महर्षि मनु और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों को जानने के लिए मनु की वर्णव्यवस्था पर विचार किया जाना परम आवश्यक है क्योंकि अधिकांश जनों को मनु की वर्णव्यवस्था के मौलिक या वास्तविक स्वरूप की तथ्यपरक जानकारी नहीं है। ऐसा देखने में आया है कि भ्रामक जानकारियों के आधार पर ही लोग मनु को गलत समझ बैठे हैं।
मनु की वर्णव्यवस्था अथवा वैदिक वर्णव्यवस्था को समझने में सबसे पहली और बड़ी भूल यह की जाती है कि कुछ लोग चातुर्वर्ण्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अस्तित्व जन्म से मान लेते हैं, जबकि ये जन्म से नहीं होते। जन्म से वर्ण को मानने की भ्रान्ति के कारण ही मनु पर उच्च वर्णों को सुविधा-समान देने का और शूद्र को तिरस्कृत करने का आरोप लगाया जाता है। ऐसे ही लोग वर्णों को वंशानुगत मानने की भ्रान्ति का शिकार हैं। वास्तविकता यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था गुण, कर्म, योग्यता पर आधारित व्यवस्था थी, जन्म पर आधारित जातिव्यवस्था नहीं। इसका अभिप्राय यह है कि किसी भी कुल या वर्ण में जन्म लेने के बाद बालक या व्यक्ति में जैसे-जैसे गुण, कर्म, योग्यता के लक्षण होंगे, उन्हीं के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होगा। उसके बाद वह उसी वर्ण के नाम से पुकारा जायेगा, चाहे उसके माता-पिता का वर्ण कुछ भी रहा हो। ब्राह्मण के कुल या वर्ण में उत्पन्न बालक यदि ब्राह्मण के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘ब्राह्मण’ कहलायेगा; यदि शूद्र के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘शूद्र’ कहा जायेगा। इस प्रकार जन्म के आधार पर कुछ भी निर्धारित नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण-नाम जन्म से ब्राह्मण आदि होने का संकेत देने के लिए नहीं हैं, अपितु केवल लोक व्यवहार के लिए हैं। जैसे, यह कहा जाता है कि अध्यापक, डॉक्टर , सैनिक, व्यापारी और श्रमिक के अमुक-अमुक कर्त्तव्य हैं, तो हमें आज कोई भी भ्रान्ति नहीं होती, और न यह अनुभव होता है कि ये नाम जन्म के आधार पर हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान व्यवस्था की यथार्थ स्थिति हमारे सामने है और यह मालूम है कि ये पद या नाम लबी प्रक्रिया को पूरी करने के बाद प्राप्त होते हैं, किन्तु प्रयोग इसी तरह होता है कि जैसे ये जन्माधारित व्यवसाय हों। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम भी एक निर्धारित प्रक्रिया के बाद प्राप्त होते थे। आज वह व्यवस्था प्रचलित नहीं है अतः जन्माधारित नाम का संदेह हो जाता है।
मनु की वर्णव्यवस्था को समझने में दूसरी भूल अशुद्ध अनुवादों के कारण हुई है। वर्णव्यवस्था की परपरा को गभीरता और वास्तविकता से न समझ पाने के कारण अंग्रेज लेखकों ने वर्ण का जाति (ष्टड्डह्यह्ल) अर्थ कर दिया। परवर्ती लेखक इसी का अन्धानुकरण करके वर्ण का जाति अर्थ करते आ रहे हैं। यह मूल में भूल है, जिससे वर्णों के विषय में जन्माधारित जाति का भ्रम हो रहा है। क्योंकि ‘जाति’ का ‘जन्म’ अर्थ आज रूढ़ हो चुका है। वर्ण और जन्मना जाति तो परस्परविरोधी हैं। वर्ण गुण-कर्म-योग्यता से प्राप्त किया जाता है, जबकि जाति जन्म से प्राप्त होती है। वर्ण स्वेच्छा से वरण किया जाता है, जबकि जाति अनिवार्यतः माता-पिता से मिलती है। वर्ण का अर्थ समुदाय है और जाति का अर्थ जन्मना जाति है। इस प्रकार वर्ण का ‘जाति’ अर्थ करने से वर्ण के जन्माधारित होने की भ्रान्ति फैल गयी है।
