पाठकवृन्द! आइये, सबसे अधिक चर्चित मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं। यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं। मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण और दोष; और आधारभूत तत्व हैं-बौद्धिक स्तर, सामाजिक स्तर या पद और उस अपराध का प्रभाव। मनु की दण्डव्यवस्था यथायोग्य दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है। यदि मनु गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक समान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्डाी देते हैं।
(अ) शूद्रों को सबसे कम दण्ड का विधान
मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मणों को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक। मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सैद्धान्तिक रूप में सभी दण्डनीय अवसरों पर लागू होती है-
अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)
अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।
(आ) उच्च वर्णों को अधिक दण्ड
मनु की व्यवस्था में जो जितना बड़ा है उसको उतना अधिक दण्ड विहित है-
पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।
नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)
कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)
अर्थ-‘जो भी अपने निर्धारित धर्म=कर्त्तव्य और विधान का पालन नहीं करता, वह अवश्य दण्डनीय है, चाहे वह पिता, माता, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र या पुरोहित ही क्यों न हो। जिस अपराध में सामान्य जन को एक पैसा दण्ड दिया जाये वहां राजा को एक हजार गुणा दण्ड देना चाहिए।’ यहां गुरु और पुरोहित को भी अवश्य दण्ड का विधान है। अतः ब्राह्मण को दण्डरहित छोड़ने का जहां भी कथन है, वह इस मनुव्यवस्था के विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है।
(इ) धन के लोभ में किसी को दण्ड दिये बिना न छोड़े
इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी चाहिए, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों। राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोड़े और कोई समृद्ध व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोड़े।
न मित्रकारणाद् राजा विपुलाद् वा धनागमात्।
समुत्सृजेत् साहसिकान् सर्वभूतभयावहान्॥ (8.347)
अर्थ-राजा, प्रजाओं में भय उत्पन्न करने वाले अपराधियों को, अपराध के बदले दण्ड रूप में धन की प्राप्ति के लालच में या मित्र होने के कारण भी न छोड़े, अर्थात् उन्हें अवश्य दण्डित करे।
यह कहना नितान्त असत्य है कि मनु ने उच्चवर्णों को दण्ड में छूट दी है और शूद्र के लिए अधिक दण्ड विहित किया है। यहां किसी को भी दण्ड से छूट नहीं है तथा ब्राह्मणों और राजा को शूद्र से बहुत अधिक दण्ड देने का विधान है। मनु की यह दण्डनीति पूर्वा पर प्रसंग से सबद्ध है और कारण-कथनपूर्वक वर्णित है, जो न्याययुक्त और तर्कसंगत है। इससे यह प्रकट होता है कि ये मौलिक श्लोक हैं और इनके विरुद्ध ब्राह्मण को दण्डनिषेध करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि वे पक्षपात और अन्यायपूर्ण हैं।