अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नान्जयति समूलस्तु विनश्यति । ।

जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसा तालाब के बंध को तोड़ जल चारों ओर फैला जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासघात आदि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर, प्रथम बढ़ता है पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान, पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है, जैसे जड़ काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट हो जाता है ।

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

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