ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्दिष्ट ‘गौतम-अहल्या और इन्द्र-वृत्रासुर’ की आलंकारिक कथा का वास्तविक स्वरूप न समझ कर पुराणों में इसका अत्यन्त बीभत्स रूप में वर्णन किया है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार इन्द्र नाम सूर्य का है और गौतम चन्द्रमा का, तथा अहल्या नाम रात्रि का है। अहल्या-रूपी रात्रि और गोतम-रूपी चन्द्रमा का आलङ्कारिक पति-पत्नी भाव का कथन है। इन्द्र=सूर्य को अहल्या का जार इसलिये कहते हैं कि सूर्य के उदय होने पर रात्रि नष्ट हो जाती है। इस कथा का यही तात्पर्य निरुक्त में भी दर्शाया है – 🔥”आदित्योऽत्र जार उच्यते रात्रेर्जरयिता। ३।५” 🔥”रात्रिरादित्यस्योदयेऽन्तर्धीयते। १२।११” इन्द्र-वृत्रासुर कथा में भी इन्द्र नाम सूर्य का है। उसे त्वष्टा भी कहते हैं। वृत्र नाम निघण्टु में मेघ-नामों में पढ़ा है। जब वृत्र-मेघ बढ़ कर … Continue reading गौतम-अहिल्या और इन्द्र-वृत्रासुर की सत्यकथा । ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक→
जिस समय डाल्टन का परमाणुवाद संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ उस समया एटम (परमाणु) को किसी भी पदार्थ का मूल कण माना जाने लगा परन्तु इलेक्ट्रोन आदि की खोज से डाल्टन का परमाणुवाद इतिहास की बात होकर रह गया। एटम को विखण्डित करते-करते आज मूल कण कहे जाने वाले कणों की संख्या दौ सौ के लगभग ही हो चुकी है। इन कणों को भी वैज्ञानिक उत्पन्न कर रहा है, दूसरों में परिवर्तित कर रहा है उदासीन पाई मैसोन की त्रिज्या १० से, मानी जा रही है तब इन्हें कैसे मूलकण माना जाये ? आज एटम का स्टेण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रारूप में छः क्वार्क (u, d, c, b, t) तथा छः लैप्टोन (इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन, टाऊन, … Continue reading वर्तमान परमाणु (एटम) की उत्पत्ति और वेद -ब्रह्यचारी अग्निव्रत नैष्ठिक→
सृष्टि के पदार्थों का वर्णीकरण या विभाजन इतना सरल, सुकर नहीं है जितना कि हम समझते हैं, क्योंकि पदार्थ निर्माता परमात्मा अनन्त ज्ञान वाला है अतः उसके निर्माण भी अनन्त हैं दुज्र्ञेय हैं। पृथिवी के जिन पदार्थों को हम अहर्निश देखते हैं, उनमें बाहुल्य उन पदार्थों का होता है जिनके हम नाम तक नहीं जानते, गुण, कर्म को जानता तो दूर की बात है, उनमें कुछ एक ही ऐसे पदार्थ होते हैं जिनके रूप, रंग, नाम, गुण आदि से परिचय रखते हैं, पुनरपि हमारे ऋषि मुनियों ने पदार्थों के वर्गीकरण में उनके विभाजन में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, अपनी ऊहा से तीनों लोकों के पदार्थों का स्वरूप वैदिक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। पृथिवी के जिन पदार्थों … Continue reading वेदों का वनस्पति-विभाग -सुश्री सूर्या देवी आचार्या→
वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य (पदार्थ विद्या के विशेष सन्दर्भ में) -डॉ. कृष्णलाल आधुनिक विज्ञान की सभी गवेषणाओं का लक्ष्य सृष्टि के तत्वों के मूल तक पहुंचना है। विज्ञान समस्त दृष्टि में क्या, क्यों और कैसे की खोज करता है। सभी पदार्थों में कोई मूल तत्व, अपरिवर्तित गुण की खेज करके विज्ञान यथार्थ की गहराई तक उत्तर कर सूक्ष्मेक्षिका द्वारा मूल सूत्र को ढूँढता है। एक ओर इससे जहां नये तथ्य उद्घाटित होते हैं, वहीं उस सूत्र को मानवता के उपकार में लगाया जा सकता है। वेद के अनुसार सृष्टि का मूल सूत्र ही ऋत और सत्य है जो सब ओर समिद्ध तप या उष्णता से उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से व्यक्त संसार से पहले अव्यक्त प्रकृतिरूप … Continue reading वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य–डॉ. कृष्णलाल→
वेद का विषय बहुत लम्बे समय से विवादास्पद रहा है। वेद के प्राचीन प्रामाणिक विद्वान् ऋषि आचार्य यास्क ने अपने वेदार्थ-पद्धति के पुरोधा ग्रन्थ निरूक्त के वेदार्थ के ज्ञाताओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख किया है। पहली पीढ़ी वेदार्थ ज्ञान की साक्षात् द्रष्टा थी जिसे वेदार्थ ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी सन्देह नही था। (साक्षात्कृत धर्माण, सृषमो बभुवः।) दूसरी पीढ़ी उन वैदिक विद्वानों की हुई जिन्हें वेदार्थ ज्ञान साक्षात् नहीं था, उन्होंने अपने से पुरानी ऋषियों की उस पीढ़ी से जो साक्षात्कृत धर्मार्थी, उपदेश के द्वारा वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस दूसरी पीढ़ी को भी वेदार्थ ज्ञान सर्वथा शुद्ध और अपने वास्तविक रूप में ही मिला (ते पुनरवरेभ्योऽसाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः।) और तीसरी पीढ़ी उन लोगों की आयी जो … Continue reading वेद और भौतिक – विज्ञान -डॉ. महावीर मीमांसक→
हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः विश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः । इडामग्ने पुरुससनिं गोः शश्वत्त्तमहर्वमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे॥ -यजु० १२।५१ ( अग्ने ) हे तेजस्वी परमेश्वर ! ( हवमानाय ) मुझ प्रार्थी के लिए ( इडाम् ) भूमि, अन्न और गाय तथा ( पुरुदंसं ) अनेक कर्मों को सिद्ध करनेवाली ( गो:४ सनिं ) वाणी की देन ( शश्वत्तमं ) निरन्तर ( साध ) प्रदान कीजिए। (नः सूनुः ) हमारा पुत्र ( तनयः५) वंश आदि का विस्तार करनेवाला और ( विजावा ) विविध ऐश्वर्यों का जनक ( स्यात् ) हो ( सा ) ऐसी ( ते सुमतिः ) आपकी सुमति ( अस्मे ) हमारे लिए ( भूतु ) होवे। हे … Continue reading हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार→
जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः विरूपः । देवता सूर्य: । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् । चित्रं देवानामुर्दगदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।। आणू द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षसूर्य’ऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥ -यजु० १३ । ४६ ( देवानाम् ) दीप्तिमान् किरणों का (चित्रम् अनीकम् ) चित्रविचित्र सैन्य ( उदगात् ) उदित हुआ है। यह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः ) वायु, जल और अग्नि का अथवा प्राण, उदान और जाठराग्नि का ( चक्षुः ) प्रकाशक एवं प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने (आअप्राः२) आपूरित कर दिया है ( द्यावा पृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा ( अन्तरिक्ष ) अन्तरिक्ष को। ( सूर्यः ) सूर्य ( आत्मा ) आत्मा है ( जगतः ) जङ्गम का ( तस्थुषः च ) और स्थावर का। देखो, रात्रि के अन्धकार को चीरता हुआ … Continue reading जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार→
मानव को किन कार्यों के लिए नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः परमेष्ठी। देवता प्रजापतिः । छन्दः विराड् ब्राह्मी जगती । त्रिवृदसि त्रिवृते त्वा प्रवृदसि प्रवृते त्वा विवृदसि विवृते त्वा सवृदसि सवृते त्वाऽऽक्रमोऽस्याकूमार्य त्वा संक्रमोऽसि संक्रमार्य त्वोत्क्रमोऽस्युत्क्रमाय त्वोत्क्रान्तिरस्युत्क्रान्त्यै त्वाधिपतिनो र्जार्ज जिन्व।। -यजु० १५ । ९ हे मनुष्य ! तू (त्रिवृद् असि ) ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों तत्वों के साथ वर्तमान है, अतः ( त्रिवृते त्वा ) इन तीनों की वृत्ति के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( प्रवृत् असि) प्रवृत्तिमार्ग में जाने योग्य है, अतः ( प्रवृते त्वा ) प्रवृत्तिमार्ग पर चलने के लिए तुझे नियुक्त करता हूँ। तू ( विवृद् असि ) विविध उपायों से उपकार करनेवाला है, अत: (विवृते त्वा ) विविध उपायों से उपकार के लिए … Continue reading मानव को किन कार्यों के लिए नियुक्त करें? रामनाथ विद्यालंकार→
जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः दीर्घतमा: । देवता वरुण: । छन्दः क. आर्षी त्रिष्टुप्,| र. निवृद् अनुष्टुप् ।। कमापो मौषधीहिंसीर्धाम्नोधाम्नो राजॅस्ततो वरुण नो मुञ्च। यदाहुघ्न्याऽइति वरुणेति शपमहे ततो वरुण नो मुञ्च। ‘सुमित्रिया नऽआपओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु। योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः -यजु० ६ । २२ हे ( वरुण राजन् ) वरणीय राजन् ! ( मा अपः ) न जलों को, ( मा ओषधीः ) न ओषधियों को ( हिंसीः ) हिंसित या दूषित करो। ( धाम्नः धाम्नः ) प्रत्येक स्थान से (ततः) उसे हिंसा या प्रदूषण से ( नः मुञ्च ) हमें छुड़ा दो। (शपामहे ) हम शपथ लेते हैं कि ( यद् आहुः ) जो यह कहते हैं कि । गौएँ ( अघ्न्याः … Continue reading जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार→