महाभारत में वर्णित वर्णाश्रमधर्म

महाभारत में वर्णित वर्णाश्रमधर्म

डॉ०जयदत्त उप्रैती…..

नातन वैदिक धर्म में चार वर्णों और चार -आश्रमों का विशेष स्थान है। चार वर्ण हैं – ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा चार आश्रम हैं ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। मूलतः इन चार वर्णों का वर्णन ऋगवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में स्पष्टतः हमें उपलब्ध होता है। आश्रमों का भी विभिन्न प्रसंगों में उल्लेख मिलता है। जैसे कि ब्रहमचर्याश्रम और गृहाश्रम या गृहस्थाश्रम का वर्णन चारों वेदों में विभिन्न सूक्तों अथवा मन्त्रों में हम पाते हैं। वानप्रस्थ तथा संन्यास का भी ‘यति’ या ‘यतयः’ शब्द से ग्रहण किया जाता है। तदनन्तर मनुस्मृति, ब्राहमण, आरण्यक और उपनिषद् साहित्य में भी यथा प्रसंग इन वर्णों और आश्रमों का उल्लेख हम पाते हैं। मनुस्मृति में तो चारों वर्णों और आश्रमों के गुणधर्मों और कर्तव्याकर्तव्यों का विस्तार से कथन किया गया है। इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण में भी चातुर्वर्ण्य और चातुराश्रम्य की चर्चा मिलती है। महाभारत नामक विशाल ऐतिहासिक महाकाव्य, पुराण ग्रन्थ और लौकिक संस्कृत साहित्यभास, कालिदासादि महाकवियों के काव्य नाटकादि ग्रन्थों में कदाचित् ही कोई ग्रन्थ बचा हो जहाँ वर्णाश्रम व्यवस्था का उल्लेख न हुआ हो। कहने का तात्पर्य है कि वर्णाश्रमों की वैदिक परम्परा सर्वत्र वैदिक और लौकिक संस्कृतवात्र्मयमें अनुस्यूत दिखाई देती है।

उक्त के परिप्रेक्ष में, इस लेख में महाभारत में वर्णित कुछ प्रसंगों के अनुसार वर्णाश्रमधर्म का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। वर्णों और आश्रमों के सम्बन्ध में यद्यपि सम्पूर्ण महाभारत में अनेक स्थानों में विवरण प्राप्त होता है, तथापि शान्तिपर्व के अनेक अध्यायों में विस्तार से इस विषय पर चर्चा की गई है।जैसे कि महाभारत शान्तिपर्व के साठवें अध्याय से लेकर छियासठवें अध्याय तक चारों वर्णों और चारों आश्रमों के गुण-कर्म-धर्मों का वर्णन विशेष रूप से देखा जा सकता है।यों महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत १८ अध्यायात्मक लघु ग्रन्थ जो सम्प्रति भगवद्गीतानाम से विश्व प्रसिद्ध है, उसके चतुर्थ और अठारहवें अध्याय में सार रूप में चारों वर्णों के नामोल्लेख पूर्वक उनके प्रमुख गुणकर्मों का वर्णन इस प्रकार किया गया है –

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मा विद्धयकर्तारमव्ययम्।।

(भ.गीता-४-१३)

ब्राहमणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।

शमो दमः तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रहमकर्म स्वभावजम्।।

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्मस्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः।

स्वकर्मनिरतः सिद्धम यथा विन्दति तच्छृणु।।

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिम विन्दति मानवः।।

(वही, १८-४१,४२,४३,४४,४५)

अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नामक चारों वर्ण गुणों और कर्मों (कार्यों, व्यवसायों) के भिन्न-भिन्न होने से, मानव सृष्टि के आरम्भ से ही मेरे अर्थात् ईश्वर के द्वारा रचे गये हैं, जिससे कि समाज सुव्यवस्थित रूप

से चल सके। (ज्ञातव्य है कि गीता में ग्रन्थकार द्वारा कृष्ण को ईश्वर रूप में कथित कर ऐसा वर्णन किया

गया है)अतः ईश्वर जो कि सारे जगत् का निर्माता होते हुए भी और कर्मफलों से बद्ध न होते हुए भी निर्लिप्त है। इन वर्णों का भी वेद द्वारा उपदेश और कर्ता माना जाता है। इन चारों वर्णों के गुण, कर्म और स्वभाव इस प्रकार भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं।जैसे कि ब्राहमण के स्वभाव से उत्पन्न गुण-कर्म हैं –मन का निग्रह, इन्द्रियों का निग्रह और दमन, धर्म के पालन करने में सुख-दुःख, हानि-लाभआदि द्वन्द्वों को सहन करना, आन्तरिक और बाह्य रूप से शुद्ध रहना, क्षमा, सरलता, वेदादिशास्त्रों, ईश्वर, परलोक, कर्मफल आदि में श्रद्धा और दृढ़ विश्वास का होना वेदादिशास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन से ज्ञान-विज्ञान को बढ़ाना, आस्तिकता का होना।

