मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल बाह्य साक्ष्य के आधार पर:डॉ. सुरेन्द कुमार

(1) आधुनिक समीक्षकों द्वारा वेदों के बाद सबसे प्राचीन माने गये तैत्तिरीय संहिता और ताण्ड्य ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मनु के वचनों को औषध के समान कल्याणकारी माना है। यह कथन इस बात का संकेत है कि उस काल तक मनु की धर्मशास्त्रकार के रूप में याति और प्रामाणिकता सुस्थापित हो चुकी थी-

(क) ‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भेषजं भेषजतायै।’’

(तैत्ति0 सं0 2.2.10.2, 3.1.9.4; तां0 ब्रा0 23.16.7)

(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में मनुवंशी राजा शर्यात मानव के राज्या-भिषेक का वर्णन है (8.11)। यह सातवें मनु वैवस्वत के पुत्र इक्ष्वाकु का वंशज है। उसी ब्राह्मण में एक श्लोक आता है जो प्रायः मनु के श्लोक का रूपान्तर है या भावानुवाद है-

मनु–     कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम्।

         कर्मस्वयुद्यतःत्रेता   विचरंस्तु कृतं   युगम्॥ (9.302)

तैत्तिरीय ब्राह्मण में

         कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः।

         उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं सपद्यते चरन्॥     (7.15)

(ग) इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में मनु के श्लोक का यथावत् भाव वर्णित है-

मनु–     आ हैव   स   नखाग्रेयः परमं   तप्यते   तपः।

         यः स्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायः शक्तितोऽन्वहम्॥

(2.167)

    शतपथ में-‘‘अलंकृतः सुहितः सुहितः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव स नााग्रेयस्तप्यते। य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते।’’ (11.5.7.4) इससे सिद्ध होता है कि मनुस्मृति ब्राह्मण आदि ग्रन्थों से प्राचीन है और वह मानव सृष्टि के आदिकाल की है।

    (2) इसी मान्यता को निरुक्त ने मनु का मत उदृत करते हुए एक श्लोक से पुष्ट किया है-

    अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

    मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्॥ 3। 4॥

    अर्थात्-‘दायभाग में पुत्र और पुत्री, दोनों का समान अधिकार होता है’, यह विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदि काल में स्वायभुव मनु ने कहा है। यह मत वर्तमान मनुस्मृति के 9.130, 192 श्लोकों में निर्दिष्ट है। यहां ‘‘विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदिकाल’’ शद विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

(3) विभिन्न स्मृतियों में तो मनु का उल्लेख भी है और प्रशंसा भी। अनेक सूत्रग्रन्थों में भी मनु के नाम का तथा उसके मत का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें आश्वलायन श्रौतसूत्र [9.7.2; 10.7.1], आपस्तब श्रौतसूत्र [3.1.7; 3.10.35], वासिष्ठ धर्मसूत्र [1.17] आपस्तब धर्मसूत्र [2.14.11] बौधायन धर्मसूत्र [4.1.14, 4.2.16] गौतम धर्मसूत्र [21.7] आदि उल्लेखनीय हैं।

(4) वाल्मीकि-रामायण किष्किन्धा काण्ड 18.30, 32 में मनु के नामोल्लेख पूर्वक दो श्लोक उद्धृत पाये जाते हैं-‘श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चरित्रवत्सलौ’ [वा0रामा0किष्कि0 18.30] यहां स्पष्टतः गीतौ=‘मनु द्वारा गाये’ पद पठित हैं।

(क) वे दोनों श्लोक अग्रिम प्रसंग में है। बालि-सुग्रीव

द्वन्द्व-युद्ध में राम दूर खड़े होकर छुपकर बालि की हत्या कर देते हैं। मरणासन्न बालि राम के इस कृत्य को अधर्मानुकूल बताता है। राम उसका उत्तर देते हुए मनु के निन दो श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हुए अपने कृत्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते हैं। ये दोनों श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में किंचित् पाठभेदपूर्वक 8.316, 318 में पाये जाते हैं-

