राजर्षि मनु वेदों के बाद सर्वप्रथम धर्म प्रवक्ता, मानव मात्र के पूर्वज राजधर्म और विधि (कानून) के सर्वप्रथम प्रणेता थे। उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र संसार का सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ धर्मशास्त्र है, जिसे मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है। इस मनुस्मृति में बिना किसी पक्षपात के मानवमात्र को उन्नति के समान अवसर प्रदान करनेवाली एक उत्तम वैज्ञानिक और अद्वितीय समाज-व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है, जिसे वर्ण-व्यवस्था कहा जाता है। जोकि मनुष्य मात्र के गुण, कर्म और स्वभाव पर आधारित है। मनु की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जन्म के आधार पर किसी मनुष्य को उच्च या नीच नहीं मानते।
मनुस्मृति का वर्तमान स्वरूप
स्वायम्भुव मनु मनुस्मृति के प्रवक्ता हैं। प्रवक्ता इसलिए कि मनुस्मृति मूलतः प्रवचन है, जिसे मनु के प्रारम्भिक शिष्यों ने संकलित कर एक विधिवत् शास्त्र या ग्रन्थ का रूप दिया। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय और 2685 श्लोक हैं। मनुस्मृति सहित प्राचीन ग्रन्थों का आज जो वैज्ञानिक अध्ययन हो रहा है, उसके अनुसार मनुस्मृति में 1214 श्लोक मौलिक और 1471 श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं।
भारत और विदेशों में मनुस्मृति की प्रतिष्ठा
वेद के बाद यदि किसी ग्रन्थ की भारत और भारत से बाहर विदेशों में सर्वत्र अत्यधिक प्रतिष्ठा है, तो वह ग्रन्थ मनुस्मृति है। विस्तारभय से हम उसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। ऐसे विश्वप्रसिद्ध ’लागिवर‘ एवं समाज-व्यवस्था प्रणेता पर पता नहीं किस स्वार्थ के वशीभूत होकर आक्षेप और आरोप लगाये जा रहे हैं, जो चिन्तनीय हैं।
मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप
मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप तीन प्रकार से लगाये जा रहे हैं। (क) मनु ने जन्म पर आधारित जात-पाँत व्यवस्था का निर्माण किया। (ख) उस व्यवस्था में मनु ने शूद्रों, अर्थात् दलितों के लिए अमानवीय और पक्षपातपूर्ण विधान किये, जबकि सवर्णों, विशेष रूप से ब्राह्मणों को विशेषाधिकार दिये गये। इस प्रकार मनु शूद्र विरोधी थे। (ग) मनु नारी जाति के विरोधी थे। उन्होंने नारी को पुरुष के समान अधिकार ही नहीं दिये, अपितु नारी जाति की घोर निन्दा भी की है।
आक्षेपों पर विचार
(क) मनु ने जन्माधारित जात पाँत व्यवस्था का निर्माण नहीं किया, अपितु गुण-कर्म स्वभाव आधारित वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया जिसका मूल ऋ0 10/90/11-12, यजुः0 31/10-11 और अथर्व0 19/6/5-6 में पाया जाता है। मनु वेद को परम प्रमाण मानते हैं। इस वर्ण-व्यवस्था को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया है। ब्राह्मण-ज्ञान का आदान-प्रदान करनेवाला प्रधान व्यक्ति और उसका समुदाय। क्षत्रिय – समाज की रक्षा का भार उठानेवाला, वीरता, गुण, प्रधान व्यक्ति और उसका समुदाय। वैश्य – कृषि, उद्योग, व्यापार, अर्थ, धन, सम्पत्ति का अर्जन, वितरण करनेवाला प्रधान गुणवाला व्यक्ति और उसका समुदाय। शूद्र – जो पढ़ने लिखाने से भी पढ़-लिख नहीं सके ऐसा शारीरिक श्रम करनेवाला प्रधान व्यक्ति और उसका समुदाय मिलकर वर्ण व्यवस्था की संरचना करते हैं। (मनुस्मृति-1/31, 87-91, 10-45)। मनु ने अपनी मनुस्मृति के वर्णों के अतिरिक्त जन्माधारित जातियों, गोत्रों आदि का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। इतना ही नहीं मनु ने तो भोजनार्थ समय कुल, गोत्र पूछने और बतानेवाले को ’वमन करके खानेवाल‘ इस निंदित विशेषण से विशेषित किया है। (मनु0 3/109)।
जति-व्यवस्था वर्ण-व्यवस्था से उल्टी
जति-व्यवस्था में जन्म से ऊँचे-नीचे को महत्व दिया है, गुण-कर्म और योग्यता को नहीं। ब्राह्मणादि के घर जन्म लेनेवाला ब्राह्मणादि ही कहलाता है चाहे उसमें ब्राह्मणादि के गुण, कर्म, और योग्यता न हो तथा शूद्र के घर जन्म लेनेवाला शूद्र ही कहलाता है चाहे उसमें सम्पूर्ण गुण, कर्म, योग्यता ब्राह्मणादि के क्यों न हों।
मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे
(ख) मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे। विचार करें कि मनुस्मृति में शूद्रों की क्या स्थिति है ?
