वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनां आत्मनस्तुष्टिरेव च ।

अखिलः वेदः सम्पूर्ण वेद च और तद्विदां स्मृतिशीले उन वेद – वेत्ताओं द्वारा प्रणीत स्मृतियां तथा उनका श्रेष्ठ स्वभाव च और साधनां आचारः सत्पुरूषों का आचरण च तथा आत्मनः तुष्टिः एव अपनी आत्मा की प्रसन्नता का होना अर्थात् जिस कर्म के करने में भय, शंका, लज्जा न होकर आत्मा को प्रसन्नता अनुभव हो, धर्ममूलम् ये धर्म के मूल हैं ।

‘‘इसलिये सम्पूर्ण वेद, मनुस्मृति तथा ऋषिप्रणीत शास्त्र, सत्पुरूषों का आचार और जिस – जिस कर्म में अपना आत्मा प्रसन्न रहे अर्थात् भय, शंका, लज्जा जिसमें न हो उन कर्मों का सेवन करना उचित है । देखो! जब कोई मिथ्याभाषण चोरी आदि की इच्छा करता है तभी उसके आत्मा में भय, शंका, लज्जा, अवश्य उत्पन्न होती है । इसलिये वह कर्म करने योग्य नहीं है ।’’

(स० प्र० दशम समु०)

‘‘चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः । (पू० मी० १।१।२)

यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः । (वैशे० १।१।२)

(चोदना०) ईश्वर ने वेदों में मनुष्यों के लिये जिसके करने की आज्ञा  दी है वही धर्म और जिसके करने की प्रेरणा नहीं की है वह अधर्म कहाता है परन्तु वह धर्म अर्थ युक्त अर्थात् अधर्म का आचरण जो अनर्थ है उससे अलग होता है , इससे धर्म का ही जो आचरण करना है वही मनुष्यों में मनुष्यपन है । यतोऽभ्यु० जिससे आचरण करने से संसार में उत्तम सुख और निःश्रेयस अर्थात् मोक्षसुख की प्राप्ति होती है, उसी का नाम धर्म है ।’’

(ऋ० भू० सृष्टिविद्या विषय)

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