी व सम्पन्न होने का प्रयास प्रत्येक मानव को इस दौड का प्रतिभागी बना लेता है । इतना होते हुए भी समय आने पर मानव ही मानव के काम आता है ।
हम इस जगत में अकेले नहीं हैं । हमारे बहुत से सम्बन्धी हैं । कोई हमारी माता है , कोई पिता है , कोई हमारा भाई है तो कोई चाचा , कोई मामा, कोई ताऊ या किसी अन्य सम्बन्ध में बन्धा है । यह सब लोग समय – समय पर हमारी अनेक प्रकार से सह्योग , सहायता व सुरक्षा करते हैं । इस कारण यह सब हमारे शुभ – चिन्तक हैं , हितैषी हैं , सहायक हैं अथवा मित्र हैं । जब भी हमारे पर कोई भी विपति आती है तो यह सहायक बन कर सामने खडे होते हैं तथा इस दु:ख के अवसर पर हमारा साथ देकर हमें इस से निकालने का यत्न करते हैं ।
यह हमारे मित्र ,यह हमारे सम्बन्धी क्या सदा सर्वदा हमारा सहयोग करेंगे ? , क्या सदा ही संकट काल में हमारे रक्षक बन कर सामने आवेंगे । नहीं यह एक सीमा तक ही हमारे मित्र , हमारे सहायक , हमारे रक्षक होते हैं । इस सीमा के पार यह लोग नहीं जा पाते । यह तब तक ही हमारे साथी हैं , जब तक हमारे कारण इन को कोई कष्ट नहीं अनुभव होता , यह तब तक ही हमारे साथी हैं , जब तक इन को कोई व्यक्तिगत हानि नहीं होती । ज्यों ही कभी हमारे कारण इन्हें कोई हानि होने की सम्भावना होती है तो यह हम से अलग हो जाते हैं | जब तक दोनों के हित – अहित एक से होते हैं तो सब साथ होते हैं किन्तु ज्यों ही एक दूसरे के हित अहित में अन्तर आता है तो यह अलग हो जाते हैं । जीवन में कई अफ़सर तो एसे आते हैं कि जिस समय निकट से निकटतम सम्बन्धी भी साथ छोड जाता है ।
जिस समय हमारे सब मित्र हमारा साथ छोड देते हैं, संकट के समय हमें मंझधार में डूबने के लिए छोडकर चले जाते हैं , एसी अवस्था में परम पिता पामात्मा हमारे सहायक बन कर आते हैं , हमारे असाधारण मित्र बन कर आते हैं , असाधारण सम्बन्धी बनकर आते हैं तथा हमारा हाथ पकड कर हमें संकट से निकाल कर ले आते हैं । यहां उस पिता को असाधारण मित्र तथा असाधारण सम्बन्धी कहा है । एसा क्यों ? क्या केवल मित्र या सम्बन्धी शब्द से काम नहीं चल सकता था ? जी नहीं ! केवल इस शब्द से काम कैसे चल सकता है ? यह शब्द तो हम पहले ही अपने व्यक्तिगत मित्रों व सम्बन्धियों के लिए प्रयोग कर चुके हैं , जो संकट काल में हमें छोड गये थे । जब हमारा कोई भी न था , एसे समय में उस पिता ने आकर हमें अपना मित्र , हमें अपना समन्धी मानकर हमारा हाथ पकडा | हमें उस संकट से निकाल कर लाए , फ़िर वह असाधारण क्यों नही हुआ ? इस कारण ही वेद के इस मन्त्र में उस प्रभु को असाधारण मित्र कहा गया है ।
मन्त्र कहता है कि जब हमारे मित्र हमारा साथ छोड जाते हैं , जब हमारे सब सम्बन्धी भी सब सम्बन्ध तोड कर चले जाते हैं , एसे समय हम उस प्रभु को ही अपने मित्र रुप में सामने खडा हुआ पाते हैं , उस प्रभु को ही हम अपने सम्बन्धी के रुप में सामने खडा हुआ पाते हैं । हम उसे सहायता के लिए पुकारते हैं । हम जानते हैं कि परम पिता सदा सब का कल्याण चाहते हैं , सदा सब को सुखी देखना चाहते हैं । इस लिए ही हम सहायता के लिए उसे पुकारते हैं । इस से स्पष्ट है कि जिस समय पूरे संसार में हमें अपना कोई भी सहायक दिखाई नहीं देता , उस समय यह प्रभु ही हमारा सहायक होता है , हमारा परम मित्र होता है , हमारा परम सम्बन्धी होता है ।
२. हम सदा प्रभु प्राप्ति की कामना करें :-
हम एसे कार्य करें कि जिससे हमारे रक्षक , हमारा कल्याण चाहने वाले वह प्रभु हमारे असाधारण मित्र बन जावें , हमारे असाधारण सम्बन्धी बन जावें । जब भी हम उसे पुकारें , वह दौडते हुए हमारी सहायता के लिए प्रकट हो जावें । इस लिए हम सदा ही अपने सांसारिक मित्रों से कहीं अधिक , हम अपने सांसारिक सम्बन्धियों से कहीं अधिक उस प्रभु को मित्र व सम्बन्धी के रुप मे देखें तथा उसे सर्वाधिक चाहें ।
