गौ, ग्मा, ज्मा, क्ष्मा, क्षा, क्षमा, क्षोणि, क्षिति, अवनि, उर्वी, मही, रिपः, अदिति, इला, निर्ऋति, भू, भूमिः, गातुः, गोत्रा । इत्येक- विंशतिः पृथिवीनामधेयानि । – निघण्टु । १ । १
ये २१ नाम पृथिवी के हैं। इनके प्रयोग वेदों में आया करते हैं । इनमें से एक भी शब्द नहीं जो पृथिवी के अचलत्व का सूचक हो जब पृथिवी को अचल मानने लगे तो संस्कृत कोश में पृथिवी के नामों के साथ अचला, स्थिरा आदि शब्द भी आने लगे “भूर्भूमिरचलाऽनन्ता रसा विश्वम्भरा स्थिरा” अमरकोश । इससे सिद्ध होता है कि वैदिक समय में पृथिवी स्थिरा नहीं मानी जाती थी । वाचक शब्दों से भी विचारों का बहुत पता लगा है। जिस समय जैसा विचार उत्पन्न होता है शब्द भी तदनुकूल बनाए जाते हैं। जैसे आर्ष ग्रन्थों में ब्राह्मण के लिए मुखज, क्षत्रिय के लिए बाहुज, वैश्य के लिए ऊरुज और शूद्र के लिए पज्ज, चरणज आदि शब्द का प्रयोग एक भी पाया नहीं जाता, किन्तु अनार्ष ग्रन्थों में इनके शतशः प्रयोग हैं। इस समय में मुख आदि से ब्राह्मण आदि उत्पन्न हुए, ऐसा विचार प्रचलित हो चुका था, अतः शब्द भी वैसे आते हैं । इसी प्रकार यदि आर्ष समय में पृथिवी को स्थिरा मानते तो अवश्य वैसे शब्द भी आते । प्रत्युत इसके विरुद्ध गोशब्द आया है जिससे पृथिवी की गति मानी जाती थी । यह सिद्ध होता है । ” गच्छतीतिगौः ” चलनेहारे का नाम ही गौ है । यद्यपि यह अनेकार्थ है तथापि प्रायः चलायमान पदार्थ का ही नाम “गौ” रखा गया है । अब पृथिवी का गौ नाम क्यों रखा गया, जब यह विचार उपस्थित होता है तो यही कहना पड़ता है कि ऋषिगण पृथिवी को घूमती हुई मानते थे । तत्पश्चात् जब इनमें से यह विज्ञान लुप्त हो गया तब गो शब्द के अनेक धातु और व्युत्पत्तियाँ बतलाने लगे ।” गच्छन्ति प्राणिनोऽस्यामिति गौ: यां गायन्ति जना सा गौः ” वैदिक शब्दों का कोई दोष नहीं । अपने यहाँ जिज्ञासा के भाव के लोप होने से ऐसी दुर्मति फैली ।