परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं

ओउम
परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं
डा.अशोक आर्य
जो देता है, जो देव है , उसका वह प्रभु कल्याण करते हैं । यह ही प्रभु क सत्य है , यह ही प्रभु का व्रत है , यह ही प्रतिज्ञा है । इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये मन्त्र उपदेश कर रहा है :

यदङ्गदाशुषेत्वमग्नेभद्रंकरिष्यसि।
तवेत्तत्सत्यमङ्गिरः॥ ऋ01.1.6 ||
हे सब अस्तुओं के दाता, सब वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले पिता,सब के अग्रणी, सब से आगे रहने वाले प्रभु ! धन देव तथा आप की प्रार्थना एक साथ नहीं की जा सकती । यह नियम तो आप ही ने बनाया है कि दाता की सदा प्रार्थना करो । प्रार्थना से ही दाता देता है । जब हम दाता से कुछ मांगते ही नहीं तो दाता को क्या पता की आप को किस वस्तु की इच्छा है , वह आप की इच्छा कैसे पूरा करेगा ? अत: आप के बनाये गये नियम के अनुरूप हम दाता से , दाश्वान से मांगते है, कुछ पाने के लिये प्रार्थना करते हैं । दात, देव अथवा दान देने वाला भी हमारे लिये दाता है तथा आप सब से बडे दाता है । हम किस को अपना अर्पण करें ? जो धन देने वाला दाता है, उसे अथवा आप के प्रति अपना अर्पण करें । दोनों के समीप एक साथ तो बैठा नहीं जा सकता । एसा सम्भव ही नहीं है ।
हे पिता ! आप कल्याण करने वाले हैं । आप ही हमारे लिये वित की व्यवस्था करने वाले हैं , आप ही हमारे लिये घर की , निवास की व्यवस्था करते हैं , आप ही हमारे लिये पशु आदि, धनादि रुप में सब प्रकार के भद्र पदार्थ देने वाले हैं । इस प्रकार आप का यह नियम निश्चय ही सत्य है , आप के इस नियम के द्वारा हमारे उन दाश्वान् के अंगों में मधुर रसों का संचार करने वाले आप ही तो हैं । सब अंग – प्रत्यंगों में जीवनीय शक्ति, जीवनीय रसों का संचार करते हुये आप ही वास्तव में इन अंगों में सब रसों का संचार करने वाले , प्रवाह करने वाले हैं । अत: आप ही जीवन दाता हैं, जीवन देने वाले हैं ।
जब एक नन्हा सा बालक अपने आपको पूरी तरह से अपने ही माता पिता के अर्पण कर देता है , अपनी इच्छाओं को अपने माता पिता की इच्छाओं से मिला लेता है । अब माता पिता की इच्छा ही उस बालक की इच्छा बन जाती है । एसी अवस्था में एसे बालक का माता पिता अपने से भी अधिक अपने इस बालक का ध्यान रखते हैं । इस प्रकार की उत्तम भावना से वह अपने इस बालक का उत्तम निर्माण करते हैं । ठीक इस प्रकार ही जब एक दाश्वान व्यक्ति उस पिता के प्रति स्वयं को समर्पित कर देता है ,अर्पण कर देता है तो बालक के माता पिता के ही समान प्रभु भी उसे अत्यधिक प्रिय मानते हैं । अत:वह पिता भी हमें सब प्रकार की अभ्युदय कारक , आगे बढाने वाली वस्तुएं, उन्नत कराने वाली वस्तुएं स्वयमेव ही उपलब्ध कराते हैं ।
जीव अल्पबुद्धि होता है । जीव की इस अल्पज्ञता के कारण जीव अपने द्वारा धारण किया कोई व्रत भूल भी जावे ,उससे कोई व्रत टूट भी जावे तो भी परम पिता का व्रत उसके पूर्ण ज्ञान के कारण टूट नहीं पाता । यह तो हम जानते हैं कि जीव अल्पज्ञ है । इस अल्पज्ञता के कारण कई बार कोई गल्त वस्तु भी दे देता है किन्तु हमारा वह प्रभु तो पूर्ण है । अपनी पूर्णता के कारण उससे कभी कोई भूल सम्भव ही नहीं है । अत:वह सदैव ठीक ही करता है तथा ठीक वस्तु ही देता है ।

डा. अशोक आर्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *