हम आयु, तेज, समृद्धि आदि प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् । अग्नेऽभ्यावर्तिन्नूभि । निवर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजय धनेन। सुन्या मेधयां रय्या पोषेण -यजु० १२ । ७ | हे ( अभ्यावर्तिन् अग्ने ) शरीर में अनुकूलता के साथ रहनेवाली प्राणाग्नि ! (अभिमानिवर्तस्व) मेरे शरीर में निरन्तर विद्यमान रह ( आयुषा ) स्वस्थ आयु के साथ, ( वर्चसा ) वर्चस्विता के साथ, (प्रजया) उत्कृष्ट प्रजननशक्ति एवं प्रजा के साथ, ( धनेन ) धन के साथ ( सन्या) इष्ट प्राप्ति के साथ, ( मेधया ) धारणावती बुद्धि के साथ, ( रय्या) विद्या-श्री के साथ ( पोषेण ) पुष्टि के साथ। शरीर में जब तक प्राणाग्नि प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि द्वारा सुचारुतया कार्य करती … Continue reading हम आयु, तेज, समृद्धि आदि प्राप्त करें -रामनाथ विद्यालंकार→
नवनिर्वाचित-राजा-कोनवनिर्वाचित राजा को प्रजा के प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः त्रितः । देवताः अग्निः । छन्दः विराट् आर्षी त्रिष्टुप् । सीद त्वं मातुरस्याऽउपस्थे विश्वान्यग्ने वयुननि विद्वान्। मैनां तपस मार्चिषाऽभिशोचीरन्तरस्याऽशुक्रज्योतिर्विभाहि॥ -यजु० १२ । १५ | ( अग्ने ) हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( विश्वानि ) सब ( वयुनानि ) प्रशस्य कर्मों, प्रज्ञाओं और कान्तियों के ( विद्वान्) ज्ञाता ( त्वं ) आप ( अस्याः मातुः ) इस मातृभूमि की (उपस्थे ) गोद में, राजगद्दी पर ( सीद ) बैठो। ( एनां ) इस मातृभूमि को (मा) न (तपसा ) सन्ताप से, ( मा ) न (अर्चिषा ) दु:ख, विद्रोह, आतङ्क आदि की लपट से (अभिशोचीः ) शोकाकुल करो। ( अस्याम् अन्तः ) इसके अन्दर ( शुक्रज्योतिः ) प्रदीप्त तथा पवित्र … Continue reading नवनिर्वाचित राजा को प्रजा के प्रतिनिधि की प्रेरणा -रामनाथ विद्यालंकार→
रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः वरुणः । देवता वैद्याः । छन्दः विराड् आर्षी बृहती। दीर्घायुस्तऽओषधे खनिता यस्मै च त्वा खनाम्यहम्। अथ त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शुतवल्शा विरिहतात्॥ -यजु० १२ । १०० ( ओषधे ) हे ओषधि! ( ते खनिता ) तुझे खोदनेवाला ( दीर्घायुः ) दीर्घायु हो, (यस्मैच) और जिस रोगी के लिए ( अहं त्वा खनामि ) मैं वैद्य तुझे खोदता हूँ [वह भी दीर्घायु हो]। ( अथो) और हे ओषधि ! ( त्वं दीर्घायुः भूत्वा ) तू भी दीर्घायु होकर ( शतवल्शा) शत अंकुरोंवाली के रूप में ( वि रोहतात् ) बढ़। कई रोग अन्य मनुष्य को तथा प्राणियों को जन्मजात मिलते हैं और अन्य बहुत-से रोगों को वे अपने शरीर में नये उत्पन्न कर … Continue reading रोगी, वैद्य और ओषधि तीनों दीर्घायु हों -रामनाथ विद्यालंकार→
हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री । आप्यायस्व समेतु ते विश्वतः सोम वृष्ण्यम्। भवा वाजस्य सङ्गथे॥ -यजु० १२ । ११२ ( सोम ) हे चाँद ! ( आ प्यायस्व) बढ़, परिपूर्ण हो जा। ( विश्वतः ) सब ओर से ( ते ) तेरा (वृष्ण्यम् ) सेचक अमृत ( समेतु ) आये। ( भव ) हो जा ( वाजस्य ) बल के (संगथे) संगमार्थ । हे चाँद! किसी दिन तू परिपूर्ण आभा के साथ गगन में चमक रहा था, पूर्णिमा का चाँद था। किन्तु तू आपदा से ग्रस्त होकर घटना आरम्भ हो गया और घटते-घटते आज अमावस के दिन आकाश से लुप्त ही हो गया है। तू पुनः बढ़ना आरम्भ … Continue reading हे चाँद! बहकर परिपूर्ण हो जा -रामनाथ विद्यालंकार→
जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः विश्वेदेवाः । देवता वायुः । छन्दः भुरिग् अतिजगती। प्राणम्मे पाह्यपानम्मे पाहि व्यनम्मे पाहि चक्षुर्मऽउर्ध्या विभाहि श्रोत्रम्मे श्लोकय। अपः पिन्वौषधीर्जिन्व द्विपार्दव चतुष्पा त्पाहि दिवो वृष्टिमेरय॥ -यजु० १४/८ हे वायो ! हे जगदीश्वर ! ( मे प्राणं पाहि ) मेरे प्राण की रक्षा कीजिए, ( मे अपानंपाहि) मेरे अपान की रक्षा कीजिए ( मे चक्षुः ) मेरी आँख को ( उर्ध्या ) व्यापकरूप से (विभाहि ) दृष्टिशक्ति से चमकाइये, ( मे श्रोत्रं ) मेरे कान को ( श्लोकय ) श्रवणशक्ति से युक्त कीजिए। ( अप: जिन्व ) पानी सींचिए, ( ओषधीः जिन्व ) ओषधियों को बढ़ाइये, ( द्विपाद् अव ) दो पैरवाले मनुष्य से प्रीति कीजिए, ( चतुष्पात् पाहि) चार पैरवाले गाय आदि पशुओं का पालन … Continue reading जगदीश से प्रार्थना -रामनाथ विद्यालंकार→
आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः गयप्लातः । देवता अदितिः ( दैवी नौः )।। छन्दः भुरिक् आर्षी त्रिष्टुप् । सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसंसुशर्मण्मदितिसुप्रणीतम्। दैवीं नार्वस्वरित्रामनागसमस्त्रेवन्तीमारुहेमा स्वस्तये॥ -यजु० २१.६ आओ, (सुत्रामाणं) उत्कृष्ट त्राण करनेवाली, ( पृथिवीं) विस्तीर्ण, ( द्यां ) प्रकाशपूर्ण, (अनेहसं ) पापरहित, ( सुशर्माणं) उत्तम सुख दनेवाली (अदितिं ) खण्डित न होनेवाली, ( सु-प्रणीतिं ) शुभ उत्कृष्ट नीतिवाली, (सु-अरित्रां) उत्कृष्ट चप्पुओंवाली, (अनागसं ) अपराध-रहित, निर्दोष, । ( अस्रवन्तीं) न चूनेवाली, छिद्ररहित (दैवींनावं) दैवी नाव । पर ( आ रुहेम) आ चढ़े ( स्वस्तये ) कल्याण के लिए। सांसारिक यातनाओं का विकराल समुद्र धाड़े मार रहा है। ज्वार बढ़ता ही जा रहा है। लगता है यह सारी धरती को ही निगल लेगा। ईष्र्या-राग-द्वेष की भयङ्कर लहरों का आघात प्रतिघात … Continue reading आओ, दैवी नौका पर चढ़े -रामनाथ विद्यालंकार→
हनुमान जी बन्दर नहीं थे : आचार्य डा० श्रीराम आर्य हनुमान जी जिनको महावीर जी भी कहा जाता है हिन्दू समाज में एक विशेष स्थान रखते हैं। राम के साथ वे रामायण के सर्वप्रमुख पात्र हैं। राम को यदि हनुमान जी का सहयोग प्राप्त न हुआ होता तो राम को सीता का पता लगाना भी सम्भव नहीं था तथा रावण के साथ युद्ध में राम का विजय होना भी संदिग्ध हो जाता। लक्ष्मण शक्ति के बाद संजीवनी बूटी की खोज करना और उसे लाकर उसको पुनर्जीवित करना हनुमान जी के ही उद्योग का फल था अन्यथा राम को लक्ष्मण जी के जीवन की आशा ही नहीं रह गयी थी। हनुमान जी को अकेले लंका में जाकर वहां सीता जी का … Continue reading हनुमान जी बन्दर नहीं थे : आचार्य डा० श्रीराम आर्य→
