महर्षि दयानन्द जी द्वारा स्थापित आर्य समाज या आर्य समाज मन्दिर

महर्षि दयानन्द जी द्वारा स्थापित

आर्य समाज या आर्य समाज मन्दिर

-पं. उमेदसिंह विशारद

महाभारत काल के बाद भारतवर्ष में ईश्वरीय व्यवस्थानुसार ईश्वरीय वाणी वेदों की ओर लौटाने तथा वैदिक धर्म अर्थात् सत्य सनातन वैदिक धर्म का मार्ग बताने वाले केवल महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ही थे। भारतवासी धार्मिक अन्धविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों व भ्रष्ट राजनीति के गहरे संस्कारों में जकड़े हुए थे। महर्षि दयानन्द जी दूरदर्शी थे, उन्होंने समाज की तमाम बुराइयों को दूर करने के लिये एक वैचारिक क्रान्ति का संगठन ‘आर्यसमाज’ बनाया। आर्यसमाज अर्थात् ऐसे लोगों का संगठन जो सदैव बुराइयों को दूर करने में सहायक हो सकते हैं। आर्य समाज एक राष्ट्रीय संगठन है।

महर्षि दयानन्द जी ने भारत को ऐसा मंच दिया जो भारत की दिशा और दशा सुधारने में सक्रिय हो उठा। यह ऐतिहासिक सत्य है कि इस आर्यसमाज ने भारत को स्वतन्त्र करा दिया। स्वतन्त्रता संग्राम में सर्वाधिक बलिदान आर्य समाजियों ने दिया था।

आर्यसमाज की स्थापना से लेकर सन् 1957  तक आर्यसमाज का क्रान्तिकारी युग था, उसको हम आर्यसमाज का स्वर्णिम युग भी कह सकते हैं। आर्यसमाज का सदस्य बनना भी एक गौरव की बात होती थी, क्योंकि आर्यसमाज के सदस्य का चरित्र अत्यन्त प्रेरणादायक, सत्यवादी, राष्ट्रवादी, ईश्वरवादी व शुद्ध समाजवादी होता था। एकनिष्ठा एवं समर्पण की भावना साधारण सदस्य तक में होती थी। प्रत्येक आर्य अपने आप में चलता-फिरता क्रान्ति का बिगुल बजाने वाला आर्यसमाज था। स्वतन्त्रता आन्दोलन में आर्यों ने सर्वाधिक बलिदान किये। उन्होंने समाज में तमाम धार्मिक अन्धविश्वास, रुढ़ि परमपराएँ एवं सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध एक वैचारिक आन्दोलन चला दिया तथा ज्ञानमार्ग चुनकर अनेक विषयों पर तत्कालीन मठाधीशों से शास्त्रार्थ करके एक नई ज्योति जगा दी। धार्मिक क्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, राजनैतिक क्षेत्र के महन्तों को सोचने पर मजबूर कर दिया। उनकी सदियों से जमीं जड़ें हिलाकर रख दीं। उन 82 वर्षों में आर्यसमाज ने एक अपना नया इतिहास रचा और महर्षि दयानन्द के कार्यों को पहली श्रेणी में रखा। हम उन वर्षों को आर्यसमाज का बलिदानी युग भी कह सकते हैं।

1957 से 2016 तक 59 वर्ष का आर्यसमाज

आर्य समाज ने भारत को स्वतन्त्र करा दिया तथा स्वतन्त्रता मिलते ही आर्यसमाज का आन्दोलन धीमा पड़ गया। क्यों? क्या चुनौतियाँ समाप्त हो गयीं? क्या हम सचमुच में ही स्वतन्त्र हो गये? क्या महर्षि दयानन्द का सपना पूर्ण हो गया? आर्य समाज की प्रासंगिकता कब तक बनी रहेगी? आर्यसमाज की स्थापना के उद्देश्यों के साथ हमें इन बिन्दुओं पर गमभीरता से विचार करना होगा। आर्यसमाज एक अनुपम आन्दोलन है। संस्था को जीवित रखने के लिये मूल उद्देश्यों के प्रति सतत् आन्दोलन और उनका क्रियान्वयन आवश्यक होता है। आर्यसमाज का सामाजिक आन्दोलन शनैः-शनैः मरने लगा है और आर्य समाज पर रूढ़िवाद की जंग लगने लगी है। कालान्तर में यह रूढ़िवाद की जंग आर्यसमाज संगठन को एक समप्रदाय का रूप दे सकती है।

