सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत्सदा । शिष्यांश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्बाहूदरसंयतः ।

इसलिए मनुष्यों को योग्य है कि सत्यधर्म और आर्य अर्थात् उत्तम पुरूषों के आचरणों और भीतर – बाहर की पवित्रता में सदा रमण करें अपनी वाणी, बाहू, उदर को नियम और सत्यधर्म के साथ वर्तमान रखके शिष्यों को सदा शिक्षा किया करें ।

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

‘‘जो वेदोक्त सत्यधर्म अर्थात् पक्षपातरहित होकर सत्य के ग्रहण और असत्य के परित्याग, न्यायरूप, वेदोक्त धर्मादि आर्य अर्थात् धर्म में चलते हुए के समान धर्म से शिष्यों को शिक्षा किया करें ।’’

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

‘‘सत्य, धर्म, आर्य अर्थात् आप्त पुरूषों के व्यवहार और शौच – पवित्रता ही में सदा गृहस्थ लोग प्रवृत्त रहें और सत्यवाणी भोजनादि के लोभ रहित हस्तपादादि की कुचेष्टा छोड़कर धर्म से शिष्यों और सन्तानों को उत्तम शिक्षा सदा किया करें ।’’

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *