पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि मनुस्मृति में अनेक श्लोकों में वर्ण के बजाय ‘जाति’ शब्द का प्रयोग है। क्या मनु ‘जाति’ को स्वीकार करते हैं?
(अ) इसका उत्तर पूर्वोक्त ही है कि जाति का ‘जन्मना’ ‘जाति’ अर्थ नहीं है, क्योंकि वर्णव्यवस्था में जन्मना जाति स्वीकार्य नहीं थी और न मनु के समय जातियों का उद्भव ही हुआ था। उस समय ‘जाति’ शब्द भी वर्ण या समुदाय के पर्याय के रूप में ही प्रयुक्त होता था, जैसे-
(क) ‘‘आचार्यस्त्वस्य यां जातिम्……उत्पादयति सावित्र्या।’’
(2.148)
अर्थ-आचार्य बालक-बालिका के जिस वर्ण का गायत्रीपूर्वक निर्धारण करता है।
(ख) ‘‘जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्’’ (4.141)
अर्थ-अपने से निन वर्ण वालों पर कभी कटाक्ष न करे।
(ग) ‘‘मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः।’’ (10.45)
अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण-व्यवस्था से जो समुदाय बाहर हैं, वे सब दस्यु हैं।
(घ) ‘‘जातिं वितथेन ब्रुवन् दाप्यः’’ (8.273)
अर्थ-अपना वर्ण झूठ बतलाने वाला दण्डनीय है।
(आ) इसके अतिरिक्त मनुस्मृति में जाति शब्द का प्रयोग ‘जन्म’ के पर्याय रूप में हुआ है ‘जन्मना जाति’ के अर्थ में नहीं। कुछ उदाहरण हैं-
(क) ‘‘एकजातिः’’ = एक जन्म वाला अर्थात् शूद्र वर्ण, जिसका विद्याजन्म रूपी दूसरा जन्म नहीं हुआ (10.4)।
(ख) ‘‘द्विजातिः’’ = जिसके शारीरिक तथा विद्याजन्म, ये दो जन्म हुए हैं, वे वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हैं (10.4)।
(ग) ‘‘जात्यन्धबधिरौ’’ = जन्म से अन्धे और बहरे (9.201)।
(घ) ‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ = योगी पूर्व जन्म को स्मरण कर लेता है (4.148)
मनुस्मृति के मौलिक प्रसंगों में पठित जाति शब्द का जाति-पांति व्यवस्था से कोई सबन्ध नहीं है।