‘मनुवाद’ का शाब्दिक अर्थ है-‘महर्षि मनु की विचारधारा।’ मनुस्मृति में वर्णित मौलिक सिद्धान्तों के अनुसार मनु की विचारधारा है- ‘गुण, कर्म, योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित वर्णाश्रम-व्यवस्था। मनु की वर्णव्यवस्था ऐसी समाजव्यवस्था थी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि, गुण, कर्म एवं योग्यता के आधार पर किसी भी वर्ण का चयन करने की स्वतन्त्रता थी और वह स्वतन्त्रता जीवनभर रहती थी। उस वर्णव्यवस्था में जन्म का मह व उपेक्षित था, ऊंच-नीच, छूत-अछूत का कोई भेदभाव नहीं था, व्यक्ति-व्यक्ति में असमानता नहीं थी, पक्षपातपूर्ण और अमानवीय व्यवहार सर्वथा निन्दनीय था। एक ही श द में कहें तो ‘मनुवाद’ मानववाद का ही दूसरा नाम था।
इसके विपरीत, गुण, कर्म, योग्यता के मानदण्डों की उपेक्षा करके जन्म, असमानता, पक्षपात और अमानवीयता पर आधारित विचारधारा ‘गैर मनुवाद’ कहलायेगी।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ‘मनुवाद’ श द का प्रयोग आज जान-बूझ कर गलत अर्थ में किया जा रहा है और इसे सोची-समझी रणनीति के अन्तर्गत किया जा रहा है, ताकि एक बहुत बड़े जनसमुदाय को भारत के अतीत और अन्य समुदायों से काटकर अलग-अलग किया जा सके। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि स्वयं को कोई कितना ही विद्वान्, लेखक, समीक्षक, विचारक या इतिहासवे ाा कहे, ‘मनुवाद’ को जातिव्यवस्था के संदर्भ में प्रयुक्त करने वाला व्यक्ति मनुस्मृति का मौलिक, गम्भीर, विश्लेषणात्मक और यथार्थ अध्येता नहीं माना जा सकता। उसने जो कुछ पढ़ा है वह छिछले तौर पर, और दूसरों के दृष्टिकोण से पढ़ा है; क्योंकि, मौलिक रूप से ‘मनुस्मृति’ उस ब्रह्मापुत्र स्वायंभुव मनु की रचना है जो भारतीय इतिहास का क्षत्रियवर्णधारी आदिराजा था। ऐतिहासिक दृष्टि से उस समय जाति-व्यवस्था का उद्भव ही नहीं हुआ था। जब जाति-व्यवस्था का उद्भव ही नहीं हुआ था, तो ‘मनुवाद’ का जाति-व्यवस्थापरक अर्थ करना ऐतिहासिक अज्ञानता, मनुस्मृति-ज्ञान की शून्यता और दुराग्रह मात्र ही है? मेरी इस आपत्ति का उत्तर वे लेखक दें जो ‘मनुवाद’ का जातिव्यवस्थापरक अर्थ करते हैं। मैं उन लेखकों के समक्ष यह चुनौती उपस्थित करता हूं। क्या वे इसका प्रामाणिक ऐतिहासिक उत्तर देना स्वीकार करेंगे?
sir I am purely agree with you
gulab Singh
Secretary to Finance Officer
University of allahabad
Nagar Karyah (RSS)
Bhagirath Nagar Prayagraj