- मनुस्मृति की शैली-मनुस्मृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति की रचनाशैली ‘प्रवचनशैली’ है, अर्थात् मनुस्मृति मूलतः प्रवचन है। बाद में मनु के शिष्यों ने उनका संकलन करके उसे एक शास्त्र या ग्रन्थ का रूप दिया है। मनुस्मृति के ‘भूमिकारूप’ प्रथम अध्याय के पहले चार श्लोकों के ‘‘मनुम्…..अभिगय महर्षयः …….वचनमब्रुवन् (1। 1),‘‘ भगवन् सर्ववर्णानां……धर्मान्नो वक्तुमर्हसि’’ (1। 2) ‘‘त्वमेको अस्य सर्वस्य…..कार्यतत्त्वार्थवित् प्रभो’’ (1। 3) ‘‘प्रत्युवाच….महर्षीन् श्रूयताम् इति’’ (1। 4) आदि वचनों से ज्ञात होता है कि अपने मूलरूप में मनुस्मृति महर्षियों की जिज्ञासा का महर्षि मनु दिया गया उत्तर है, जो प्रवचनरूप में है। ये सभी श्लोक और विशेषरूप से ‘‘सः तैः पृष्टः’’ (1। 4) पदप्रयोग यह सिद्ध करता है कि इसे बाद में अन्य व्यक्ति ने संकलित किया है। मनुस्मृति की प्रवचन शैली और 1। 1-4 श्लोकों में वर्णित घटना, जिसमें कि महर्षि लोग केवल मनु के पास धर्मजिज्ञासा लेकर आते हैं और फिर मनु ही उसका उत्तर देते हैं, तथा सपूर्ण मनुस्मृति में प्रारभ से अन्त तक मनु द्वारा 1। 4 से प्रारभ की गई कहने-सुनाने की क्रियाओं का उत्तम पुरुष के एकवचन में प्रयोग, ये बातें यह सिद्ध करती हैं कि मनुस्मृति का प्रवक्ता मनु नामक राजर्षि और महर्षि है।
- प्राचीन काल से अद्यावधि पर्यन्त इस ग्रन्थ का मनुस्मृति ‘या’ ‘मानवधर्मशास्त्र’ नाम प्रचलित होना भी इसे मनुप्रोक्त सिद्ध करता है।
- यह मनु स्वायभुव ही है। इस बात को मनुस्मृति में स्पष्ट भी किया है और विभिन्न स्थलों पर मनु के साथ स्वायभुव विशेषण का प्रयोग भी किया है। प्रचलित मनुस्मृति में बीच-बीच में लगभग तीस स्थलों पर मनु का नामोल्लेखपूर्वक वर्णन है। उनमें छह स्थलों पर स्पष्टतः ‘स्वायभुव’ विशेषण का प्रयोग कियाहै।1 ये उल्लेख भी मनुस्मृति का प्रवक्ता स्वायभुव मनु को ही सिद्ध करते हैं।
- निन श्लोकों में मनुस्मृति का रचयिता स्वायंभुव मनु को बतलाया गया है-
(क) इदं शास्त्रं तु कृत्वाऽसौ मामेव स्वयमादितः।
विधिवद् ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन्॥
स्वायभुवस्यास्य मनोः षडवंश्या मनवोऽपरे॥
(1॥ 58,61॥
(ख) स्वायभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत्॥ 1। 102॥
यतोहि भृगु स्वायभुव मनु का शिष्य था। (1। 34-35,3। 194, 12। 2) अतः उसके शिष्य भृगु के वचनों में उल्लिखित मनु भी स्वायभुव मनु ही है, जिसको शास्त्र का कर्त्ता कहा है-
(ग) यथेदमुक्तवान् शास्त्रं पुरा पृष्टो मनुर्मया॥ 1। 119॥
(घ) एवं स भगवान् देवो लोकानां हिकायया।
धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं सर्वमुक्तवान्॥12। 117॥
(ङ) ‘‘मानवस्यास्य शास्त्रस्य’’ 12। 107॥
(च) ‘‘एतन्मानवं शास्त्रम् भृगुप्रोक्तम्’’ 12। 126।
यद्यपि मेरे अनुसन्धानकार्य के आधार पर ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं, अतः मौलिकवत् प्रामाणिक नहीं है; किन्तु फिर भी इन्हें ऐतिहासिक सन्दर्भ में पारपरिक जनश्रुति के समान पोषक आधार के रूप में ग्रहण किया है। इन सबमें मनु स्वायभुव को मनुस्मृति का रचयिता कहा गया है।
