तपत्यादित्यवच्चैष चक्षूंषि च मनांसि च । न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्

जो सूर्यवत् प्राणी सबके बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपाने हारा है जिसको पृथिवी में कड़ी दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ नहीं होता ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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