परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ । धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकसंक्रुष्टं एव च ।

यदि बहुत – सा धन, राज्य और अपनी कामना अधर्म से सिद्ध होती हो तो भी अधर्म सर्वथा छोड़ देवें और वेदविरूद्ध धर्माभास जिसके करने से उत्तरकाल में दुःख और संसार की उन्नति का नाश हो वैसा नाममात्र धर्म और कर्म कभी न किया करें ।

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

‘‘जो धर्म से वर्जित धनादिपदार्थ और काम हों उनको सर्वथा शीघ्र छोड़ देवे और जो धर्माभास अर्थात् उत्तरकाल में दुःखदायक कर्म हैं और जो लोगों को निन्दित कर्म में प्रवृत्त करने वाले कर्म हैं उनसे भी दूर रहें ।’’

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

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