मकर सौर संक्रान्ति – श्री पंडित भवानी प्रसाद – आर्य पर्व पध्दति
दोहा
शीत शिविर हेमन्त का,हुआ परम प्राधान्य।
तैल,तूल,तपन का,सब जग में है मान्य।।
रूचिरा
उत्तर अयन इसी तिथि को है,सविता का सुप्रवेश हुआ।
मान दिवस का इसी ही कारण, अब से है सविशेष हुआ।।
वेद प्रदर्शित देवयान,जगती में विस्तार हुआ।
उत्सव संक्रान्ति , मकर की का, जनता में सुप्रचार हुआ।।
तिल के मोदक, खिचड़ी, कम्बल, आज दान में देते है।
दीनों का दुख दूर भगाकर, उनकी आशीष लेते है।।
सतिल सुगन्धित सुसाकल्य से होम यज्ञ भी करते हैं।
हिम से आवृत नभमंडल को शुद्ध वायु से भरते हैं।।
जितने काल में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा पूरी करती है उसको एक “सौर वर्ष “कहते हैं और कुछ लम्बी वर्तुलाकार जिस परिधि पर पृथ्वी परिभ्रमण करती है, उसको “क्रान्तिवृत्त” कहते हैं।
ज्योतिषियों द्वारा इस कर्न्तिवृति के १२ भाग कल्पित किए हुए हैं और उन १२ भागों के नाम उन उन स्थानों पर आकाशस्थ नक्षत्र पूंजो से मिलकर बनी हुई कुछ मिलती जुलती आकृति के नाम पर रख लिए गए है।
यथा-१मेष २वृष ३मिथुन ४कर्क ५सिह ६कन्या ७तुला ८वृश्चिक ९धनु १०मकर ११कुम्भ १२मीन।
प्रत्येक भाग वा आकृति “राशि” कहलाती है। जब पृथ्वी एक राशि से दूसरी राशि में संक्रमण करती है तो उसको “संक्रान्ति” कहते हैं। लोक में उपचार से पृथ्वी के से संक्रमण को सूर्य का संक्रमण कहने लगे हैं।
छ:मास तक सूर्य संक्रान्ति क्रान्तवृत्त से उत्तर की ओर उदित होता रहता हैऔर छ:मास तक दक्षिण की ओर निकलता रहता है प्रत्येक षण्मास की अवधि का नाम ‘अयन’ है। सू्र्य के उत्तर की ओर उदय की अवधि को उत्तरायण और दक्षिण की ओर उदय की अवधि को ‘दक्षिणायण’ कहते हैं।
उत्तरायण काल सू्र्य उत्तर की ओर से उदय होता हुआ दिखता है और उसमें दिन बढ़ता जाता है और रात्रि घटती जाती है। दक्षिणायन में सूर्योदय में सूर्य दक्षिण की ओर दृष्टिगोचर होता है और उसमें रात्रि बढ़ती जाती है और दिन घटता जाता है। सूर्य की मकर राशि की संक्रान्ति से उत्तरायण और कर्कसंक्रान्ति से दक्षिणायण प्रारम्भ होता है।
सू्र्य के प्रकाश आधिक्य के कारण उत्तरायण विशेष महत्वशाली माना जाता है अतीव उत्तरायण के आरम्भ दिवस मकर की संक्रान्ति को भी अधिक महत्व दिया जाता है और स्मरणातीत चिरकाल से उस पर पर्व मनाया जाता है।
यद्यपि इस समय उत्तरायण परिवर्तन ठीक ठीक मकर संक्रान्ति पर नहीं होता और अयन चयन की गति बराबर पिछली ओर को होते रहने के कारण इस समय (संवत १९९५ वि.मे) मकर संक्रान्ति से २२ दिन पूर्व धनराशि के ७ अंश २४ कला पर “उत्तरायण” होता है।
इस परिवर्तन को लगभग १३५० वर्ष लगे हैं परन्तु पर्व मकर संक्रान्ति के दिन ही होता चला आता है इससे सर्वसाधारण की ज्योतिष-शास्त्रानभिज्ञता का कुछ परिचय मिलता है, किन्तु शायद पर्व चलते न रहना अनुचित मानकर मकर संक्रान्ति के दिन ही मनाने की रीति चली आती हो।
मकर संक्रान्ति के अवसर पर शीत अपने यौवन पर होता है। जनावास,जंगल,वन,पर्वत सर्वत्र शीत का आतंक छा रहा है, चराचर जगत शीतराज का लोहा मान रहा है, हाथ पैर से सिकुड़ जाते है, “रातों जानु दिवा भानु:” रात्रि में जंघा और दिन में सूर्य, किसी कवि की यह उक्ति दोनों पर आजकल ही पूर्णरूप से चरितार्थ होती है।
दिन की अब तक यह अवस्था थी कि सूर्यदेव उदय होते ही अस्ताचल के गमन की तैयारियाँ आरम्भ कर देते थे, मानो दिन रात्रि में लीन हुआ जाता था। रात्रि सुरसा राक्षसी के समान अपनी देह बढ़ाती ही चली जाती थी। अन्त को उसका भी अन्त आया। आज मकर संक्रान्ति के मकर ने उसको निगलना आरम्भ कर दिया। आज सूर्यदेव ने उत्तरायण में प्रवेश किया।
इस काल की महिमा संस्कृत साहित्य में वेद से लेकर आधुनिक ग्रंथ सविशेष वर्णन की गई है। वैदिक ग्रंथों में उसको ‘देवयान’ कहा गया है और ज्ञानी लोग स्वशरीर त्याग तक की अभिलाषा इसी उत्तरायण में रखते है। उनके विचारानुसार इस समय देह त्यागने उनकी आत्मा सूर्य लोक में होकर प्रकाश मार्ग से प्रयाण करेगी। आजीवन ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने इसी उत्तरायण के आगमन पर शर-शैय्या पर शयन करते हुए प्राणोत्क्रमण की प्रतीक्षा की थी।
ऐसा प्रशस्तियाँ किसी पर्वता (पर्व बनने)से कैसे वन्चित रह सकता था। आर्य जाति के प्राचीन नेताओं ने मकर-संक्रान्ति (सूर्य की उत्तरायण संक्रमण तिथि) का पर्व निर्धारित कर दिया।
जैसा कि पूर्व में बताया जा चूका है यह पर्व बहुत चिरकाल से चला आता है। यह भारत के सब प्रांतों में प्रचलित है अत: इसको एकदेशी न कहकर सर्वदेशी कहनाचाहिए। सब प्रांतों में इसके मनाने की परिपाटी में भी समानता पाई जाती है। सर्वत्र शीतातिशय के निवारण के उपचार प्रचलित हैं।
वैद्यक शास्त्र में शीत के प्रतिकार तिल,तेल,तूल (रूई) बतलाए हैं। जिसमें तिल सबसे मुख्य है। इसलिए पुराणों में इस पर्व के सब कृत्यों में तिलों के प्रयोग का विशेष माहात्म्य गाया गया है। किसी पुराण का निम्नलिखित वचन प्रसिद्ध है-
तिलस्नायी तिलोद्वर्ती तिलहोमी तिलोदकी।
तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला: पापनाशना:।।
अर्थ- तिलमिस्रित जल से स्नान, तिल का उबटन, तिल का हवन, तिल का जल, तिल का भोजन और तिल का दान ये छ: तिल के प्रयोग पापनाशक हैं।
मकर संक्रान्ति के दिन भारत में सब प्रांतों में तिल और गुड या खाँड़ के लड्डू बनाकर जिनको ‘तिलवे कहते हैं,दान दिए जाते हैं और इष्ट मित्रों में बाटे जाते है। महाराष्ट्र प्रात में इस दिन तिलों का ‘तीलगूल’ नामक हलुआ बाटनें की प्रथा है और सौभाग्यवती स्त्रियाँ तथा कन्यायें अपनी सखी सहेलियों से मिलकर उनको हल्दी, रोली, तिल और गुड भेंट करती हैं।
प्राचीन ग्रीक लोग भी वधू-वर को सन्तान वृद्धि के निमित्त तिलों का पकवान बाटते थे। इससे ज्ञात होता है कि तिलों का प्रयोग प्राचीनकाल में विशेष गुणकारक माना जाता रहा है। प्राचीन रोमन लोगों में मकर संक्रान्ति के दिन अंजीर, खजूर और शहद अपने इष्ट मित्रों को भेंट करने की रीति थी। यह भी मकर संक्रान्ति पर्व की सार्वत्रिकता और प्राचीनता का परिचायक है।
