कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते । नैवं कुर्यां पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः ।

मनुष्य पाप=अपराध करके और उसके लिए पश्चाताप करके उस पाप से छूट जाता है अर्थात् उस पाप को करने से पुनः प्रवृत्ति नहीं करता, और फिर कभी इस प्रकार का कोई पाप नही करूंगा इस प्रकार निश्चय करने के बाद पापों की ओर निवृत्ति होने से वह व्यक्ति पवित्राचरण वाला बन जाता है ।

अनुशीलन- इस श्लोक को पूना प्रवचन में (पृ. 63-64) ऋषि-दयानन्द ने उद्धत किया है-“अब कोई ऐसी शंका निकाले कि पूर्वकृत पापों का दण्ड जीव को बिना भोगे छुटकारा नहीं मिल सकता यह हमारा मत है, तो फिर पश्चाताप का कुछ भी उपयोग नही है क्या ? इसका उत्तर यह है कि पश्चाताप से पापक्षय नही होता, परन्तु आगे पाप करना बन्द हो जाता है ।”

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