समाहृत्य तु तद्भैक्षं यावदन्नं अमायया । निवेद्य गुरवेऽश्नीयादाचम्य प्राङ्मुखः शुचिः

तत् भैक्षं तु समाहृत्य उस भिक्षा को आवश्यकतानुसार लाकर यावत् + अन्नम् जितनी भी वह भोज्य सामग्री हो उसे अमायया निष्कपट भाव से गुरबे निवेद्य गुरू को निवेदित करके शुचिः स्वच्छ होकर प्राड्मुखः पूर्व की ओर मुख करके आचम्य आचमन करके अश्नीयात् खाये ।

‘‘जितनी भिक्षा मिले वह आचार्य के आगे धर देनी, तत्पश्चात् आचार्य उसमें से कुछ थोड़ा सा अन्न लेके वह सब भिक्षा बालक को दे देवे और वह बालक उस भिक्षा को अपने भोजन के लिए रख छोड़े ।’’

(सं० वि० वेदा० सं०)

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