- ऐतिहासिक ग्रन्थ, ब्रह्मावर्त प्रदेश में स्थित बर्हिष्मती नगरी को स्वायभुव मनु की राजधानी मानते हैं। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त प्रदेश को धर्मशिक्षा, सदाचार का केन्द्र घोषित करके सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है। [1। 136-139 (2।17-20)]। इसी क्षेत्र में मनुस्मृति का प्रवचन-प्रणयन हुआ था। इससे भी मनुस्मृति का रचयिता स्वायभुव मनु होने का संकेत मिलता है।
- मनु के काल का अनुमान लगाने में मनुस्मृति तथा मनुस्मृति से भिन्न भारतीय साहित्य में प्राप्त वंशावलियां भी सहायक हैं। मनुस्मृति में तीन स्थानों पर मनु के वंश की चर्चा है-(क) ब्रह्मा से विराज, विराज से मनु, मनु से मरीचि आदि दश ऋषि उत्पन्न हुए (1। 32-35)। (ख) ब्रह्मा से मनु ने धर्मशास्त्र पढ़ा, मनु से मरीचि, भृगु आदि ने। यह विद्यावंश के रूप में वर्णन है। (1। 58-60)
(ग) हिरण्यगर्भ=ब्रह्मा के पुत्र मनु हैं और मनु के मरीचि आदि। (3। 194)। यद्यपि मनुस्मृति के प्रसंगों में ये तीनों ही स्थल प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, किन्तु पारपरिक जनश्रुति के रूप में यदि इन्हें स्वीकार करें तो स्वायभुव मनु, पुत्र के रूप में ब्रह्मा से दूसरी पीढ़ी में वर्णित है। यही तथ्य इसके स्वायंभुव (स्वयंभू=ब्रह्मा, उसका पुत्र) विशेषण से स्पष्ट होता है।
महाभारत तथा पुराणों में भी वंशावलियां प्राप्त हैं। उनमें भी मनु को ब्रह्मा का पुत्र बताया गया है अथवा शिष्य के रूप में उसका सीधा सबन्ध ब्रह्मा से वर्णित है (आदि0 1.32; शान्ति0 335.44)।
प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा को आदि सृष्टि में माना जाता है और भारत का प्रत्येक ज्ञात जन्म-वंश तथा विद्या-वंश ब्रह्मा से ही प्रारभ होता है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का काल भी आदिसृष्टि में स्थिर होता है।
- मनुस्मृति और उसकी भाषा – यह कहा जाता है कि मनुस्मृति की भाषा बड़ी सुबोध, सरल लौकिक भाषा है। वह पाणिनि के व्याकरण का अनुगमन करती है। अतः वर्तमान मनुस्मृति पर्याप्त अर्वाचीन है।
यह ठीक है कि मनुस्मृति की भाषा सुबोध और सरल लौकिक भाषा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस कारण इसको अर्वाचीन भाषा कहा जाये। मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है, जिसका सबन्ध सर्वमान्य रूप से सभी जनों से है। इसमें लोगों के आचार-विचार से सबन्धित निर्देश हैं। अतः ऐसे ग्रन्थ की भाषा का सुबोध, सरल होना स्वाभाविक भी है, और आवश्यक भी। प्राचीन काल में साहित्यिक भाषा के रूप में वैदिक भाषा का प्रयोग था तो व्यवहार में लौकिक संस्कृत का प्रयोग था।
मनुस्मृति में कुछ पूर्वपाणिनीय प्रयोग भी मिलते हैं। इसमें पाये जाने वाले वैदिक प्रयोग और वैदिक प्रयोगशैली, इसे मूलतः पाणिनि पूर्व एवं वैदिकालीन संकलन सिद्ध करते हैं। यथा –
(क) ‘‘मेत्युक्त्वा’’ [8। 57] मे + इत्युक्त्वा’ सन्धि पाणिनीय नहीं है। इसमें इकार का पूर्वरूप छान्दस (वैदिक) है।
(ख) ‘‘हापयति’’ [3.71] का ‘छोड़ता है’ अर्थ है। यहां प्रेरणार्थक न होकर प्रकृत्यर्थ (मूल अर्थ) में ‘णिच्’ छान्दस है।
(ग) 2.169-171 श्लोकों में ‘मौञ्जीबन्धन’ और ‘‘मौञ्जिबन्धन’’ पदों के प्रयोग में विकल्प से ह्रस्व छान्दस प्रयोग है।
(घ) ‘उपनयनम्’ के अर्थ में ‘‘उपनायनम्’’ प्रयोग [2.36] पूर्व पाणिनीय है। यहां दीर्घ को, पाणिनि ने व्याकरणसमत न होते हुए भी शिष्टप्रयोग मानकर ‘‘अन्येषामापि दृश्यते’’ [अष्टा0 6.3.137] सूत्र में स्वीकार कर लिया है।
(ङ) 1.20 में ‘‘आद्याद्यस्य’’ प्रयोग है। यह ‘‘आद्यस्य-आद्यस्य’’ होना चाहिये था, किन्तु पहले ‘आद्यस्य’का सुप् लुक् छान्दस प्रयोग के कारण माना गया है (‘सुपां सुलुक्……’ अष्टा0 7.1, 39)।
(च) वैदिक भाषा की प्रयोग शैली-‘‘आ हैव स नखाग्रेय :’’ [2.167], ‘‘पुत्रका इति होवाच’’ [2.151] ‘‘पितृणामात्मनश्च ह’’ [9.28] आदि प्रयोग वैदिक शैली के हैं।
इसकी भाषा के विषय में एक संभावना यह भी दिखायी पड़ती है कि पहले इसमें वैदिक प्रयोगों की अधिकता थी, जो धीरे-धीरे बदली जाती रही। क्योंकि यह सर्वसामान्य जनों से सबन्ध रखने वाला ग्रन्थ था, अत : इसकी भाषा में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहा। ऐसे उदाहरण हमारे सामने विद्यमान हैं, जिनसे यह संभावना पुष्ट होती है। वाल्मीकि-रामायण के दाक्षिणात्य, वंगीय और पश्चिमोत्तरीय, ये तीन संस्करण प्रसिद्ध हैं एवं प्रचलित हैं। इनमें दाक्षिणात्य पाठ में अभी भी वैदिक प्रयोगों का बाहुल्य है, जबकि अन्य संस्करणों में अधिकांश को बदलकर लौकिक कर दिया गया है। यही स्थिति मनुस्मृति के साथ भी संभव है। ऐसा इसलिए भी संभव प्रतीत होता है कि कालक्र म की दृष्टि से मनु सब ऋषियों से प्राचीन हैं और उनकी स्मृति सर्वाधिक प्रसिद्ध रही है।
- मनुस्मृति में केवल वेदों [1। 21, 23; 3। 2; 11। 262-264; 12। 111-112 आदि] और वेदांगों [2। 140, 241] का ही उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख भी एक विद्या के रूप में है न कि किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा रचित ग्रन्थ के रूप में। इसकी पुष्टि के लिए दो तर्क दिये जा सकते हैं-(क) इन विद्याओं के साथ न तो कहीं रचयिता का संकेत है और न ग्रन्थरूप का। (ख) 12। 111 में इन विद्याओं के ज्ञाताओं का ‘हेतुक : ‘तर्की’ ‘नैरुक्तः धर्मपाठकः’ आदि विद्याविशेषणों से परिगणन किया है, न कि किसी ग्रन्थविशेष के ज्ञाता के रूप में। एक-एक विद्या पर विभिन्न आचार्यों के ग्रन्थ प्राप्त हो रहे हैं। किसी भी ग्रन्थ का उल्लेख न होना और अन्य ब्राह्मण, उपनिषद् आदि विधाओं का उल्लेख न मिलना यह सिद्ध करता है कि यह स्मृति उन सबसे पूर्व की रचना है।
मनुस्मृति का आधार केवल वेद ही हैं। मनु सीधे वेद से विज्ञात बातों को ही धर्मरूप में वर्णित करते हैं और उसी को आधार मानने का परामर्श देते हैं [1.4, 21, 23; 2.128, 129, 130, 132; 12.92-93, 94, 97, 99, 100, 106, 110-112, 113 आदि]। वेद और मनुस्मृति के बीच अन्य किसी ग्रन्थ का उल्लेख न मिलना यह इंगित करता है कि यह मूलतः उस समय की रचना है जब धर्म में केवल वेदों को ही आधारभूत महत्त्व प्राप्त था, अन्य ग्रन्थों को इस योग्य प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। यह समय अत्यन्त प्राचीन ही था।