मेरी समपत्ति
– गजानन्द आर्य
पिछले जन्म दिन के अवसर पर आर्यजी ने अपने परिवारजनों के मध्य स्वयं के जीवन से सबन्धित उस महत्त्वपूर्ण भाग पर प्रकाश डाला, जिससे आर्य जी के जीवन की पवित्रता, सहजता और सात्विकता पर प्रकाश पड़ता है। उनका यह वक्तव्य लिखित रूप में है, जिसका शीर्षक है ‘मेरी समपत्ति’ । इसे पढ़ कर आप आर्य जी के जीवन से अवश्य प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे ।– सपादक
मैं जब कलकत्ता में पढ़ता था, तब जीवन में एक ऐसी स्थिति आई, जब कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर अपनी पारिवारिक कपड़े की दुकान पर बैठकर हिसाब-किताब की जिमेवारी मुझे अपने ऊपर लेनी पड़ी। दुकान का सारा क्रय-विक्रय, लेन-देन, बिल, रसीद आदि का लिखना सब कुछ मुझे करना होता था। हमारी दुकान पिताजी और उनके दो अन्य चचेरे भाइयों का साझा व्यापार था, इस कारण हिसाब-किताब की पारदर्शिता बहुत आवश्यक थी । मैंने इस दायित्व को पूरी जिमेवारी व ईमानदारी से निभाया। मैंने इस बात को गाँठ में बाँध लिया था कि जो भी कमाई करनी है, वह इस साझे व्यापार से करनी है। मुझे अपनी व्यक्तिगत कोई पूँजी, जिसे हमारे यहाँ गाँठी कहा जाता था, नहीं रखनी है। लाखों रुपयों का लेने-देन मेरे हाथों से होता था, लेकिन मैंने कभी अपने लिए उसमें से एक रुपया भी नहीं लिया ।
जब मेरा विवाह हो गया और कुछ महीनों के बाद तारामणी कलकत्ता आई, तो मेरे दुकान के सहयोगियों को लगा- अब घर की जिमेवारी बढ़ गयी है, तो फिर वो ईमानदारी कहाँ रहेगी? लोगों की मनःस्थिति समझकर मैंने घर खर्च की एक डायरी डाल ली, जिसमें मैं अपना दैनिक खर्च लिखने लगा। घरगृहस्थी के छोटे से छोटे खर्च का विवरण उसमें रहता। घर का कोइ भी बुजुर्ग डायरी को देख सकता था। मेरी उन डायरियों में से आज भी कुछ मेरे पास पड़ी हैं। मुझे इन सब बातों का यह लाभ हुआ कि मेरा पूरा जीवन उसी स्तर की अर्थ शुचिता के साथ-साथ बीता।
मैंने जीवन में अपने लिए कभी कुछ नहीं रखा। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ की आज 85 वर्ष की आयु में मेरा कोई बैंक बैलेंस नहीं है, नही मेरी कोई जमीन जायदाद है। कोई कपनियों के शेयर नहीं है। नकद के रूप में कुछ नहीं है। केनारा बैंक में एक लॉकर है, जिसमें तारामणी के कुछ जेवर हैं और एक दस हजार रुपयों की फिक्स्ड डिपाजिट की रसीद है। इस लॉकर में मेरा कुछ नहीं है।
जीवन भर पढ़ने और लिखने की रुचि रही, इस कारण मेरे पास सैंकड़ों ग्रंथों का संग्रह बन गया। धीरे-धीरे आँखों की रौशनी क्षीण हो गयी, पढ़ना संभव नहीं रहा। इस अवस्था में मैंने अपनी सबसे बड़ी निधि अपनी किताबों का वितरण शुरू कर दिया। मेरे पास आने वाले जिस सदस्य को जो किताब अच्छी लगी, वह उसे दे दी। अब भी थोड़ी बची है। किसी को चाहिए तो लेले ।
कुछ नहीं होने के उपरान्त भी मैं बहुत भाग्यवान हूँ और अपने-आपको दुनिया का सबसे बड़ा धनवान मानता हॅूँ। मेरे पूरे परिवार से मुझे जो सेवा और सुरक्षा मिली है, उसका कोई मूल्यांकन संभव नहीं है।
लिखने के शौक को सार्थक किया भाई सत्यानन्दने। मेरे लेखों को पत्र-पत्रिकाओं में भेजना, मेरी लिखी किताबों को छपवाना, ये सारा दायित्व भाई ने एक कर्त्तव्य की तरह निभाया। सत्यानन्द के इस निःस्वार्थ सहयोग की कीमत आँकना मेरे लिए संभव नहीं है। समस्त आर्यजगत् में मेरी छवि एक चिंतक और लेखक के रूप में स्थापित हुई सत्यानन्द के कारण। सत्यानन्द ने मुझे अलखनंदा और ऐसी अन्य ऐतिहासिक स्थलों की यात्रायें करवाईं।
