महर्षि मनु स्वयं स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वर्णव्यवस्था वेदमूलक है। इसका वर्णन तीन वेदों (ऋग्0 10.90.11-12; यजु0 31.10-11; अथर्व0 19.6.5-6) में पाया जाता है। मनु वेदों को धर्म में परमप्रणाम मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को वेदों से ग्रहण करके, उसे धर्ममूलक व्यवस्था मानकर अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा अपने धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया।
पाठक इस तथ्य की ओर गभीरतापूर्वक ध्यान दें कि वेदों तथा मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति का नहीं। वहां यह बतलाया गया है कि किस अंग की समानता के आधार पर किस वर्ण की कल्पना की गई अर्थात् किस वर्ण का कैसे नामकरण किया गया। उत्पत्ति सबन्धी मन्त्रों और श्लोकों की व्याया में अनेक व्यायाकार भ्रमित होकर ब्राह्मण, शूद्र आदि व्यक्तियों की उत्पत्ति वर्णित करते हैं, जो वर्णव्यवस्था के मूल सिद्धान्त के ही विरुद्ध है। वेदमन्त्रों का सही अर्थ इस प्रकार है-
प्रश्न– यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य, कौ बाहू, का ऊरू पादौ उच्येते ॥
उत्तर – ब्राह्मणो-अस्य मुाम् आसीद् बाहू राजन्यःकृतः।
ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत ॥
(ऋग्0 10.90.11-12)
प्रश्न-प्रश्न है कि (यत् पुरुषं वि-अदधुः) जिसको ‘पुरुष’ कहते हैं, उसकी अथवा समाजरूपी पुरुष की किस प्रतीक के रूप में कल्पना की गयी? वह (कतिधा अकल्पयन्) वह कल्पना कितने प्रकार से की गयी? (अस्य मुां किम्) इस समाज या पुरुष का मुख क्या है? (कौ बाहू) भुजाएं क्या हैं? (का ऊरू, पादौ उच्येते) जंघाएं अर्थात् मध्यमार्ग और पैर क्या कहे जाते हैं?
उत्तर-इस पुरुष का, अथवा समाजरूपी पुरुष का (ब्राह्मणः मुखम् आसीत्) ब्राह्मण नामक वर्ण मुख = मुखमण्डल हुआ अर्थात् मुखमण्डल के गुणों के आधार पर प्रथम वर्र्ण का ‘ब्राह्मण वर्ण’ नाम रखा गया (बाहू राजन्यः कृतः) भुजा ‘क्षत्रिय वर्ण’ को बनाया गया अर्थात् भुजाओं के गुणों के अनुसार ‘राजन्य=क्षत्रिय वर्ण’ नाम रखा गया (यद् वैश्यः तद् अस्य ऊरू) जो ‘वैश्य वर्ण’ है, वह इसका मध्यभाग या जंघा रूप कहा गया अर्थात् पेट आदि मध्यभाग के गुणों के अनुसार ‘वैश्य वर्ण’ नाम रखा गया (शूद्रः पद्याम् अजायत) ‘शूद्रवर्ण’ पैरों की तुलना से निर्मित हुआ अर्थात् पैरों के गुणों के अनुसार ‘शूद्रवर्ण’ का नाम रखा गया।
प्रश्न -आपने वर्णव्यवस्था का विधान करने वाले वेदमन्त्रों का अर्थ वर्ण की उत्पत्तिपरक किया है जबकि अन्य व्यायाकार वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्तिपरक अर्थ करते हैं। इनमें से किस व्याया को ठीक मानें? मनुस्मृति में किस प्रकार उत्पत्ति बतायी है?
उत्तर -यहां प्रस्तुत व्याया ही ठीक तथा शास्त्रानुकूल है। सबसे पहले इसमें वेदों के व्यायाग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देता हूं। वहां एक आयापिका में वर्णों की उत्पत्ति बतलाते हुए पहले वर्णों की उत्पत्ति ही कही है-
‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव…….तत् असृजत् क्षत्रम्…… स विशमसृजत् सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’ (14.4.2.23-25)
यहां उत्पत्ति-प्रक्रिया में स्पष्टतः वर्णों की उत्पत्ति पहले कही है। तर्क के आधार पर भी उक्त व्याया सही है। इसमें पहला तर्क यह है कि जब पहले वर्ण उत्पन्न होंगे तभी तो व्यक्ति उनमें प्रवेश करेगा। जैसे, पहले आश्रमों, संस्कारों का अविष्कार हुआ। फिर उनमें व्यक्तियों का प्रवेश हुआ। जैसे पहले कक्षा का नाम (मैट्रिक, बी.ए., एम. ए., आचार्य) रखा जाता है। बाद में उसमें प्रवेश होता है। यहां दूसरा तर्क यह है कि उत्पत्ति एक बार ही हुआ करती है। जबकि वर्र्णपरिर्वतन होकर लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बार-बार बनते रहते हैं। कभी स्वेच्छा से तो कभी दण्डस्वरूप वर्णपतन होता है। यदि ब्राह्मण को मुख से उत्पन्न हुआ कहा जाता है तो वह जब शूद्र घोषित होगा तो दोबारा उसकी उत्पत्ति पैरों से कैसे होगी? वह तो पहले ही उत्पन्न हो चुका है। तीसरा तर्क यह है कि एक वर्ण में करोड़ों लोग हैं, इतनी बड़ी संया में वे कैसे उत्पन्न होंगे? और रोज-रोज कैसे होते रहेंगे? अतः इसे आलंकारिक लाक्षणिक शैली का वर्णन मानना चाहिए। इस प्रकार यहां प्रस्तुत ‘वर्णों की उत्पत्ति’ वाला अर्थ ही तर्कसंगत है।
इस प्रसंग में बहुत-से लोग गलत अर्थ करके और फिर दूसरे उसे पढ़कर भ्रान्ति का शिकार हो जाते है और यह समझते हैं कि पुरुष से सीधे व्यक्तियों की उत्पत्ति बतलायी हैं, अतः वर्णव्यवस्था में सभी लोगों का वर्ण जन्म से ही निर्धारित होता है। यहा्रान्ति अपव्याया से उत्पन्न होती है। महर्षि मनु ने गत वेदमन्त्रों को सही अर्थ में समझा था, अतः उन्होंने भी पहले वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन किया है-
लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुख-बाहूरूपादतः।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥ (1.31)
अर्थ- ‘समाज की विशेष उन्नति-समृद्धि के लिए परमात्मा ने मुख, बाहु, जंघा और पैरों के कार्यों की तुलना से क्रमशः ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रियवर्ण, वैश्यवर्ण और शूद्रवर्ण को निर्मित किया। वर्णों का निर्माण करके फिर उनके कर्मों का निर्धारण इस प्रकार किया-
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः
मुखबाहूरुपज्जानां पृथक् कर्माण्यकल्पयत्॥ (1.87)
अर्थ- ‘इस सपूर्ण संसार की सुरक्षा एवं पालन-पोषण के लिए उस महातेजस्वी परमात्मा ने मुख, बाहु, ऊरु और पैरों की तुलना से निर्मित क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्म निर्धारित किये। उसके बाद 1.89-92 में एक-एक वर्ण के कर्मों का वर्णन है। उन कर्मों को अपनाने के बाद ही व्यक्ति फिर उस-उस वर्ण का नाम धारण करता है। क्योंकि बिना वर्णनाम निर्धारित हुए और बिना कर्मों को धारण किये कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी नहीं कहला सकते। इस प्रकार वर्णस्थ व्यक्ति बनने का क्रम तो वणर्ोत्पत्ति और कर्म निर्धारण के पश्चात् तीसरे क्रम पर आता है। अतः पहले वर्णोत्पत्ति का होना ही अभीष्ट एवं बुद्धिसंगत है।
एक ही पुरुष से चार वर्णों की उत्पत्ति होने से वर्णों में ऊंच-नीच का भाव भी नहीं हो सकता है। यह केवल योग्यता का क्रम वर्णित है। पैरों के गुणों की समानता से शूद्रवर्ण की उत्पत्ति में भी नीचता या हीनता का भाव नहीं है। वैदिक साहित्य में पूषा देव, पृथ्वी, मन्त्रों की उत्पत्ति पैरों से कही गयी है। क्या इन देवों और मन्त्रों को हम नीच मान लेंगे? इसी प्रकार शूद्र वर्ण में भी नीचता का भाव नहीं समझना चाहिए। (विस्तृत विवेचन अ0 चार में पढ़िए।)