वर्णव्यवस्था आर्यों के परिवारों और समाज की व्यवस्था है। उसमें चार वर्ण हैं। ये चार वर्ण आर्यों के परिवारों के बालकों या व्यक्तियों से अस्तित्व में आते हैं। किसी भी कुल या वर्ण में उत्पन्न होकर बालक या व्यक्ति जिस वर्ण का विधिवत् शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करेगा, उसका वही वर्ण निर्धारित होगा। इस प्रकार चारों वर्ण मुयतः आर्यों के कुलों में से ही निर्मित होने के कारण वर्णव्यवस्था में न तो असमानता थी, न ऊंच-नीच, न स्पृश्यता-अस्पृश्यता और न भेदभाव। हाँ, यथायोग्य सामाजिक समान-व्यवस्था अवश्य निर्धारित थी। वह तो प्रत्येक व्यवस्था, प्रत्येक संस्था और प्रत्येक विभाग में आज भी है। आज की चतुर्वर्गीय सरकारी प्रशासन-व्यवस्था से यदि हम मनु की वर्णव्यवस्था की तुलना करें तो हमें मनु की वर्णपद्घति का बहुत-सा अंश समझ में आ जायेगा, क्योंकि दोनों व्यवस्थाओं में पर्याप्त मूलभूत समानता है। अन्तर इतना ही है कि मनु की व्यवस्था सामाजिक व प्रशासनिक दोनों स्तरों पर लागू थी, जबकि वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था केवल प्रशासन तक सीमित है। आज सरकार की प्रशासन-व्यवस्था में चार वर्ग ये हैं-
- प्रथम श्रेणी अधिकारी,
- द्वितीय श्रेणी अधिकारी,
- तृतीय श्रेणी कर्मचारी,
- चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी।
इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारियों के हैं, दूसरे दो कर्मचारियों के। संविधान के अनुसार यह विभाजन योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, समान एवं अधिकार हैं। इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल, आश्रम, आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय, विश्वविद्यालय आदि) ही करते हैं। विधिवत् शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी-श्रेणी में आता है। पहले भी जो गुरु के पास जाकर विधिवत् विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी। शूद्र के अर्थ हैं-‘जो विधिवत् शिक्षित न हो’, ‘निन स्थिति वाला’ ‘आदेशवाहक’ ‘आदेश के अनुसार सेवा या श्रमकार्य करने वाला’ अशिक्षित मजदूर आदि। नौकर, चाकर, मजदूर, पीयन, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, भृत्य, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है, आप स्वयं देख लीजिये। व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं है। शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करने के बाद ही उसी व्यवसाय की अनुमति सरकार से मिलती है, उसके बिना नहीं। सबके नियम-कर्तव्य और आचार संहिता निर्धारित है। उनकी पालना न करने वाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता है, या दण्डित किया जाता है।
इसी प्रकार वर्णव्यवस्था में गुरुकुल आदि से स्नातक बनने के बाद उसी अधीत विषय का व्यवसाय करने की अनुमति होती थी, उसी पर आधारित वर्णनाम आचार्य द्वारा निर्धारित होता था। निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन न करने पर व्यक्ति को राजा अथवा धर्मसभा द्वारा उस पद या व्यवसाय से अपात्र घोषित करके वर्णावनत (पदावनत) कर दिया जाता था या दण्डित किया जाता था। पद और व्यवसाय की स्वतन्त्रता, योग्यता एवं नियम के अनुसार जैसे आज की प्रशासनिक व्यवस्था में है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में थी।