आजकल की दलित पिछड़ी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनु ने शूद्र नहीं कहा है, अपितु जो पढ़ने-पढ़ाने का पूर्ण अवसर देने के बाद भी न पढ़ सके और केवल शारीरिक श्रम से ही समाज की सेवा करे, वह शूद्र है। (मनु0 1/90)।
मनु प्रत्येक मनुष्य को समान शिक्षाध्ययन करने का समान अवसर देते हैं। जो अज्ञान, अन्याय, अभाव में से किसी एक भी विद्या को सीख लेता है, वही मनु का द्विज अर्थात् विद्या का द्वितीय जन्मवाला है। परन्तु जो अवसर मिलने के बाद भी शिक्षा ग्रहण न कर सके, अर्थात् द्विज न बन सके वह एक जाति जन्म (मनुष्य जाति का जन्म) में रहनेवाला शूद्र है। दीक्षित होकर अपने वर्णों के निर्धारित कर्मों को जो नहीं करता, वह शूद्र हो जाता है, और शूद्र कभी भी शिक्षा ग्रहण कर ब्राह्मणादि के गुण, कर्म, योग्यता प्राप्त कर लेता है, वह ब्राह्मणादि का वर्ण प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है। संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता है (स्कन्दपुराण)। इस प्रकार मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों और दलितों पर लागू नहीं होती। (10/4, 65 आदि)।
(2) शूद्र अस्पृश्य नहीं-मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट और शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, अतः मनु की दृष्टि में शूद्र अस्पृश्य नहीं है। (मनु0 9/335) शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों पर भोजन आदि कार्य करने का निर्देश दिया है। (मनु0 1/91, 9/334-335)। शूद्र, अतिथि और भृत्य (शूद्र) को पहले भोजन कराया जाए। (मनु0 3/112, 116)। क्या आज के वर्णरहित समाज में शूद्र नौकर को पहले भोजन कराया जाता है ? इस प्रकार मनु शूद्र को निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे।
(3) शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु की सम्मान व्यवस्था में सम्मान गुण, योग्यता के अनुसार होकर विद्यमान अधिक सम्मानीय होता है। पर वृद्ध शूद्र को सर्व˗प्रथम सम्मान देने का निर्देश दिया गया है। (मनु0 2/111, 112, 130, 137)।
(4) शूद्र को धर्म पालन की स्वतन्त्रता – मनु ने शूद्रों को धार्मिक कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता दी है। (मनु0 10/126) इतना ही नहीं यह भी कहा है कि शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए।
(5) दण्ड-व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-मनु ने शूद्र को सबसे कम दण्ड, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण को उत्तरोत्तर अधिक दण्ड, परन्तु राजा को सबसे अधिक दण्ड देने का विधान किया है। (मनु0 8/337-338, 338, 347)।
(6) शूद्र दास नहीं-शूद्र दास, गुलाम अर्थात् बन्धुआ मजदूर नहीं है। सेवकों/भृत्यों को पूरा वेतन देने का आदेश दिया है और उनका अनावश्यक वेतन न काटा जाए, ऐसा निर्देश है। (7/125, 126, 8/216)।
(7) शूद्र सवर्ण हैं-मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है। चारों वर्णों से भिन्न असवर्ण हैं। (मनु0 10/4, 45) पर बाद का समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया। उसी प्रकार मनु ने शिल्पी-कारीगर को वैश्य वर्ण में माना है, पर बाद में समाज इन्हें भी शूद्र कहने लगा (मनु0 3/64, 9/329, 10/99, 120)। इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएँ न्यायपूर्ण हैं। उन्होंने न शूद्र और न किसी और के साथ अन्याय और पक्षपात किया है।