राजभिर्धृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवाः।

निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥

शासनाद्वापि मोक्षाद् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते।

राजात्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्विषम्॥

(ख) इनके अतिरिक्त वाल्मीकीय रामायण अयो0 107.12 में एक और श्लोक मिलता है, जो मनु0 9.138 में प्राप्त है। चतुर्थ पाद में पाठभेद के अतिरिक्त यह ज्यों का त्यों है। वहां यह श्लोक मनु के नाम के बिना उद्धृत है-

पुनानो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः पितृन् यः पाति सर्वतः॥

भारतीय प्राचीन मान्यता के अनुसार वाल्मीकि-रामायण राम के समकालीन है और राम का काल लाखों वर्ष पूर्व माना जाता है। पाश्चात्य एवं आधुनिक भारतीय विद्वान् रामायण का रचनाकाल ई. पू. तीसरी शतादी से छठी ईस्वी पूर्व तक मानते हैं, जो कल्पित है।

इनकेअतिरिक्त, रामायण में वर्णित राज्यव्यवस्था और चातुर्वर्ण्यव्यवस्था मनुस्मृति के अनुसार मिलती है। मनुस्मृति के समान रामायण में आठ अमात्यों की नियुक्ति का उल्लेख है। (बाल0 7.2)। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की रक्षा का दायित्व राजा का विहित है

(सुन्दर0 35. 11)।

  1. महाभारत में, कई स्थलों पर स्वायंभुव मनु को एक धर्मशास्त्रकार के रूप में उद्धृत किया है और कुछ स्थलों पर उनके नामोल्लेख के साथ उनके मत और श्लोकों को भी उद्धृत किया है। वे सभी मत और श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में पाये जाते है-

(क) दुष्यन्त-शकुन्तला प्रेम-प्रसंग में आठ-विवाहों का विधानकर्त्ता स्वायंभुव मनु को बताया है। जो मनु0 3.20-34 में वर्णित हैं-

‘‘अष्टावेव समासेन विवाहा……..मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्’’

(आदि0 73.8-9)

(ख) शान्ति. 36 अध्याय में, मनु0 1। 1-4 श्लोकों की घटना का यथावत् वर्णन करते हुए बताया है कि ऋषि लोग धर्मजिज्ञासा के लिए स्वायंभुव मनु के पास पहुंचे। वहां मनु द्वारा दिये गये उत्तर में कुछ श्लोक ऐसे प्राप्त होते हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में भी हैं, उनमें कोई-कोई तो यथावत् है, कोई किंचित् पाठान्तर से है, तो कोई यथावत् भाव वाला है।1

(ग) शान्ति0 67। 15-30 में, आदिकाल में लूटपाट, अराजकता आदि से तंग हुई प्रजा द्वारा मनु को राजा के रूप में वरण करने की घटना दी हुई है। वह मनु ब्रहमा का पुत्र है, अतः वह भी स्वायंभुव मनु की घटना है।2 मनु को राजा बनाने के बाद प्रजा द्वारा जो करनिर्धारण किया गया है, यथा-‘पशु और सुवर्ण का पचासवां भाग कर देंगे’ यह करव्यवस्था वर्तमान मनुस्मृति 7। 130 में मिलती है- ‘‘पञ्चाशद् भाग आदेयो राजा पशुहिरण्ययोः।’’

(घ) शान्ति0 335। 44, 46 में एक धर्मशास्त्रकार के रूप में स्वायभुव मनु का ही वर्णन है-‘‘तस्मात् प्रवक्ष्यते धर्मान् मनुः स्वायभुवः स्वयम्’’ (44) ‘‘स्वायभुवेषु धर्मेषु’’ (46) आदि।3

इसके अतिरिक्त महाभारत में अनेक स्थलों पर केवल मनु का नाम देकर उसके श्लोक या भाव उद्धृत किये हैं। उनमें से बहुत-से श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में यथावत् मिलते हैं और भाव तथा उनका गठन भी यथावत् है। यथा – शान्तिपर्व 56.24 (मनु0 9.321), आदिपर्व 73.9-10 (मनु0 3.21 में) आदि। वहां मनु का नाम इस प्रकार स्मृत है- ‘‘मनुना चैव राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना।’’

(शान्ति0 56.33)

