यम-यमी सूक्त । पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      ऋग्वेद मण्डल १० का १०वाँ सूक्त ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार वैवस्वत यमयमी के संवादपरक है। यम और यमी भाई बहन हैं। यमी यम से शारीरिक सम्बन्ध की कामना करती है, यम उसे इस सम्बन्ध के लिये मना करता है। ऐसा सभी भाष्यकारों ने व्याख्यान किया है। निरुक्त ११।३४ में यास्क ने भी आख्यानपक्ष में ऐसा ही व्याख्यान दर्शाया है। [🔥यमी यमं चकमे। तां प्रत्याचचक्ष इत्याख्यानम्।]        प्रकरणश एव तु मन्त्रा निर्वक्तव्याः नियम के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस तथाकथित यमयमी संवादसूक्त का विषय अपनी चतुर्वेद विषयसूची के अन्तर्गत ऋग्वेदविषयसूची में जलादिपदार्थ विद्या विषय का निरूपण किया है।[द्र०-दयानन्दीय लघुग्रन्थसंग्रह, पृष्ठ १३२] इस तथाकथित संवाद सूक्त से पूर्व (ऋ० १०।९) का सूक्त का देवता आपः है । अतः इस सूक्त में पठित यमयमी … Continue reading यम-यमी सूक्त । पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

राजा  का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः शुन:शेपः । देवता यजमानः । छन्दः विराड् धृतिः । अभिभूरस्य॒तास्ते पञ्च दिशः कल्पन्तां ब्रह्नस्त्वं ब्रह्मासि सवितासि सत्यप्रसव वरुणोऽसि सत्यौजाऽइन्द्रोऽसि विशौजा रुद्रोऽसि सुशेवः । बहुंकार श्रेयस्कर भूर्यास्करेन्द्रस्य वज्रोऽसि तेने मे रध्य ।। -यजु० १० । २८ | हे राजन् ! तू ( अभिभूः असि ) दुष्टों का तिरस्कर्ता है। (एताः ते ) ये तेरी (पञ्च दिशः ) पाँच दिशाएँ-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊध्र्वा ( कल्पन्ताम् ) प्रजा को सुख देने में समर्थ होवें । ( ब्रह्मन्) हे महिमामय ! ( त्वं ब्रह्म असि ) तू ब्रह्म है, चतुर्वेदवित् है, (सविता असि ) सविता है, प्रेरक है, ( सत्यप्रसवः ) सत्य को जन्म देनेवाला (वरुणःअसि ) पाप-निवारक, वरणीय है, ( सत्यौजाः इन्द्रः असि ) सच्चे … Continue reading राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार

योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः शंकुमती गायत्री । युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे। स्वग्र्याय शक्त्या। -यजु० ११।२ ( युक्तेन मनसा ) योगयुक्त मन से ( वयम् ) हम योगी लोग ( देवस्य ) देदीप्यमान तथा प्रकाशक ( सवितुः३) प्रेरक सविता प्रभु की ( सवे ) प्रेरणा में रहते हुए (शक्त्या ) शक्ति से ( स्वग्र्याय ) ब्रह्मानन्द के अधिकारी हों ।। यदि हम योगमार्ग का अवलम्बन करके यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान द्वारा सविकल्प तथा निर्विकल्पक समाधि को प्राप्त कर लेते हैं, तब तो हम योग के राही हैं ही। परन्तु यदि इस मार्ग को सूक्ष्मता से अपनाये बिना भी किसी विषय में मन को चिरकाल तक केन्द्रित … Continue reading योगी बनकर आनन्दमग्न हों -रामनाथ विद्यालंकार

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः। युजे वां ब्रह्म पूर्घ्यं नमोभिर्वि श्लोकऽएतु पथ्येव सूरेः। शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ।।  -यजु० ११ । ५ हे यजमान पति-पत्नी ! ( वाम् ) तुम दोनों के ( पूर्त्य ब्रह्म ) पूर्व योगियों से प्रत्यक्षीकृत ज्ञान को ( नमोभिः ) नमन के भावों से ( युजे ) जोड़ता हूँ। तुम्हें ( श्लोकः ) यश (विएतु) विशेषरूप से प्राप्त हो, ( सूरेः पथ्या इव ) जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है। इस धर्मोपदेश को ( शृण्वन्तु ) सुनें ( विश्वे) सब (अमृतस्य पुत्राः) अविनाशी सविता जगदीश्वर के पुत्र, ( ये ) जो ( दिव्यानि धामानि … Continue reading विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार

योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

योगमार्ग के विघ्नों  को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः मयोभूः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी अनुष्टुप् । आगत्य वन्यध्वनिश्सर्वा मृध विधूनुते । अग्निसुधस्थे महुति चक्षुषा निर्चिकीषते ॥ -यजु० ११ । १८ (वाजी ) बलवान् जीवात्मा (अध्वानम् आगत्य ) योगमार्ग में आकर ( सर्वाः मृधः ) सब हिंसक विप्नों को ( विधूनुते ) प्रकम्पित कर देता है। फिर वह ( महति सधस्थे ) महान् हृदय-सदन में (अग्निम् ) प्रकाशमय प्रभु को ( चक्षुषा )अन्त:चक्षु से (निचिकीषते ) देख लेता है। आओ, तुम्हें वाजी की बात सुनायें । किन्तु ‘वाजी’ का तात्पर्य घोड़ा मत समझ लेना। ‘वाज’ का अर्थ होता है बल, अतः ‘बलवान्’ को वाजी कहते हैं । घोड़ा भी बलवान् होने के कारण ही वाजी कहलाता है। … Continue reading योगमार्ग के विघ्नों को प्रकम्पित कर आगे बढ़े -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः सिन्धुद्वीपः । देवता वायुः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् । सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानाय हृदयं यद्विकस्तम्। यो देवानां चरसि प्राणथेन कस्मै देव वर्षडस्तु तुभ्यम् ॥ -यजु० ११ । ३९ | हे नारी! ( उत्तानायाः) चित्त लेटनेवाली ( ते ) तेरा ( हृदयं ) हृदयं ( यद् विकस्तम् ) जो बढ़ गया है, या किसी अन्य विकार को प्राप्त हो गया है, उसे ( मातरिश्वा वायुः ) अन्तरिक्ष में चलनेवाला वायु ( सं दधातु ) स्वस्थ कर देवे । ( यः ) जो हे मातरिश्वा वायु ! तू ( देवानां ) विद्वानों के ( प्राणथेन) प्राणरूप में ( चरसि ) चलता है, ( कस्मै ) उस सुखदायक ( तुभ्यं ) तेरे लिए ( वषट् अस्तु) … Continue reading हदय को स्वास्थ्य -रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् । अग्नेऽअङ्गिरः शतं ते सन्त्ववृतेः सहस्त्रे तऽउपवृतः अध पोषस्य पोषेण पुनर्नो नष्टमाकृधि पुनर्नो रयिमाकृधि॥ -यजु० १२।८ हे ( अङ्गिरः अग्ने ) विद्यारसयुक्त अध्यापक! ( शतं ) एक-सौ ( ते सन्तु ) तेरी हों (आवृतः ) आवृत्तियाँ। ( सहस्त्रं ) एक सहस्र हों ( ते ) तेरी ( उपावृतः ) उपावृत्तियाँ। यदि पाठ विस्मृत ही हो गया है, आवृत्ति से काम नहीं चलता, तब (नः ) हमारे ( नष्टं ) नष्ट या विस्मृत पाठ को ( पोषस्य पोषेण ) परिपुष्ट अध्यापक के पोषण से (पुनःआकृधि ) पुनः मन में बैठा दो। ( पुनः ) फिर ( नः ) हमारी ( रयिं ) विद्या-लक्ष्मी को ( आकृधि) … Continue reading पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री । अग्ने यत्ते शुक्रं यच्चुन्द्रं यत्पूतं यच्च॑ य॒ज्ञियम्। तद्देवेभ्यों भरामसि -यजु० १२ । १०४ हे (अग्ने ) अग्रनायक परमेश्वर ! ( यत् ते शुक्रं ) जो तेरा दीप्तिमान् रूप, ( यत् चन्द्रं ) जो आह्लादक रूप, ( यत् पूतं ) जो पवित्र रूप ( यत् च यज्ञियं ) और जो यज्ञसंपादनयोग्य रूप है, ( तत् ) उसे हम ( देवेभ्यः ) विद्वान् प्रजाजनों के लिए (भरामसि )* लाते हैं । हे जगदीश्वर ! आप ‘अग्नि’ हो, अग्रनायक हो, जो आपको अपना अग्रणी बनाता है, उसे सत्पथ पर चला कर उसके नियत उद्देश्य तक पहुँचा देनेवाले हो। आप अग्नि के तुल्य तेजस्वी-यशस्वी भी हो। … Continue reading अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार   ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता सर्पा: । छन्दः भुरिग् आर्षी उष्णिक्। नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।। येऽअन्तरिक्ष य दिवि तेभ्य: सर्पेभ्यो नमः॥ -यजु० १३।६ ( नमः अस्तु ) स्तुति हो ( सर्पेभ्यः ) उन सप के लिए ( ये के च ) जो कोई (पृथिवीम्अनु ) पृथिवी पर स्थित हैं। ( ये अन्तरिक्षे ) जो अन्तरिक्ष में हैं, ( ये दिवि ) जो द्युलोक में हैं ( तेभ्यः सर्पेभ्यः नमः ) उन सर्यों के लिए भी स्तुति हो। | शतपथब्राह्मण में लिखा है कि ये लोक ही सर्प हैं, क्योंकि जब ये सर्पते हैं, तब जो कुछ इनके अन्दर होता है, उसके साथ ही सर्पते हैं। इस कारण भी लोकों को सर्प कहा जाता है कि … Continue reading सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार  ऋषिः त्रिशिराः । देवता भूमिः । छन्दः पञ्चपादा आर्षी प्रस्तारपङ्कि: । भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधया विश्वस्य भुवनस्य धर्मी। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिंसीः । -यजु० १३ । १८ हे पृथिवी ! तू ( भू: असि) भू है, ( भूमिः असि ) भूमि है, ( अदिति:४ असि ) अदिति है, (विश्वधायाः५) विश्वधाया है, विश्व को दूध पिलानेवाली है, (विश्वस्य भुवनस्य धर्ती) सब प्राणियों को धारण करनेवाली है। हे पृथिवी माता के पुत्र मनुष्य! तू (पृथिवींयच्छ) पृथिवी को नियन्त्रित कर, इसकी क्षति को रोक, ( पृथिवीं दूंह) पृथिवी को दृढ़ कर, ( पृथिवीं मा हिंसीः ) पृथिवी की हिंसा मत कर। | वेद के अनुसार पृथिवी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। हे पृथिवी … Continue reading पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार

आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम)