सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक् । वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे ।

. (सः) उस परमात्मा ने (सर्वेषां तु नामानि) सब पदार्थों के नाम (यथा – गो – जाति का ‘गौ’, अश्वजाति का ‘अश्व’ आदि) (च) और (पृथक् – पृथक् कर्माणि) भिन्न – भिन्न कर्म (यथा – ब्राह्मण के वेदाध्यापन, याजन; क्षत्रिय का रक्षा करना; वैश्य का कृषि, गोरक्षा, व्यापार आदि (१।८७-९१) अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के हिंस्त्र – अहिंस्त्र आदि कर्म (१।२६-३०)) (च) तथा (पृथक् संस्थाः) पृथक् – पृथक् विभाग (जैसे – प्राणियों में मनुष्य, पशु, पक्षी आदि (१।४२-४९)) या व्यवस्थाएं (यथा – चारवर्णों की व्यवस्था (१।३१, १।४७-९१)) (आदौ) सृष्टि के प्रारम्भ में (वेदशब्देभ्यः एव) वेदों के शब्दों से ही (निर्ममे) बनायीं ।

‘‘इस वचन के अनुकूल आर्य लोगों ने वेदों का अनुकरण करके जो व्यवस्था की, वह सर्वत्र प्रचलित है । उदाहरणार्थ – सब जगत् में सात ही बार हैं, बारह ही महीने हैं और बारह ही राशियां हैं, इस व्यवस्था को देखो (पू० प्र० ८९) (स्वामी जी ने उक्त श्लोक के बाद ये वाक्य कहे हैं) ।’’

वेद में भी कहा है –

शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। (यजु० ४०।८)

‘‘अर्थात् आदि सनातन जीवरूप प्रजा के लिए वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है ।’’ (स० प्र० अष्टम स०)

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