  1. महात्मा बुद्ध के प्रवचनों में मनुस्मृति के श्लोकों का यथावत् अनुवाद मिलता है, जो यह सिद्ध करता है कि बुद्ध के लिए मनुस्मृति समान्य थी। बुद्ध लगभग 2550 वर्ष पूर्व जीवित थे। (द्रष्टव्य है प्रमाण गत अ0 1.3 में ‘भारत में मनुस्मृति की प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता’ शीर्षक में प्रमाण ‘च’)
  2. बौद्ध महाकवि अश्वघोष ने अपनी ‘वज्रकोपनिषद्’ रचना में अपने विचारों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को उद्धृत किया है। यह राजा कनिष्क [78 ई.] का समकालीन था।1
  3. ईस्वी पूर्व के ग्रन्थों पर दृष्टिपात करते हैं तो, यद्यपि, याज्ञवल्क्य स्मृति में विषयों का वर्गीकण नये ढंग से किया है और बहुत सारे नये विषय भी अपनाये हैं, किन्तु मनु से मिलते हुए जो भी विषय हैं उनमें ऐसा लगता है जैसे मनुस्मृति को सामने रखकर ही उनका अपने शदों में संक्षेपीकरण किया हो।2 इसका काल 102 ई. पू. माना जाता है। इस विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं कि मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति से पर्याप्त प्राचीन रचना है।
  4. इसी प्रकार आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र को [100-300 ई.पू.] पढ़ने पर प्रतीत होता है कि अपने बहुत-से नये विषयों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ प्राचीन बातों के वर्णन में मनुस्मृति को आधार बनाकर वर्णन किया है।3 बहुत-से स्थलों पर मनु के मत का नामपूर्वक उल्लेख है।4 वर्तमान मनुस्मृति में 7.105 पर पाया जाने वाला निन श्लोक कौटिल्य अर्थशास्त्रप्र 10.अ. 14 में लगभग उसी रूप में पाया जाता है-

नास्य छिद्रं परो विद्यात् विद्याच्छिद्रं परस्य तु।

गूहेत्कूर्म   इवांगानि   रक्षेद्विवरमात्मनः॥

  1. भासकृत ‘प्रतिमानाटक’ [200-300 ई.पू., कुछ के मत में 400-500 ई.पू.] में रावण के मुख से उच्चारित वाक्य से यह संकेत मिलता है कि मास से पूर्व ‘मानवधर्म शास्त्र’ एक प्रसिद्धिप्राप्त शास्त्र था। वह वाक्य है-

‘‘रावणः- काश्यपगोत्रोऽस्मि सांगोपांगवेदमधीये मानवीयं

धर्मशास्त्रं, माहेश्वरं योगशास्त्रम्……….च’’ (पृ. 79)

  1. शूद्रकरचित ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक को इतिहासकार ई. पू. तीसरी शतादी की रचना मानते हैं। इसमें मनु के किसी ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करते हुए ‘ब्राहमण अवध्य है’ मनु का यह मत मनु के नामोल्लेखपूर्वकदियाहै –

अयं हि पातकी विप्रो न वध्यो मनुरब्रवीत्।        

राष्ट्रादस्मात्तु निर्वास्यो विभवैरक्षतैः सह॥ मृच्छ. 9। 39॥

  1. विश्वरूप [790-850 ई.] ने अपने याज्ञवल्क्य स्मृति-भाष्य और यजुर्वेदभाष्य में मनुस्मृति के लगभग दो सौ श्लोक उद्धृत किये है।1
  2. इससे परवर्ती मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर [1040-1100 ई.] ने भी अपने भाष्य में मनुस्मृति के सैंकड़ों श्लोक उदृत किये हैं।2
  3. शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र भाष्य में मनुस्मृति के कई श्लोक अपने विचारों की पुष्टि के लिए ग्रहण किये और कुछ श्लोकों के साथ तो मनु के नाम का स्पष्ट उल्लेख है।3
  4. 500 ई. में [कुछ के मतानुसार 200-400 ई.] जैमिनिसूत्र भाष्य में शबरस्वामी द्वारा मनु के मतों का उल्लेख किया मिलता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *