– डॉ. वेदपाल जी सरीखे वेदज्ञ तथा कई अन्य विद्वान् हाथ पर हाथ धरे तो बैठे नहीं रहते। पूरा वर्ष शोध व धर्म प्रचार करते रहते हैं। सभा के इस सेवक की दिनचर्या ढाई तीन बजे प्रातः आरभ हो जाती है। शोध व लेखन कार्य छह और सात बजे के बीच आरा हो जाता है। सागर पार के देशों से महर्षि के जीवन सबन्धी पर्याप्त नई सामग्री पर परोपकारिणी सभा के लिए अपना नयी अनूठी परियोजना से कुछ लिखने की तैयारी करके बैठा ही था कि परमात्मा की कृपा वृष्टि से और नये-नये दस्तावेज पहुँच गये हैं। आर्य जगत् को क्या-क्या बातऊँ? क्या-क्या मिला है? यह तो आर्य जन नये ग्रन्थ में ही पढ़ेंगे।
अभी तो इतना ही बता सकता हूँ कि विदेशियों व विधर्मियों द्वारा महर्षि के व्यक्तित्व व उपलधियों पर प्राण वीर पं. लेाराम के पश्चात् प्रचुर सामग्री फिर हमारे हाथ ही लगी है। आर्य समाज की स्थापना सेाी पूर्व सन् 1870 में इंगलैण्ड के एक पत्र में यह छपा मिला है कि यह वेदज्ञ काशी में डंका बजा रहा है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। भारत में एक विदेशी बिशप के पत्र से पता चलता है कि स्वामी दयानन्द के प्रादुर्भाव से उसकी सभाओं में भीड़ घट गई है। स्वामी दयानन्द सबके लिए आकर्षण का केन्द्र है।
जब सक्रिय समाजों की संख्या मात्र 22-24 थी तब महर्षि रेवाड़ी पधारे। न जाने रेवाड़ी क्षेत्र यादवों में क्या चेतना का संचार हुआ कि सागर पार के देशों में ऋषि के मिशन व वैचारिक क्रान्ति पर लबे-लबे लेख छपने लगे। अदूरदर्शी हिन्दू समाज तो ऋषि मूल्याकंन न कर पाया। गोरी जातियों ने ताड़ लिया कि पाषाण पूजा के इस सबसे बड़े शत्रु, एकेश्वरवाद के महान् सन्देशवाहक स्वामी दयानन्द का यह मिशन सरकार के संरक्षण व सहयोग के बिना ही फूलेगा फलेगा। बंगाल, मद्रास के पश्चात् चर्च की, साम्राज्यवािदयों की गिद्ध की दृष्टि छत्रपति शिवाजी के प्रदेश पर के न्द्रित थी। दस्तावेज जो अभी-अभी हाथ लगे हैं, उनसे पता चलता है कि श्री महाराज के मुबई पहुँचते ही गोरों को प्रार्थना समाज व ब्राह्य समाज की चिन्ता सताने लगी। कारण? वे खुलकर यह स्वीकर करते थे कि ऋषि से पहले की ये संस्थायें व संगठन ईसाइयत की और पश्चिम की पैदावार (देन) हैं परन्तु, स्वामी दयानन्द न तो अंग्रेजी जाने और न कभी अमरीका और लंदन की यात्रा की। कोई विदेशी भाषा वह न जाने।
यह सुधारक विचारक तो वेदज्ञ है। वेद को ही स्वतः प्रमाण मानता है। यह विशुद्ध भारतीय हिन्दू आन्दोलन है। यह सार्वभौमिक धर्म को मानने वाला प्रखर राष्ट्रवादी निर्भीक, निर्भीड़ सत्यवक्ता है। अमरीका के ………….में सन् 1868 में मेरे ऋषि का भव्य फोटो छपा। यह आर्य समाज का शैशव काल था। तब तक किसी भारतीय सुधारक, विचारक का अमरीका में फोटो नहीं छपा था। ऋषि न तो शिकागो गया और न न्यूयार्क ही गया। अंगेजी वह जानता नहीं था।
जिस सामग्री (मत पंथों के बारे) में अस्सी वर्ष से हमारे पूर्वज खोज कर रहे थे, वह भी मेरे पास पहुँच गई है। इसमें हमारी क्या बड़ाई है यह तो पं. लेखराम, पं. गणपति शर्मा, स्वामी दर्शनानन्द, पं. रामचन्द्र देहलवी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश तक की सतत साधना का प्रसाद है जो परोपकारिणी सभा आर्य जाति को परोसने वाली है।
गुजरात यात्रा में कई एक ने बड़ी श्रद्धा से मुझ पर दबाव बनाया कि ऋषि मेला तक इस ग्रन्थ का विमोचन हो जाना चाहिये। मैंने उत्तर में कहा कि मैं श्रद्धा से भरपूर हृदय से सोच विचार कर इस ग्रन्थ का सृजन करुँगा। दिन रात मेरे मस्तिष्क में यही ग्रन्थ अब घूमता है। हडबड़ी में, शीघ्रता से कुछ नहीं करुँगा। परोपकारिणी सभा इसके महत्त्व को समझती है। यदि ऋषि मेला तक इसका विमोचन न हो सका तो एक विशेष महोत्सव करके पं. लेखराम जी के 119 वें बलिदान पर्व पर इसका विमोचन करवाने की मैं आर्य जगत् से भिक्षा मागूँगा । लौकैषणा और वित्तैषणा से बहुत ऊपर उठकर जिस आर्यवीर ने अपने साथियों से मिलकेर इस सामग्री की खोज का ऐतिहासिक कार्य किया है उसका परिचय किसी अगले अंक में दिया जायेगा।