मकर संक्रान्ति पर्व पर दीनों को शीत निवारणार्थ कम्बल और घृत दान करने की प्रथा सनातनियो में प्रचलित है। “कम्बलवन्तं न बाधते शीतम” की श्लिष्ट उक्ति संस्कृत में प्रसिद्ध ही है। घृत को भी वैद्यक में ओज और तेज़ को बढ़ाने वाला तथा अग्निदीपक कहा गया है। आर्य पर्वों पर दान, जो धर्म एक स्कन्ध है, अवश्यमेव ही कर्तव्य है-
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं सात्विक स्मृतम्।।
गीता, अध्याय १७। श्लोक २०।
अर्थ-देश, काल और पात्र के अनुसार ही दिया हुआ दान ‘सात्विक’ कहलाता है। तथा-
दरिद्रान्भर कौन्तेय माँ प्रयच्छेश्वरे धनम्।
अर्थ- हे अर्जुन! दरिद्रों का पालन करो, धनियों को धन मत दो।
इन श्रीमद्भगवद्गीता के वचनों के अनुसार इस प्रबल शीतकाल में मकर संक्रान्ति के पहले दिन लोढ़ी का त्योहार मनाने की रीति है। इस अवसर पर स्थान स्थान पर होली के समान अग्नियॉ प्रज्वलित की जाती है और उनमें तपे हुए गन्ने भूमि पर पटकाकर आनन्द मनाया जाता है। उससे अगले दिन वहॉ मकर संक्रान्ति का भी उत्सव होता है, जिसको वहॉ ‘माघी’ बोलते है। ज्ञात होता है कि ये दोनों दिन के लगातार दो उत्सव न होकर दिनद्वयव्यापी मकर संक्रान्ति महोत्सव के एक ही पर्व का अपभ्रंश रूप है। देश के आर्य सामाजिक पुरूषों को चाहिए कि वे दो दिन त्योहार न मनाकर मकर संक्रान्ति की तिथि को ही परिमार्जित रूप में इस पर्व को मनाए और आर्यसामाजिक जगत् में पर्वों की एकाकारता स्थापित करने में सहायक हों।
साभार :- शान्ति देवी जी आर्य
// जानिये,मकर संक्रांति का सच //
मकर संक्रान्ति १३ या १४ या १५ जनवरी तो क्या जनवरी की किसी भी तिथि को नहीं होती है और न ही हो सकती है। ये तो दिसंबर की २१ या २२ दिनांक को होती है और होती रहेगी। आइये, इस तथ्य को तनिक समझने का प्रयास करें।
ज्योतिष गणनाओं की २ आधार विधाएँ हैं। एक को ‘निरयण’ और दूसरे को ‘सायन’ कहते हैं। जो लोग ज्योतिष में काम चालाऊ ज्ञान रखते हैं उनका मानना है कि निरयण ही भारतीय है और सायन, पाश्चात्य या विदेशी है। ये बहुत गलत कथन है। सच्चाई ये है कि ५ -६०० वर्ष पूर्व के किसी भी ज्योतिष ग्रन्थ में और गणितीय विधा के रूप में, निरयण या सायन का नाम भी नहीं है। हाँ, सन्दर्भ और सिद्धांत ग्रंथों में जो भी गणनायें उपलब्ध हैं वो सब ‘सायन’ विधा की ही हैं। अतः कथित सायन विधा ही शास्त्रीय है, वैदिक है और यहाँ तक कि पौराणिक है। इसीलिये प्रसिद्द पुस्तक ‘भारतीय ज्योतिष’ (हिंदी संस्करण पेज , पेज ५६६ ) के लेखक श्री शंकर बाल कृष्ण दीक्षित को कहना पड़ा है, “…… इस स्थिति में ज्योतिष शास्त्र के निर्णय अनुसार धर्म शास्त्र को ऋतुमासाहचर्यसाधक सायन पद्धति ही स्वीकार करनी चाहिए और पंचांग भी सायन ही बनाने चाहिए”। इस सायन विधा के अनुसार अर्थात ऋतुमाससाहचर्य साधक गणित के अनुसार २१ या २२ दिसंबर को ही असली मकर संक्रान्ति होती है, अन्यथा स्थिति में नहीं।
मकर संक्रांति का एक और नाम भी है और उसे कहते हैं उत्तरायण अर्थात अयन संक्रान्ति। सूर्य की परमक्रान्ति पर पंहुच ही इस अयन परिवर्तन का कारण होती है और तदनुसार –
१) दिन का सबसे बड़ा या रात्रि का सबसे छोटा होना और
२)- मकर क्षेत्र में वस्तु का छाया लोप होजाना इस संक्रान्ति की प्रत्यक्ष पहिचान बनती है।
अब अगर कोई पंचांग परमक्रांति तो दिख़ाता है २१ या २२ दिसंबर को किन्तु मकर संक्रांति दिखाता है १४ या १५ जनवरी को तो ये सब उस ज्योतिषी या पंचांगकार का बचपना है, अज्ञान है। इस कथित मकर संक्रांति की दुर्बलता ये है कि ये ऋतुमाससाहचर्य साधक नहीं है साथ ही प्रति ७१+ वर्षों में एक दिन के हिसाब से महीनों को ऋतु से विचलित करती हुयी होती है।
हिन्दू समाज का दुर्भाग्य ये है कि अपने धर्म गुरु की १२६ वर्ष पूर्व की वह धर्माज्ञा (मठादेश ) को सम्मान नहीं दे सका जिसमें उन्होंने कहा था, “निरयण अर्थात वर्तमान में प्रचलित पंचांग धार्मिक रूप से ग्राह्य नहीं हैं क्योंकि उनसे व्रत पर्वों के निर्धारण में गम्भीर त्रुटि हो रही हैं।” वराहमिहिर कृत पंचसिद्धांतिका ३/२५ में लिखा है कि ‘उद्गायनं मकरादौ ऋतवः शिशिरादयश्च …….’ उत्तरायण तथा सूर्य की मकर संक्रांति के साथ ही शिशिर ऋतु भी शुरू होती है। सबसे अधिक स्पष्ट और सार्थक दिशा निर्देश मिलता है, शिव महापुराण में। देखिये क्या लिखा है –
तस्माद् दशगुण ज्ञेयं रवि संक्रमणे बुधाः। विषुवेतद् दशगुणमयने तद्दशस्मृतम्।।
यही बात विष्णु पुराण में है तो अन्य भी बहुत जगह ये प्रमाण आपको मिल जाएगा। इस प्रकार स्पष्ट हुवा कि गलत पंचांगों के कारण हम सब मकर संक्रांति के नाम का अर्थहीन दानपुण्य करते आ रहे हैं।
सूर्य सिद्धान्त के मानाध्याय के १०वें श्लोक में कहा गया है –
भानोर्मकरसंक्रान्तेः षण्मासा:उत्तरायणम्। कर्कादेस्तु तथैव स्यात् षण्मासा: दक्षिणायनम्।
अर्थात सूर्य की जिस दिन (दक्षिण परम क्रान्ति के साथ अर्थात २१ या २२ दिसम्बर या तपस या माघ महीने एक गते ) मकर संक्रांति होती है और उस ही दिन से छः महीने उत्तरायण के होते हैं। ऐसे ही छः महीने कर्क संक्रांति से दक्षिणायन के होते हैं। कोई भी मास संक्रान्ति जो ऋतुमाससाहचर्य साधक न हो जैसे कि १३ या १४ जनवरी या जनवरी महीने के किसी भी दिन की कथित मकर संक्रान्ति तो वह केवल गपोड़ संक्रान्ति है, वास्तविक नहीं। इस सत्य को उभारकर कहने वाले आधुनिक विद्वानों की भी एक लम्बी सूची है जिसको विस्तार भय से नहीं दिया जा रहा है। लेकिन एक उदाहरण पर्याप्त और सशक्त है।
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के पूर्व प्रोफेसर केदार दत्त जोशी जी का शुभ नाम अपने सुना होगा। उनकी पुस्तक ‘ मुहूर्त्तमार्तण्डः’ की भूमिका से लिखे गए उनके वचन देखें –
“…… परन्तु खगोल ज्ञान शून्य आज के अनभिज्ञ पञ्चाङ्गकार सारणियों पर अशुद्ध पंचांग निकाल कर अपनी अज्ञानता के अहं को तुष्ट करने पर लगे हैं। यथा मकर राशि पर सूर्य २१ दिसम्बर को ही वेध से आता स्पष्ट प्रतीत होने पर भी १४ ,१५ जनवरी को ही मकर संक्रांति पंचांगों में करना कहाँ तक समीचीन है? ………………… जब तक पञ्चाङ्ग शुद्ध ग्रह गणित से नहीं निकालेंगे तब तक फलित शास्त्र विश्वशनीय नहीं हो पायेगा। आज प्रायः सभी भारतीय पञ्चाङ्ग ग्रह गणित से अशुद्ध हैं। परम्परावादी सुधार करना भी नहीं चाहते। यदि अन्य सुधि जन इसका प्रयास करते भी हैं तो उन्हें इनके संगठित विरोध का सामना करना पड़ता है और उनका स्वर इनके स्वर के सामने दब जाता है।. …… ”