क्षत्रिय के गुण-कर्म हैं – शूरवीरता का होना, तेज, धैर्य, स्वकर्म में निपुणता, युद्धकाल में पलायन कर कायरता न दिखाना, दान करना और स्वामित्व अर्थात् राजशासन करने की योग्यता का होना। ये उसके स्वाभाविक गुण माने गये हैं।

वैश्य के कर्म हैं – कृषि करना, गौआदि दुधारू पशुओं का पालन और वाणिज्य-व्यापार द्वारा धनार्जन करना और जनता को आवश्यक वस्तुओं को तद्द्वारा सुलभ कराना।

इसी प्रकार शूद्र जन का स्वाभाविक कर्म है – उक्त तीनों वर्णों की सेवा करना अर्थात् उनके कार्यों में सहायता करना।

ये चारों वर्ण स्वकर्तव्य कर्मों में लगे रहने से संसिद्धि अर्थात् जीवन में सफलता को प्राप्त होते है। वह इस

प्रकार कि जिस ईश्वर ने इस जगत् को रचकर प्राणियों में कर्म करने की शक्ति दे रखी है, उसी ईश्वर को अपने कर्मों को समर्पित करके कर्मसिद्धि प्राप्त की जा सकती है। सच्चे भाव से कर्तव्य कर्मों को करते रहना ही और कर्मफल को ईश्वराधीन मानना ही ईश्वर की आराधना है।

जिस प्रकार मनुस्मृति में ब्राहमण के छः प्रधान कर्म कहे गये हैं – पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना और दान देना तथा यजमानादि से दान-दक्षिणा लेना उसी प्रकार महाभारत में भी वर्णन है। वहाँ पर इतना विशेष कहा है कि क्रोध न करना, सत्य बोलना, मिल बाँट कर खाना, क्षमा का होना, स्वस्त्रीव्रती होना, शुद्ध रहना, किसी से द्रोह न करना, सरलता और सेवक का पालन करना, ये नौ गुण चारों वर्णों में समान रूप से होना वांछनीय है।

(शान्तिपर्वं-६० ७-८) क्षत्रिय के कर्तव्य कर्मों के सम्बन्ध में कहा गया है कि वह दान तो करें किन्तु किसी

से दान लेवे नहीं, यज्ञ अवश्य करें किन्तु पुरोहित बनकर यज्ञ न करावे, शास्त्रों का स्वयं तो अवश्य अध्ययन करें किन्तु औरों को अध्यापन न करावे, प्रजाओं की सब ओर से रक्षा करें और रण में पराक्रम करें। जिस प्रकार ब्राहमण के कर्तव्य कर्मों में स्वाध्याय का स्थान सर्वोपरि है, उसी प्रकार क्षत्रिय के भी कर्तव्य कर्मों में प्रजापालन सबसे बड़ा कर्म है, जिसके कारण वह इन्द्र या ऐन्द्र कहा जाता है –

परिनिष्ठितकार्यस्तु स्वाध्यायेनैव तु ब्राहमणः।

कुर्यादन्यन्न वा कुर्याद मैत्रो ब्राहमण उच्यते।।

परिनिष्ठितकार्यस्तु नृपतिः परिपालनात्।

कुर्यादन्यन्न वा कुर्यादैन्द्रो राजन्य उच्यते।।

वैश्य वर्ण के धर्म के सम्बन्ध में कहा गया है – दान करना, अध्ययन करना, यज्ञ करना, ब्राहमणादिवत्

आचार-व्यवहार शुद्ध रखाना, धन-संचय करना और पशुओं का परिपालन पिता के समान करें। शूद्र वर्ण के

विषय में कहा गया है कि प्रजापति ने शूद्र को ब्राहमणादि त्रैवार्णिकों का दास अर्थात् सेवक बनाया है। उसकी

आजीविका भी उनकी सेवा से ही चलती है। अतः ब्राहमणादि का भी कर्तव्य है कि अन्न-धन-वस्त्रादि देकर

सदा शूद्र को सन्तुष्ट रखें।

महाभारत के अनुसार शूद्र का स्वयं का धन नहीं हुआ करता, किन्तु जिन-जिन की वह सेवा में लगा रहता है, उन्हीं के द्वारा दिये धन से उसका या उसके परिवार का भरण-पोषण होता है। उक्त तीन वर्णों की सेवा ही उसके लिए यज्ञ है और स्वाहाकार-वषट्कार रूप मन्त्र से सम्पन्न होने वाला यज्ञ उसके लिए विहित

