यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् । गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही ।

जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी, इन तीन आश्रमियों को अन्न – वस्त्रादि दान से नित्यप्रति गृहस्थ धारण – पोषण करता है इस लिए व्यवहार में गृहाश्रम सबसे बड़ा है ।

(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)

‘‘जिससे गृहस्थ ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है, इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है अर्थात् सब व्यवहारों में धुरंधर कहाता है ।’’

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

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