यूँ तो मेरी चारों बहनों ने मुझे हमेशा बहुत आदर सत्कार और स्नेह दिया है, लेकिन सुशीला भारत के पूर्वी हिस्से में होने के कारण मुझसे निरंतर मिलती रही है। उसका आना हमेशा सुखद होता है, हम सब मिलकर सत्संग का आनंद लेते हैं। सभी मिलकर भजन गाते हैं। हमारी बीमारी आदि की परिस्थिति में वह हमेशा हमारे पास आ जाती है। ऐसी बहनें ही तो जीवन की असली निधि हैं। जीवन की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समपत्ति मिली मुझे 1951 में, पत्नी के रूप में देवी तारामणि। मेरे जीवन के हर संघर्ष में उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। तारामणी के कारण मेरी परिवार में और समाज में-दोनों जगह प्रतिष्ठा बढ़ी। वानप्रस्थ जीवन में तो मैं इन्हें माँ जी मानने लग गया हूँ। मेरी अस्वस्थता के सामने ये अपनी सारी अस्वस्थता भूल जाती हैं। जीवन में जो काम मेरे थे, जैसे दैनिक हवन, विद्वानों का आतिथ्य और सन्मान, सब कुछ इन्होंने सँभाल रखा है।
किसी भी व्यक्ति की समपत्ति उसकी योग्य संतति होती है। मुझे भी अपने बच्चों पर गर्व है। मेरी लबी और जटिल बीमारी के समय मुंबई में सविता हर समय मेरे पास बैठी रहती। उसका घर महेंद्र के घर से काफी दूर स्थित है, लेकिन वह कब आती और कब जाती, हमें कुछ पता नहीं लगता। कभी पुस्तकें पढ़कर सुनाती, कभी भजन गाती और हमारी बातें सुनती। महीनों तक ये सिलसिला चला। आजतक जीवन की कोई कठिनाई हो, सविता हमेशा हमें हमारे पास मिलती है। अब जब टेलीविजन पर खबरें देख और सुन नहीं पाता, तब सविता की बेटी शीतल ने एक छोटा-सा रेडियो मुझे भेज दिया है, जो मुझे देश में होनेवाली सभी घटनाओं से जोड़कर रखता है।
बेटे महेन्द्र के बारे में क्या कहूँ? मेरे पिता जी हमेशा सब से मेरे बारे में कहते थे- सामाजिक कामों में मेरा बेटा गजानंद मुझसे आगे निकल गया है। आज मैं वही बात गर्व से अपने बेटे महेन्द्र के विषय में कह सकता हूँ। महेन्द्र समाज सेवा हीन हीं, बल्कि अपने आर्य समाजी चिंतन में मुझसे आगे निकल गया है। उसके कविता के रूप में अनुवादित मन्त्र बहुत प्रचलित हुए हैं, हम उसकी बहुत सारी कविताओं को रोज गाते हैं। मेरी एक पुस्तक ‘आर्य समाज की मान्यताएँ’’ का उसने बहुत सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद और प्रकाशन किया है। मुंबई में लायंस क्लब और मिलेनियम के संस्थापक और संचालक रूप में उसने अपनी नेतृत्व कला को प्रखर किया है। छोटे बेटे नरेन्द्र और बहू रंजना ने भी आर्य समाज बैंगलोर में भाग लेकर हमारी पारिवारिक परंपरा को जारी रखा है।
जीवन के पिछले बीस वर्ष बीमारी के साथ संघर्ष में ही बीते हैं। निरंन्तर इलाज पर खर्च होता रहा है, लेकिन भाइयों और बेटों ने मुझे इस निरंतर चल रहे व्यय का आभास भी नहीं होने दिया। सभी जानते हैं कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, शायद इसकारण उनकी सेवा अपेक्षा से भी बहुत अधिक मिलती रही। अगर में अपनी पूँजी जोड़कर बैठा होता तो शायद उन्हें लगता कि मुझे क्या आवश्यकता होगी?
यूँ तो मुझे मेरे सभी पौत्र, पौत्रियाँ, दुहित्र, दुहित्रियाँ प्रिय हैं, लेकिन मेरे इस बुढ़ापे में मेरी यात्राओं का सहारा बना वरुण। जब मैं बहुत अस्वस्थ हो गया, ऐसा लगने लगा कि उस वर्ष अजमेर यात्रा संभव नहीं हो पाएगी, तब वरुण ने यह दायित्व सँभाला। वरुण ट्रैवल के बिजनेस में है। उसने मेरी यात्राओं की हवाई जहाज की टिकटें बनवायीं न जाने कितनी बार। न केवल टिकटें बनवाईं, बल्कि मेरी, तारामणी और हमारे साथ हमारे सेवक मोहन की यात्राओं में हर समय हमारे साथ गया। जयपुर अजमेर जाने की व्यवस्था वही करता। मैं कई बार उससे कहता- वरुण मेरे जैसे ग्राहक से तुमहारा नुकसान ही होता है। वह हँसकर उत्तर देता है- दादाजी आपको पता नहीं, कितना लाभ होता है? वरुण का ये योगदान मेरी अमूल्य निधि है।
भले ही व्यक्तिगत रूप से सभी सदस्यों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन परिवार के सभी सदस्य मुझे इतना प्रेम और आदर देते हैं, ये सभी लोग मेरी निधि हैं। आर्य समाज और परोपकारिणी सभा के कारण कितने ही मित्र और शुभचिंतक जीवन में मिले, ये सब भी मेरी समपत्ति का हिस्सा हैं। इस तरह की निधि का स्वामी होने के नाते क्या मैं सब से धनवान नहीं हूँ?
– कोलकाता