नहीं है। किन्तु पाकयज्ञ (बलिवैश्वदेवयज्ञ-२) से अव्रती होकर यज्ञ करना और पूर्णपात्र रूप दक्षिणा ही पाक यज्ञ

में विहित है।

महाभारत में चार आश्रमों का वर्णन

महाभारत, शान्तिपर्व के इकसठवें बासठवें और तिरेसठवें अध्यायों में वर्णाश्रमों का भीष्म पितामह द्वारा

युधिष्ठिर के प्रति किये गये उपदेशों का सारांश इस प्रकार है –

आश्रमाणां महाबाहो श्रृणु सत्यपराम।

चतुर्णामपि नामानि कर्माणि च युधिष्ठिर।।

वानप्रस्थं भैक्ष्यचर्यं गार्हस्थ्यं च महाश्रमम्।

ब्रहमचर्याश्रमं प्राहुश्चतुर्थं ब्राहमणैर्वृतम्।।

जटाधारणसंस्कारं द्विजातित्वमवाप्य च।

आधानादीनि कर्माणि प्राप्य वेदमधीत्य च।।

सदारो वाप्यदारो वा आत्मवान् संयतेन्द्रियः।

वानप्रस्थाश्रमं गच्छेत् कृतकृत्यो गृहाश्रमात्।।

तत्रारण्यकशास्त्राणि समधीत्य स धर्मवित्।

ऊर्ध्वरेताः प्रव्रजित्वा गच्छत्यक्षरसाम्यताम्।।

अर्थात् हे महाबाहु और सत्य पराक्रम वाले युधिष्ठर चारों आश्रमों के नामों तथा कर्मों के विषय को सुना। ब्रहमणों के द्वारा अपनायें जानेवाले चार आश्रम क्रमानुसार इस प्रकार हैं – ब्रहमचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम,

वानप्रस्थाश्रम और भैक्ष्यचर्य (संन्यास) आश्रम। जब उपनयन-वेदारम्भ संस्कार के पश्चात् बाल द्विज बन जाता है और जटाधारण कर ब्रहमचर्याश्रम पूर्णकर गृहाश्रमी वेद पढ़कर और अग्न्याधान कर विवाह संस्कार द्वारा बनता है और गृहस्थाश्रम के सारे धर्म कर्मों को पूर्ण कर लेता है, तब उसको चाहिए कि पत्नी सहित या अकेले ही संयतेन्द्रिय होकर वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करें। वहाँ पर अच्छी प्रकार आरण्यक शास्त्रों का अध्ययन कर धर्मज्ञ बनकर और उर्ध्वरेता होकर जब चाहे प्रव्रज्या अर्थात् सन्यासाश्रम को धारण करें, जिससे कि अविनाशी पर ब्रहम से तादात्म्य स्थापित कर मोक्ष को प्राप्त होवे।

संन्यासाश्रम का अधिकार ब्रहमचर्य का पालन किये हुए और मोक्ष की इच्छा वाले ब्राहमण का ही प्रशस्त है –

चरितब्रहमचर्यस्य ब्राहमणस्य विशाम्पते।

भैक्ष्यचर्यास्वधिकारः प्रशस्त इह मोक्षिणः।।

इसका तात्पर्य हुआ कि हर किसी को संन्यासी बनने का अधिकार नहीं होता। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी

इस चतुर्थआश्रम को धारण करने का अधिकारी नहीं होता, भीष्म का यही कहना है। यथा-

ब्राहमणस्य तु चत्वारस्त्वाश्रमा विहिताःप्रभो।

वर्णास्तान् नानुवर्तन्ते त्रयो भारतसत्तम।।

यदि कोई ब्राहमण है और मन्द बुदधि के कारण अपने निज कर्तव्यों का पालन न कर क्षत्रिय के, या वैश्य

के, या शूद्र के कर्मों को करने लगता है तो वह इस लोक में तो निन्दित होता ही है, परलोक में भी नरक अर्थात् दुःख को प्राप्त होता है।

क्षात्राणि वैश्यानि च सेवमानः शौद्राणि कर्माणि च ब्राहमणः सन्। अस्मिल्लोके निन्दितो मन्दचेताः परे

च लोके निरयं प्रयाति।।

ब्राहमण या विप्र जन्म या कुलमात्र से न होकर विशेष गुणों से होता है और वे गुण हैं – जो दान्त इन्द्रियों

का दान न हो अपितु संयमी हो, सौम्य स्वभाव वाला हो, श्रेष्ठ आचरण वाला, दयावान् हो , सबको सहने वाला हो, अन्य के आशीर्वाद से रहित हो, सरल, मधुरभाषी, अकरुर तथा क्षमावान् हो वही विप्र कहने और मानने योग्य है न कि पाप कर्म करने वाला –

यः स्याद्  दान्तः सौमपश्चार्यशीलः, सानुक्रोशः

सर्वसहायनिराशीः। ऋमृदुरनृशंसः क्षमावान् स वै

विप्रो नेतरः पापकर्मा।।

परन्तु महाभारत में राजा की अनुमति से वैश्यों और शूद्रों को भी गृहस्थ और संन्यासाश्रम को अपनाने का विधान हैं। क्षत्रियों को विशेषतः क्षत्रिय राजाओं के लिए भी विधिवत् गृहस्थाश्रम का और राजधर्म का

परिपालन करने के पश्चात् आयु के तृतीय-चतुर्थ अवस्था में अरण्यवास या संन्यास आश्रम को अपनाने को

धर्मानुसारी कार्य माना है, किन्तु उस दशा में भैक्ष्यचर्या करते हुए जीवन-निर्वाह तो वह कर सकता है परन्तु

किसी की सेवा या दास बनकर जीविका नहीं चला सकता। उल्लेखनीय है कि भारत के इतिहास के अनुसार

प्राचीनकाल में राजा महाराजा लोग प्रायः जीवन के उत्तराद्धकाल में वानप्रस्थ या संन्यासआश्रम को

धारण करते थे, जिसका वर्णन महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में रघुवंशी राजाओं के सम्बन्ध में इस

प्रकार किया है –

शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।

वार्ह्के मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।

रघूणामन्वयं वक्ष्ये तनुवाग्विभवोऽपि सन्।

तद्गुणैःकर्णमागत्य चापलाय प्रचोदितः।।

इस श्लोक में महाकवि ने ब्राहमणों के समान ही क्षत्रिय राजाओं के लिये ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और

संन्यास नामक चारों आश्रमों का अनुपालन का वर्णन किया है। महाभारतोक्त-वर्णन भी यही दर्शाता है।

वर्णाश्रम-व्यवस्था के सम्बन्ध में महाभारत के पूर्वोक्त वर्णनों के प्रसंग में भीष्म का यह कथन भी ध्यान

देने योग्य है कि जिस प्रकार हाथी के पाँव तले सबके पाँव समा जाते हैं, उसी प्रकार सबसे बड़ा जो राजधर्म

होता है, उसके अन्तर्गत सभी वर्णाश्रमादि धर्मों का अस्तित्व हुआ करता है, राजधर्म अथवा दण्डनीति के विना तो न वेद बच सकता है और न वेदोक्त धर्म-कर्म और वर्णाश्रम धर्म ही बच सकते हैं। अतः राजधर्म का ठीक से संचालन ही इन सब धर्मों की रक्षा का आधार है-

यथा हस्तिपदे पदानि संलीयन्ते सर्वसत्वोद्भवानि।

एवं धर्मान्र राजधर्मेषु सर्वान् सर्वावस्थान् सम्प्रलीनान् निबोध।।

सर्वे धर्मे राजधर्मप्रधानाः सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति।

सर्वस्त्यागो राजधर्मेषु राजन् त्यागं धर्मं चाहुरग्य्रं पुराणम्।।

मज्जेत्त् त्रयी दण्डनीतौ हतायां सर्वे धर्मा प्रक्षयेयुर्विवृहः।

सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः स्युः क्षात्रे त्यक्ते राजधर्मे पुराणे।।

यह महाभारत काल में वर्णाश्रम धर्म का संक्षेपतः चित्रण है। वर्तमान स्थिति सर्वथा उलट गई है, जैसे जन्म मूलक अथवा जाति के नाम से वर्ण व्यवस्था चल पड़ी और आश्रम-व्यवस्था भी टूट गई, तब से सनातन

वैदिक धर्म को मानने वाले समाज का सारा ताना-बाना ही विच्छिन्न हो गया है। केवल जाति के नाम से ऊँच-नीच के भेद भाव से आपस में भारी कटुता और विद्वेष को ही बढ़ाया है। आश्रमों की व्यवस्था भी दोषपूर्ण हो गई। आर्य समाज के क्षेत्र में व्यक्तिगत स्तर में यह आश्रम-व्यवस्था गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति और महर्षि

दयानन्द की शिक्षाओं के आधार पर कुछ-कुछ चल रही है। परन्तु वर्ण व्यवस्था तो राज-शासन के वेदानुकूल

चलने पर ही सम्भव है, गुण-कर्म-स्वभावानुसार चलना। यों तो आज भी ब्राहमणादि वर्णों के नाम लिये बिना ही वह अस्त-व्यस्त रूप में कुछ न कुछ चल ही रहा है।इत्यलं प्रसक्तानुप्रसक्तेन।

– स्वस्त्ययन, तल्ला, थपलिया,

अल्मोडा

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