प्रभु ने हमें क्या-क्या दिया है? -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः हिरण्यागर्भः। देवता अग्निः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् । इषमूर्जमहमितऽआदमृतस्य योनि महिषस्य धाराम् ।आ मा गोषु विशुत्वा तनूषु जहामि सेदिमनिराममीवाम्॥ -यजु० १२ । १०५ ( इषम्) अन्न को, ( ऊर्जी ) रस को, ( ऋतस्य योनिम्) जल के भण्डार को, (महिषस्यधाराम् ) महान् सूर्य की प्रकाशधारा को ( अहं ) मैंने ( इतः ) इस अग्नि नामक परमात्मा से ( आदम् ) पाया है। यह सब (मा) मुझमें, ( गोषु ) गौओं में, (तनूषु) सब शरीरधारियों में (आ विशतु ) प्रवेश करे। ( जहामि ) छोड़ देता हूँ (सेदिम्) विनाश को, (अनिराम्) अन्नाभाव को और (अमीवाम् ) रोग को।। क्या तुम जानना चाहते हो कि ‘अग्नि’ नामक प्रभु से हमने क्या-क्या … Continue reading प्रभु ने हमें क्या-क्या दिया है? -रामनाथ विद्यालंकार→
हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः भारद्वाजः । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः विराड् आर्षी जगती । ब्राह्मणासुः पितरः सोम्यासः शिवे न द्यावापृथिवीऽअनेहसा। पूषा नः पातु दुरितादृतावृधो रक्षा माकिर्नोऽअघशसऽईशत॥ -यजु० २९ । ४७ ( सोम्यास:१) शान्ति के उपासक ( ब्राह्मणास:२) ब्राह्मण जन और (पितरः) रक्षक क्षत्रियजने ( नः शिवाः ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( अनेहसा ) निर्दोष निष्पाप (द्यावापृथिवी ) पिता-माता (नः शिवे ) हमारे लिए सुखदायक हों। ( ऋतावृधः पूषा ) सत्य को बढ़ानेवाला पोषक राजा व न्यायाधीश (दुरितात् ) अपराध एवं पाप से (नःपातु ) हमारी रक्षा करे। हे परमात्मन् ! ( रक्ष) हमारी रक्षा कर। (अघशंसःनःमाकिः ईशत ) पापप्रशंसक दुष्टजन हम पर शासन न करे। हम चाहते हैं कि हमारा राष्ट्र पूर्णतः सुव्यवस्थित हो। गुण-कर्मानुसार वर्णव्यवस्था … Continue reading हमारा सुव्यवस्थित शासन – रामनाथ विद्यालंकार→
यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः नारायण: । देवता सविता । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । देव सवितः प्र सुव यज्ञं प्र सुव यज्ञपतिं भगाय दिव्यो गन्धर्वः कैतपूः केते नः पुनातु वाचस्पतिर्वार्चनः स्वदतु ॥ -यजु० ३०.१ | ( देव सवितः ) हे प्रकाशक प्रेरक जगदीश्वर! आप ( प्रसुव यज्ञं ) प्रेरणा दीजिए जीवन-यज्ञ को, (प्रसुव यज्ञपतिम् ) प्रेरणा दीजिए यज्ञपति आत्मा को ( भगाय) भग की प्राप्ति के लिए। (दिव्यः) दिव्य, ( गन्धर्व:१) लोकों तथा इन्द्रियों को धारण करनेवाला, ( केतपू:२) प्रज्ञा एवं विचारों को पवित्र करनेवाला वह सविता देव (केतंनःपुनातु ) हमारी प्रज्ञा तथा विचारों को पवित्र करे। ( वाचस्पतिः ) वाणी का स्वामी एवं पालनकर्ता वह परमेश्वर ( नः वाचंः ) हमारी वाणी को ( … Continue reading यज्ञ को प्रेरित करो, यज्ञपति को प्रेरित करो-रामनाथ विद्यालंकार→