प्रत्येक महीने की १३, १४ या १५ तारीख में जो संक्रांतियां ली जाती हैं वो वही निरयण नाम की गलत संक्रांतियां है जो कि वास्तव में होती ही नहीं हैं। पर्वों को श्रद्धा से लेने वाले सभी धर्मनिष्ठ लोगों को हमें बताना है कि इन निरयण विधा की संक्रान्तियों का सबसे गलत परिणाम ये हुवा कि ये हुवा कि पंचांग ही गलत बनने लगे। क्योंकि पंचांग का आधार ही संक्रांतियां होती हैं. संक्रान्ति सही ली जायेगी तो पंचांग सही अन्यथा गलत। सिद्धान्त ये है कि संक्रांति हो जाने के बाद जो चांद्र मास शुरू होता है, वह उस ही मास के नाम का चांद्र मास होता है । उदाहरण के लिए चैत्र की संक्रांति के बाद जो पहला शुक्ल पक्ष होगा वही चैत्र शुक्ल पक्ष होगा। चैत्र के गलत होने से चैत्रीय नवरात्रे और फिर क्रमशः आगे के सारे त्यौहार गलत हो जाएंगे। और दुर्भाग्य से यही हुवा भी है।
यही नहीं फलित शास्त्री लोग जिनको सम्मान पूर्वक ज्योतिषी भी कहकर जाना व माना जाता है,जन्म पत्रिका में लग्न से लेकर ग्रहों तक की स्थित ‘निरयण’ में ही देते हैं। सच्चाई ये है कि ‘निरयण लग्न’ होता ही नहीं है। किसी भी सिद्धान्त ग्रन्थ में ‘लग्नायन’ (अर्थात लग्न निकालने) की जो विधि दी हुयी है उस से लग्न ‘ निरयण ‘ में आता ही नहीं है। इस प्रकार समाज को सरे आम गलत जन्म पत्रियाँ दी जा रही है और आश्चर्य ये कि उस पर फलित के सही और विज्ञान सम्मत होने का दावा भी। क्या ये संभव है ? कदापि नहीं।
पढ़े लिखे लोगों को इस पर सावधान हो जाना जरुरी है और इसके लिए जरुरी है ‘बाबा वाक्य प्रमाणम् ‘ के रूप में किसी की बातों को न लेकर प्रत्येक पढ़े लिखे व्यक्ति को ज्योतिष के आधारसिद्धान्तों के प्रति संज्ञान रखना चाहिए। यहां पर मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि किसी भी व्यक्ति के लिए बुनियादी ज्योतिष सीखना कदापि कठिन नहीं है। मात्र जिज्ञासा पर्याप्त है।
अब हम मुख्य विषय पर आते हैं। निरयण की शरुवात आचार्य मुंजाल के द्वारा दिए गए एक संशोधन से हुयी है। प्रारम्भ में संशोधन को लोग ठीक ठीक व्यवहार में ला रहे थे। किन्तु जब ग्रहों की स्थितियां वेधशालों से (शुद्ध) ली जाने लगी तब उनमें संशोधन की वह जरुरत नहीं रह गयी थी किन्तु अज्ञान वश कथित ज्योतिषी लोग उस संशोधन को फिर भी लेते रहे और इसका कुपरिणाम ये हुवा कि सही स्थितियों पर संशोधन लगा कर उन्हें गलत लिया जाने लगा और वो गलती आजतक वैसी ही चली आ रही है । आज हम भारत की धर्मपरायण जनता को वांछित शुद्ध पंचांग दे चुके हैं जिसमें मकर संक्रान्ति ही नहीं, ऋतुमाससाहचर्य साधक सारी ही संक्रांतियां सिद्धांत सम्मत और शुद्ध रूप से दी गयी हैं और तदनुसार ही व्रत पर्वों का शुद्ध तिथियों में निर्धारण है। हमारे इस पञ्चाङ्ग का नाम है ‘श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम्’ (एक मात्र वैदिक पञ्चाङ्ग)।
अस्तु १४ या १५ जनवरी की मकर संक्रांति ‘मकर सङक्रान्ति का सफ़ेद झूट है।
– आचार्य दार्शनेय लोकेश
सी -२७६, गामा -१, ग्रेटर नॉएडा