यह प्रभु ही हमें आत्मतत्व के रुप में प्राप्त होते हैं । आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए जीव सब कुछ त्यागने को तैयार हो जाता है , यहां तक कि वह इस पृथिवी , जो उसका निवास होती है , जिस के बिना वह एक क्षण भी इस संसार में रह नहीं सकता , इसे भी त्यागने को तैयार हो जाता है । यदि एक ओर इस जगत के , इस संसार के , इस ब्रह्माण्ड के सब पदार्थ हमें मिल रहे हों ओर एक ओर हमें केवल आत्म तत्व प्राप्त हो रहा हो तो हम सब कुछ को छोड कर आत्म तत्व को पाने का प्रयास करें । यही ही श्रेयस मार्ग है । जिस प्रकार कठोपनिष्द में बताया गया है कि नचिकेता ने संसार के सब प्रलोभनों को छोड दिया , उस ने इन प्रलोभनों की ओर देखा तक भी नहीं ओर आत्म तत्व पाने का यत्न किया । उस प्रकार ही हम भी इन सब भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग करते हुए प्रभु को पाने का प्रयास करें , उसे वरण करने का यत्न करें ।
यह जितना कुछ हम जगत में देख रहे हैं , यह सब कुछ उस प्रभु के अन्दर ही विराजमान है । इसलिए जब वह पिता हमें मिल जावेंगे , हमें आशीर्वाद दे देवेंगे तो यह सब कुछ तो अपने आप ही हमें मिल जाने वाला है । फ़िर इस सब से अनुराग क्यों ?, इस सब से अनुराग हटा कर प्रभु से सम्बन्ध जोडने का यत्न करें ।
जब हम परम पिता विष्णु के अतिथि बन कर उसके द्वार पर जावेंगे तो वहां पर लक्ष्मी हमें भोजन कराने के लिए निश्चित रुप से प्रकट होगी । इस प्रकार विष्णु रुप प्रभु को पा कर , लक्ष्मी रुप प्रभु को पा कर हमें सब कुछ मिल जावेगा । इस लिए हमारे लिए यह प्रार्थाना , यह कामना , यह अभिलाषा करना ही सर्वश्रेष्ठ है कि हमें केवल ओर केवल वह पिता ,वह प्रभु , वह परम एश्वर्यशाली प्रभु हमें मिल जावें , प्राप्त हो जावें तथा उन्हें साक्षात करने का हम निरन्तर प्रयास करते रहें ।
डा. अशोक आर्य
Oum…
Aryavar, Namaste…
AAp ke harek lekh uchcha koti ke hote hai…padh ke yekdam aanand aur santosh miltaa hai, Eeshwar se praarthanaa hai ki aap ko sadaa isi tarah lekhne ki preranaa miltaa rahe…dhanyavaad..
aapkaa shubha-chintak: Prem Arya, Doha-Qatar se..
Oum…
Aryavar, mai ek prashna karne ki anumati maangtaa hoon..
agar hamaare purva-janma ke sabhi karma-fal samaapt hojaate hain to kyaa is janma me jo karm ham karte hain, uskaa fal bhi isi janma me milte hai? is me Ved aur Rishi-mooni ke vichaar kyaa hai? kripayaa meraa samshaya avashya dur karenge.
Oum..
Dhanyavaad…
Namaste…
कर्म फल ईश्वर की व्यवस्थानुसार ही मिलते हैं
वर्तमान जन्म भी पूर्व जन्म के कर्मों का फल है
कौनसे कर्म का फल किस समय मिलेगा ये ईश्वर निर्धारण व्यवस्था का अंग है
बहुत सुंदर तरीके से ईश्वर हमारा असाधारण मित्र है कि व्याख्या की है आपने। क्या आप मेरै द्वारा टाईप चारो वेदमंत्र अपनी साईट मे जगह देगे जिससे वेदमंत्र जन जन तक पहंच सके आपकी कोई ईमेल आइडी हो तो उसमे सेंड कर दूंगा।
ji aapko mail karta hu apana id yaa aap apane lekh ko hame is id par mail kare…. kripya in dono mail id par aap hame email karein…
vedickoshpdf@yahoo.in
ptlekhram@gmail.com
dono mail me ek saath mail kar de apane article ko.. yadi lekh pasand aaya to jarur ham site par daalenge,,,
dhanywaad
Thank you sir aapke dono email id par rgved ke moolmantra send kar raha hoon. lekin apne computer par devlys 10, kruti dev, patrika hindi font install kar lena .fir bhi koi dikkat aaye to reply me likhna. aur han aapke sampdkiy mandaly ko mere davara bheje gaye mool rgved ke mantra pasand aaye ya nahi .yah bhi likhna .Agar pasand aaye to main unhen kanha published roop me dekh sakta hoon yah bhi batana. aapke sakaratamk sahyog ke liye aap sabhi ko dhanyvaad.Ishwar aapka kalyan kare.