(8) मनु और डॉ0 बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर-आधुनिक संविधान निर्माता और राष्ट्र निर्माता तथा भूतपूर्व महामहिम राष्ट्रपति श्री वेंकटरमण के शब्दों में ’आधुनिक मनु‘ डॉ0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति का विरोध और उसे दलितों पर अत्याचार कराने की जिम्मेवार तथा जात-पाँत व्यवस्था को जननी मानने का सवाल है। जन्मना जात-पाँत, ऊँच-नीच, छुआछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता जो उन्होंने किया। क्योंकि यह सत्य है कि उस समय तक मनुस्मृति का शोधपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन होकर उसमें समय-समय पर किये गये प्रक्षेपों पर कोई शोध कार्य नहीं हुआ था। जिससे उन्हें प्रक्षिप्त और मौलिक श्लोकों में भेद करने का कोई स्रोत नहीं मिला, फिर भी उन्होंने मनु द्वारा प्रतिपादित गुण-कर्म-योग्यता आधारित वर्ण व्यवस्था और महर्षि दयानन्द और अन्यों के द्वारा उसकी की गई व्याख्या की प्रशंसा की है।
(ग) क्या मनु नारी जाति के विरोधी थे ? मनुस्मृति के स्वयं के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मनु नारी जाति के विरोधी नहीं थे। कतिपय प्रमाण प्रस्तुत हैं-जिस परिवार में नारियों का सत्कार होता है, वहाँ देवता-दिव्य गुण, दिव्य सन्तान आदि प्राप्त होते हैं। जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ सभी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। (मनु0 3/56)। नारियाँ घर का सौभाग्य, आदरणीया, घर का प्रकाश, घर की शोभा, लक्ष्मी, संचालिका, मालकिन, स्वर्ग और संसार यात्रा का आधार हैं। (मनु0 9/11, 26, 28, 5/150) स्त्रियों के आधीन सबका सुख है। उनके शोकाकुल रहने से कुल क्षय हो जाता है। (3/55, 62)। पति से पत्नी और पत्नी से पति सन्तुष्ट होने पर ही कल्याण संभव है। (9/101-102)। सन्तान उत्पत्ति के द्वारा घर का भाग्योदय करनेवाली गृह की आभा होती है। शोभा-लक्ष्मी और नारी में कोई अन्तर नहीं है। (9/26) मनु सम्पूर्ण सृष्टि में वेद के बाद पहले संविधान निर्माता हैं। जिन्होंने पुत्र और पुत्री की समानता घोषित कर उसे वैधानिक रूप दिया। (9/130)। पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार प्रदान किया। (9/131)। यदि कोई स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लेता है तो वे चाहे बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, उन्हें चोर के सदृश दण्ड देने का विधान किया गया है। (9/212, 3/52, 8/2, 29)। स्त्री के प्रति किये गये अपराधों में कठोरतम दण्ड का प्रावधान मनु ने किया है। (8/323, 9/232, 8/352, 4/180, 8/275, 9/4)। कन्याओं को अपना योग्य पति चुनने की स्वतन्त्रता, विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार दिया है। साथ में दहेज निषेध करते हुए कहा गया है कि कन्याएँ भले ही ब्रह्मचारिणी रहकर कुँवारी रह जाएँ, परन्तु गुणहीन दुष्ट पुरुष से विवाह न करें। (9/90-91, 176, 56-63, 3/51-54, 9/89)। मनु ने नारियों को पुरुषों के पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कार्यों में सहभाग माना है। (9/11, 28, 96, /4, 3/28)। मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि