मनुस्मृति का गंभीर अध्ययन किये बिना अथवा एकांगी अध्ययन के आधार पर जब मनु पर आरोपों का सिलसिला बना तो कुछ लोग जो मन में आया, वही आरोप लगाने लगे। यह भी कहा गया कि मनु ने शूद्रों को दास घोषित किया है। मनु बड़ा क्रूर था, उसने शूद्रों के लिए बर्बरतापूर्ण विधान किये, आदि-आदि।
महर्षि मनु का चरित्र-चित्रण
इस प्रकार के आरोप महर्षि मनु पर सही सिद्ध नहीं होते। क्योंकि मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों के आधार पर जब हम मनु का चरित्र-चित्रण करते हैं, अथवा मनौवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं तो हमें मनु दयालु मानसिकता के व्यक्ति ज्ञात होते हैं। बाह्यग्रन्थों के मनु-विषयक प्रमाण भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।
सपूर्ण मनुस्मृति में हमें ‘अहिंसा’ का सिद्धान्त सभी विधानों में ओतप्रोत मिलता है। यह कहना चाहिए कि मनुस्मृति ‘अहिंसा’ पर टिकी हुई है। मनु मानवों को तो क्या, कीट-पतंग से लेकर पशुओं तक को पीड़ा देना पाप समझते हैं। पशुहत्या को वे महापाप मानते हैं। (5.51)। उन्होंने ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी चारों आश्रमियों को किसी भी प्रकार की हिंसा न करने और अहिंसा-धर्म का पालन करने का आदेश दिया है। अनजाने में गृहस्थों द्वारा होने वाली कीट-पतंगों की हत्या के प्रायश्चित्त-स्वरूप मनु ने उनको प्रतिदिन पांच यज्ञों को करने का आदेश दिया है (3.67-74)। इसी प्रकार अन्य स्थलों पर किसी भी प्रकार की जीवहत्या होने पर प्रायश्चित्त का निर्देश है। (अध्याय 11.131-144)। मनु हल में जुते बैलों के लिए भी यह निर्देश देता है कि उनको पीड़ा न देते हुए हल जोतना चाहिए (4.67-68)। मनु इस बात का भी आदेश देता है कि मनुष्य ऐसी कोई जीविका न अपनायें जिससे दूसरे मनुष्यों को पीड़ा, हानि या कष्ट हो (4.2, 11, 12)। इतना ही नहीं, वह गुरु-शिष्य को और पति-पत्नी को परस्पर पीड़ा न पहुँचाते हुए प्रसन्न रखने का उपदेश देता है (3.55-62;4.166;2.159)। परिवार के सदस्यों को परस्पर कलह के द्वारा एक दूसरे को कष्ट न देने का विधान करता है (4.179-180)। विकलांगों और निनवर्णस्थों पर आक्षेप न करने का आदेश देता है(4.141)। जो सभी मनुष्यों-प्राणियों से अहिंसा का व्यवहार करने का नियम बना रहा है (‘‘अहिंसयैव भूतानां कार्यं अनुशासनम्’’ 2.159), इन सबसे बढ़कर जो अहिंसा को स्वर्गप्राप्ति का साधन घोषित करता है (‘‘अहिंस्रः जयेत् स्वर्गम्’’ 4.246), वह व्यक्ति कभी किसी मानव के प्रति निर्दयी या क्रूर नहीं हो सकता। वह किसी भी मानव के लिए अत्याचार या अन्यायपूर्ण विधान नहीं कर सकता। वह मानवता के स्तर से कभी नहीं गिर सकता। इसलिए कोई भी अन्याय, अत्याचार का विधान मनु का नहीं हो सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शूद्र सबन्धी अनुचित विधान भी मनुप्रोक्त नहीं हैं।
मनुस्मृति के अध्ययन से हमें जानकारी मिलती है कि मनु एक न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ और आध्यात्मिक राजर्षि थे। वे अन्याय और अधर्म के घोर निन्दक थे। यहां तक कि अन्याय करने वाले राजा की वह निन्दा करते हैं (8.14,15,18,128, आदि)। ऐसा न्यायप्रिय व्यक्ति स्वयं किसी के साथ भी अन्याय और अधर्म का व्यवहार नहीं कर सकता। मनु इतना आध्यात्मिक धर्मशास्त्रकार है कि वह मन से दूसरे के अनिष्टचिन्तन को भी मानसिक पाप मानता है और कहता है कि ऐसा करने वाले को मानसिक क्लेश के रूप में उसका फल भुगतना पड़ेगा (12.5,8)। इन सब उल्लेखोां से मनु का व्यक्तित्व दयालु, धार्मिक, न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ एवं आध्यात्मिक सिद्ध होता है। महाभारत-पुराणों में भी ‘प्राणिमात्र के प्रति हितैषिता’ मनु की विशेषता बतलायी है-
‘‘मनुः वियातमंगलः…….सर्वभूतहितः सदा’’
(भागवत0 3.22,39)
अर्थात्-‘मनु वियात कल्याणकारी थे और सब प्राणियों के सदा हितैषी थे।’ ऐसा महर्षि दासता की क्रूर प्रथा का समर्थक नहीं हो सकता।
निष्कर्ष यह है कि शूद्रों के नाम पर मनुस्मृति में पाये जाने वाले पक्षपातपूर्ण, अन्याय-अत्याचारयुक्त विधान मनु के मौलिक न होकर बाद के पक्षपाती व्यक्तियों द्वारा किये गये प्रक्षेप हैं।