वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च । न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छति कर्हि चित् ।

विषयी व्यक्ति की असिद्धि –

विप्रदुष्टभावस्य जो अजितेन्द्रिय दुष्टाचारी पुरूष है, उस पुरूष के वेदाः त्यागाः यज्ञाः नियमाः तपांसि वेद पढ़ना, त्याग करना, (संन्यास) लेना, यज्ञ अग्निहोत्रादि करना, नियम ब्रह्मचर्याश्रम आदि करना, तप निन्दास्तुति, और हानि – लाभ आदि द्वन्द्व का सहन करना आदि कर्म कर्हिचित् कदापि सिद्धि न गच्छन्ति सिद्ध नहीं हो सकते ।

(सं० वि० वेदा० सं०)

‘‘जो दुष्टाचारी अजितेन्द्रिय पुरूष है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते ।’’

(स० प्र० तृतीय समु०)

‘‘जो अजितेन्द्रिय पुरूष है उसको विप्रदुष्ट कहते हैं । उसके करने से न वेदज्ञान, न त्याग, न यज्ञ, न नियम और न धर्माचरणसिद्धि को प्राप्त होते हैं । किन्तु ये सब जितेन्द्रिय धार्मिक जन को सिद्ध होते हैं ।’’

(स० प्र० दशम समु०)

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