यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति । तथा तथा शरीरं तत्तेनाधर्मेण मुच्यते । ।

और, उसका मन=आत्मा जैसे-जैसे किये हुए पाप-अपराध को धिक्कारता है (कि मैंने यह बुरा कार्य किया है…….आदि) वैसे-वैसे उसका शरीर उस अधर्म-अपराध से मुक्त=निवृत्त होता जाता है अर्थात् बुरे कर्म को बुरा मानकर उसके प्रति ग्लानि होने से शरीर और मन बुरे कार्य करने से निवृत्त होते जाते है ।

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