नारियों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें, नव विवाहिता, कुमारी, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि स्त्रियों को पहले भोजन कराकर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए। (2/138, 3/114, 116)। मनु नारियों को अमर्यादित स्वतन्त्रता देने के पक्षधर नहीं हैं तथा उनकी सुरक्षा करना पुरुषों का कत्र्तव्य मानते हैं (5/149, 9/5-6)। उपर्युक्त विश्लेषपूर्वक प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि मनु स्त्री और शूद्र विरोधी नहीं है। वे न्यायपूर्ण हैं और पक्षपात रहित हैं।
मनुस्मृति में प्रक्षेप
मनु के वैदिक वर्ण-व्यवस्था गुण, कर्म, योग्यता के सिद्धान्त पर आधारित श्लोक मौलिक और जन्माधारित जात-पाँत, पक्षपात विधायक सभी श्लोक ˗प्रक्षिप्त हैं। मनु के समय जातियाँ नहीं बनी थीं। इसलिए उन्होंने जातियों की गिनती नहीं दर्शाई। यही कारण है कि वर्ण संस्कारों (वर्ण संकरों) से सम्बन्धित श्लोक ˗प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं। मनु की दण्ड-व्यवस्था एक जनरल कानून है, मौलिक है, इसके विरुद्ध पक्षपातपूर्ण कठोर दण्ड-व्यवस्था विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं। वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र विषयक श्लोक मौलिक, शेष जन्मना शूद्र निर्धारक छुआछूत, ऊँच-नीच अधिकारों का हरण और शोषण विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं। नारियों के सम्मान, समानता, स्वतन्त्रता और शिक्षा विषयक श्लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं।
उपसंहार
यह सत्य है कि आम लोग और अनेक परम्परावादी विद्वान, सन्त, महात्मा आदि उसी प्रक्षिप्त श्लोकों सहित मनुस्मृति को आज भी प्रामाणिक मानकर जन्माधारित जाति-व्यवस्था ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वीकार कर उससे ग्रसित हैं। आज भी वे स्त्री और शूद्र को अपने बराबरी का दिल से अधिकार नहीं देना चाहते, परन्तु आर्यसमाज जो जन्माधारित जाति-प्रथा में तनिक भी विश्वास नहीं करता और प्रारम्भ से ही दलितों का सच्चा हितैषी रहा है-प्रक्षिप्त श्लोकों रहित मनुस्मृति को ही प्रामाणिक मानता है और गुण, कर्म, योग्यता आधारित वर्ण-व्यवस्था का समर्थक है। यह बात पृथक् है कि आज वर्ण-व्यवस्था की पुनः स्थापना असम्भव-सी प्रतीत होती है, क्योंकि जात-पाँत के रहते वर्ण-व्यवस्था लागू नहीं हो सकती, इसलिए भले ही वर्णव्यवस्था को पुनः स्थापना न हो, परन्तु जात-पाँत टूटकर जात-पाँत रहित समाज बनना चाहिए। ताकि फिर किसी को वह गैर बराबरी और छुआछूत की यातना न भोगनी पड़े, जो इस देश के आधुनिक संविधान निर्माता और आधुनिक मनु, डॉ0 अम्बेडकर और तथाकथित शूद्रातिशूद्रों और दलितों को भोगनी पड़ी थीं।
अन्त में हमारा निवेदन है कि प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर मनु और मनुस्मृति पर भ्रमवश मनमाने आरोप-प्रत्यारोप लगाना अनुचित है। प्राचीन और विशुद्ध मनुस्मृति ग्रन्थ स्वाध्याय करने योग्य हैं। पक्षपात और पूर्वाग्रह रहित होकर शोधपूर्वक मनुस्मृति का अध्ययन करेंगे, तो यह भ्रान्ति मिट जाएगी कि मनु जात-पाँत के जन्मदाता और दलित तथा नारी विरोधी थे। मनु और मनुस्मृति के विरोध में लड़ाई बन्द होनी चाहिए, क्योंकि वास्तव में हम सब मानवतावादी हैं।