ब्रह्मनः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा । स्रवत्यनोंकृतं पूर्वं परस्ताच्च विशीर्यति

सर्वदा ब्रह्मणः आदौ च अन्ते प्रणवं कुर्यात् शिष्य सदैव वेद पढ़ने के आरम्भ और अन्त में ‘ओ३म्’ का उच्चारण करे (पूर्वम् अनोंकृतम्) आरंभ में ओंकार का उच्चारण न करने से स्त्रवति पढ़ा हुआ बिखर जाता है भली भाँति ग्रहण नहीं हो पाता च और पुरस्तात् विशीर्यति बाद में ‘ओ३म्’ का उच्चारण न करने से पढ़ा हुआ स्थिर नहीं रहता ।

भावार्थ – ‘ओ३म्’ का उच्चारण करने से यहां मनु का अभिप्राय ओंकारोच्चारण पूर्वक मन को एकाग्र या समाहित करने से है । अन्यत्र भी मनु ने संध्योपासन और अध्ययन से पूर्व समाहित या एकाग्रचित्त होने के लिए कहा है (२।७९) । यह बिल्कुल सही मनोवैज्ञानिक बात है कि यदि छात्र मन को एकाग्र करके अध्ययन नहीं करता तो उसे पूर्णज्ञान ग्रहण नहीं होता, कुछ बिखरता रहता है और कुछ – कुछ ही ग्रहण होता है । इसी प्रकार अध्ययन के पश्चात् भी एकाग्रता न रखने से पढ़ा हुआ स्थिर नहीं हो पाता । मन के एकदम अन्यत्र जाने से संचित ज्ञान में गौणता और भुलाव – सा आ जाता है, जब कि अध्ययन की समाप्ति पर अधीत विषय के प्रति एकाग्रता बनाये रखने से वह स्थिर हो जाता है । २।७४ में इसी भाव को दूसरे ढंग से स्पष्ट किया है कि यदि एक भी इन्द्रिय एकाग्रता को छोड़कर अपने विषय में लग जाती है तो उसके साथ ही व्यक्ति की बुद्धि भी उतनी कम होने लगती है ।

‘ओ३म्’ एवं गायत्री की उत्पत्ति एवं फल –

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