आर्यसमाज के पदाधिकारी भी विद्वानों से कहते हैं-तर्क की बात मत करो, खण्डन मत करो, अन्य बुरा मान जायेंगे। विद्वान् मंचों से भींच-भींच कर बात करते हैं, क्योंकि आर्यसमाज का वर्तमान युग नेतृत्व पर प्रभावी है। सिद्धान्तों पर कहीं न कहीं समझौता हावी होता जा रहा है। आर्यसमाज के सिद्धान्त आर्यसमाज के तथाकथित मन्दिरों में कैद होकर रह गये हैं। शास्त्रार्थ की परमपरा समाप्त हो गयी है।

मैं आर्यसमाजी संन्यासियों, विद्वानों एवं इसके प्रति पूर्णतः समर्पित महारथियों को अपवाद मानते हुए निस्संकोच कहना चाहता हूँ कि आम आर्यसमाजी दूसरे लोगोंके साथ या तो समन्वय स्थापित करने में लगा है, या फिर दूरदर्शिता के अभाव में आर्यसमाज व अन्य मत-मतान्तरों में अंतर न करके आर्यसमाज के सिद्धान्तों के प्रति नीरस होता जा रहा है। अधिकांश आर्य परिवारों में जहाँ वैदिक पताकाएँ लहराती थीं, उनमें आज गणेशजी व अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ पूजी जाती हैं। आर्य परिवारों में मिली-जुली पूजा हो रही है। यह आर्यसमाज के भविष्य के लिये चिन्ता का विषय है।

आर्यसमाज, आर्यसमाज मन्दिरों में परिवर्तन होने से हानि

महर्षि दयानन्द जी ने यज्ञ को देव यज्ञ कहा है और यह यज्ञ क्रिया आध्यत्मिक तथा व्यक्तिगत पर्यावरण को शुद्ध करने तथा वेद मंत्रों की रक्षा करने व उस परमपिता के सतत आभास हेतु प्रारमभ की। यह यज्ञ सर्व सार्वजनिक प्रदर्शन की क्रिया नहीं है, किन्तु आर्यसमाज केवल बड़े-बड़े यज्ञों के प्रदर्शन को ही प्रचार समझ रहा है।

यह ठीक है कि जनसंखया के आधार  पर आर्यसमाज भवनों की अत्यधिक बढ़ोतरी हुई है। यह भी सत्य है कि आर्यसमाज के कार्यकर्त्ता आर्यसमाज के भवनों की देख-रेख को ही आर्यसमाज का कार्य समझ रहे हैं और अपनी तसल्ली के लिये महर्षि दयानन्द जी के नारे लगा कर सन्तुष्ट हो रहे हैं। सनातनी मन्दिरों में रोज मूर्तियों की पूजा होती है, आर्यसमाज के मन्दिरों में हवन द्वारा होती है। फर्क केवल यह है कि सनातनी मूर्तिपूजक है व आर्यसमाजी ईश्वर को पूजते हैं। पद-लोलुपता, प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं परस्पर दोषारोपण से आर्यसमाज मूल उद्देश्यों से भटक रहा है। अर्थात् आर्यसमाज मन्दिरों में परिवर्तित होने के कारण मन्दिरों में कैद हो गया है।

आर्यसमाज संगठन को अंगड़ाई लेनी ही पड़ेगी

लाखों वर्ष के स्वर्णकाल के पश्चात् पिछले हजारों वर्षों से भारत ने पतन की पीड़ा झेली है। आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द जी द्वारा इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने की दिशा में बोया गया बीज है। भारत की स्वतन्त्रता का पौधा आज लहलहा रहा है। यह 10 अप्रैल 1875 को की गई आर्य समाज की स्थापना का ही सुपरिणाम है। यह स्पष्ट है कि आर्यसमाज के लिये आने वाला समय अधिक महत्त्वपूर्ण होगा।

अव्यवस्था अति का दूसरा नाम है। संसार में इस समय अव्यवस्था है, अनीति है, अनाचार है। यह संसार व्यवस्था, नीति और सदाचार के लिए तड़प रहा है। इस तड़प को केवल आर्यसमाज ही शान्त कर सकता है। आर्यसमाज का भविष्य उज्ज्वल है। चुनौती को स्वीकार करके और उद्यमशील, पुरुषार्थी होकर व आर्यसमाज के मन्दिरों की चारदीवारी से बाहर आकर कार्य करने की आवश्यकता है। आर्यसमाज को प्रचार के लिये मीडिया को माध्यम बनाना होगा। आज मीडिया का युग है। मेरे इस लेख का उद्देश्य आर्यसमाज के विकास हेतु अत्यधिक कार्य करने के लिए कार्यकर्त्ताओं से प्रार्थना करना मात्र है।

 

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