ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा । पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद्व्रतो रतिकाम्यया । ।

ऋतुकाल – सम्बन्धी विधान –

. सदा पुरूष ऋतुकाल में स्त्री का समागम करे और अपनी स्त्री के बिना दूसरी स्त्री का सर्वदा त्याग रक्खे, वैसे स्त्री भी अपने विवाहित पुरूष को छोड़कर अन्य पुरूषों से सदैव पृथक् रहे जो स्त्रीव्रत अर्थात् अपनी विवाहित स्त्री ही से प्रसन्न रहता है जैसे कि पतिव्रता स्त्री अपने विवाहित पुरूष को छोड़ दूसरे पुरूष का संग कभी नहीं करती वह पुरूष जब ऋतुदान देना हो तब पर्व अर्थात् जो उन ऋतुदान के सोलह दिनों में पौर्णमासी, अमावस्या, चतुर्दशी वा अष्टमी आवे उसको छोड़ देवे । इनमें स्त्री – पुरूष रतिक्रिया कभी न करें ।

(सं० वि० गर्भाधान सं०)

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