पंच्चमहायज्ञों के नाम एवं नामान्तर
पढ़ना – पढ़ाना, संध्योपासन करना ‘ब्रह्मयज्ञ’ कहलाता है और माता – पिता आदि की सेवा – शुश्रूषा तथा भोजन आदि से तृप्ति करना ‘पितृयज्ञ’ है प्रातः सांय हवन करना ‘देवयज्ञ’ है कीटों, पक्षियों, कुत्तों और कुष्ठी व्यक्तियों तथा भूत्यों आदि आश्रितों को देने के लिए भोजन का भाग बचाकर देना ‘भूतयज्ञ’ या ‘बलिवैश्वदेवयज्ञ’ कहलाता है अतिथियों को भोजन देना और सेवा द्वारा सत्कार करना ‘नृयज्ञ’ अथवा ‘अतिथियज्ञ’ कहाता है ।
सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास में यह श्लोक आया है । वहां श्लोकार्थ सरल होने से नहीं दिया है ।