आचार्य धर्मवीर कृतज्ञता-समेलन
-प्रभाकर
ऋषि मेला–आर्यों का महाकुमभ, विद्वानों का समेलन, ऊर्जा का भण्डार, सैद्धान्तिक चर्चा का मंच- और भी अनेक नामों से आर्यजनों के हृदय में जो आशा का केन्द्र बना हुआ है, इस ऋषि मेले को इन उपाधियों से विभूषित कराने वाले महामनीषी को इसी मंच से एक दिन श्रद्धाञ्जलि देनी होगी, ये कल्पना से परे था।
ये इतिहास का नियम है या शायद समाज की सहज प्रवृत्ति कि अमूल्य वस्तु अप्राप्त होने पर ही बहुमूल्य बनती है। व्यक्ति की महानता, उसकी उपयोगिता उसके न होने पर ही अनुभव में आती है। एक ऐसे ही महामानव, संन्यासी, दार्शनिक, ऋषितुल्य व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये आयोजित कृतज्ञता सममेलन का चित्रण ही इस लेख का विषय है।
आचार्य धर्मवीर जी को मैं केवल एक विद्वान् कहूं तो ये ना मुझे स्वीकार्य है और ना ही पाठकों को। वे शास्त्रों के जादूगर थे। वेद की ऋचाओं का व्याखयान करते समय वेद-मन्त्रों के राजमार्ग पर चलते-चलते शास्त्र, उपनिषद्, व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आयुर्वेद, कालिदास, पंचतन्त्र, गीता, मनुस्मृति और हास्य-व्यंग्य के गलियारों से होते हुये कब पुनः उसी राजमार्ग पर ले आते-पता ही नहीं चलता। उठने से लेकर सोने तक, हँसने से लेकर रोने तक उनकी पूरी दिनचर्या ही वेद-शास्त्रों से ओत-प्र्रोत थी। वेद की ऋचायें और दर्शन-व्याकरण के सूत्र ही उनके खिलौने थे। उन्हीं से खेलना, उन्हीं से मनोरंजन करना उनका स्वभाव था।
सिद्धान्त उनके मस्तिष्क में कितने स्पष्ट थे, इसके लिये एक ताजा संस्मरण उपयोगी होगा। इसी वर्ष के ऋषि मेले का आमन्त्रण देने के लिये मैं भी आचार्य जी के साथ था। एक घर पर गये तो गृहस्वामी ने मीमांसा दर्शन की शंका उपस्थित कर दी। शंका ये थी कि ‘‘मीमांसा दर्शन में पशुबलि की चर्चा है, तो क्या हमारे शास्त्र बलि प्रथा का विधान करते हैं?’’ आचार्य धर्मवीर जी ने सहजता से कहा कि ‘‘मैंने दर्शनों को गुरमुख से नहीं पढ़ा और ना ही मैं कोई बड़ा विद्वान् हूँ।’’ बार-बार पूछने पर बड़ी सहज भाषा में सटीक उत्तर देते हुए बोले कि ‘‘मीमांसा दर्शन कर्म-काण्ड का नहीं, बल्कि वाक्य-शास्त्र है और व्याक्यार्थों को समझने के लिये जो कार्य कर्मकाण्ड में प्रचलित थे, वे उदाहरण के रूप में दिये गये। इसलिये मीमांसा में बलिप्रथा का विधान नहीं है।’’ ये घटना उनकी विद्वत्ता और सरलता दोनों का उदाहरण है।
ऐसे अतुलनीय शास्त्रवारिधि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने देश के कोने-कोने से विद्वान् व आर्यजन एकत्रित हुये। इस सममेलन का आयोजन ऋषि मेले के दूसरे दिन अर्थात् 5 नवमबर की शाम को रखा गया। मंच और पंडाल दोनों ही भरे हुये थे। सत्र का संयोजन डॉ. राजेन्द्र विद्यालंकार जी कर रहे थे। वक्ता हो या श्रोता सब के हृदय वेदना से भरे हुए थे। जो मञ्च कभी आचार्य धर्मवीर जी से सुशोभित होता था, जिस मञ्च की समपन्नता ही आचार्य प्रवर पर निर्भर थी, आज ये मञ्च उस आचार्य को श्रद्धाञ्जलि देने के लिये मजबूर था। ईश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम के सामने मनुष्य का सामर्थ्य कितना छोटा है-ये आज सभी अनुभव कर रहे थे।
सममेलन के प्रारमभ में कुछ पुरस्कार व समान विद्वानों और कार्यकर्त्ताओं को दिये गये। उसके बाद परोपकारिणी सभा के संरक्षक व आचार्य धर्मवीर जी के पितातुल्य श्री गजानन्द आर्य जी की लिखित संवेदना उनके पुत्र श्री महेन्द्र आर्य जी ने पढ़कर सुनाई। अस्वस्थता के कारण वे स्वयं तो उपस्थित नहीं हो पाये, किन्तु उनके हृदय का कष्ट उनके पत्र से झलक रहा था। इसके बाद सभा के समाननीय कोषाध्यक्ष श्री सुभाष नवाल जी ने अपने हृदय के भाव प्रकट किये। श्री सुभाष नवाल जी की पीड़ा को समझने के लिये आचार्य धर्मवीर जी के लिये किया गया उनका समबोधन ही पर्याप्त होगा-
‘‘आचार्य धर्मवीर जी! परोपकारिणी सभा के प्राण! मेरे मानस पिता! मेरे दयानन्द! किन शबदों में उनका उल्लेख करुँ, कुछ समझ नहीं आता।’’ ये मात्र शबद नहीं हैं किसी असहनीय आघात के पश्चात् अनायास ही निकली एक चीख है, जो सहज ही धर्मवीर जी की दिव्यता को प्रकट करती है। और ये वेदना हर उस कार्यकर्त्ता के मन में है, जिसने उस आचार्य के पितृतुल्य निर्देशन में पुत्र की भांति कार्य किया है।
‘उनका जाना अपूरणीय क्षति है’- यह वाक्य किन्हीं स्थानों पर भावुकतापूर्ण या औपचारिक हो सकता है, पर आचार्य धर्मवीर जी के लिये शत-प्रतिशत सत्य है। विद्वान् की पूर्ति विद्वान से, वक्ता की वक्ता से, लेखक की लेखक से, और प्रचारक की पूर्ति प्रचारक से हो सकती है, अधिकारी का स्थान भी अधिकारी से भरा जा सकता है, पर एक पिता का स्थान………? परोपकारिणी सभा और ऋषि उद्यान आज जिन ऊँचाइयों पर है, उसके पीछे विद्वान् के साथ-साथ धर्मवीर जी की पिता के रूप में बहुत बड़ी भूमिका है। इसके लिये सुभाष जी द्वारा कही गई एक और पंक्ति मैं यहाँ लिखना चाहूँगा-‘‘उनका असमय चले जाना ऐसा लगता है, जैसे कोई उंगली पकड़कर चलना सिखाये और रास्ते में छोड़कर चला जाये।’’
उसके बाद सभा के संयुक्त मन्त्री व आचार्य जी के साथ परिवार की तरह जुड़े रहे डॉ. दिनेशचन्द्र जी ने अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। यूं तो जो भी उनसे मिला, उनके परिवार का हिस्सा बन गया, पर डॉ. दिनेशचन्द्र जी से उनका समबन्ध अतिघनिष्ट था। शास्त्र की भाषा में कहा जाये तो ‘‘वसुधैव कुटुबकम्’’ की सार्थकता आचार्य धर्मवीर जी में स्पष्ट देखने को मिली। श्रीमती ज्योत्स्ना जी से जो भी मिलने आया, उसके मुख से ये भाव स्वतः ही व्यक्त हो जाता था कि आचार्य धर्मवीर जी आपसे अधिक हमारे परिवार के सदस्य थे। जिसने भी उनको निकट से देखा है, वो जानते हैं कि आचार्य जी ने अपने परिवार पर कम और आर्यसमाज व ऋषि के कार्य पर अधिक ध्यान दिया, या यूं कहूँ कि पूरा जीवन ऋषि दयानन्द के लिये ही जिया।
आई.आई.आई.टी. हैदराबाद के प्रोफेसर श्री शत्रुञ्जय रावत जी ने अपना संस्मरण सुनाया। ‘‘जिन दिनों आचार्य जी की आर्थिक स्थिति अत्यन्त कमजोर थी, उन दिनों मेरे पिता जी ने उन्हें संस्कार के बहाने बुलाकर आर्थिक सहायता करनी चाही। संस्कार के बाद पिता जी ने जो दक्षिणा दी, उसका पता मुझे तब चला जब मेरे पास परोपकारी पत्रिका आने लगी। उन्होंने अपनी दक्षिणा से मुझे परोपकारी का आजीवन सदस्य बना दिया। मेरे पिता जी द्वारा दी गई दक्षिणा मुझे आशीर्वाद के रूप में आज तक मिल रही है।’’
परोपकारिणी सभा के इतिहास में ऋषि दयानन्द को पहली बार ऐसा प्रतिनिधि मिला, जिसने दयानन्द के अधिकार को अक्षुण्ण रखा। सभा को अपना घर माना, सभा के कार्य को अपना कार्य मानकर किया, साा पर हुये आक्षेप को अपनी गरिमा का प्रश्न बना लिया। सभा के लाभ में प्रसन्नता, हानि में दुःख, मानो परोपकारिणी सभा और आचार्य धर्मवीर जी एक-दूसरे का पर्यायवाची थे। सभा का नाम सुनते ही आचार्य धर्मवीर जी की छवि मन में सहज ही उभर आती थी।
हैदराबाद से प्रो. बाबुराव हेत्रे जी भी अपने कुछ संस्मरण सुनाने को उद्यत हुये, परन्तु रुंधा हुआ गला और आंखों से अनवरत बहती अश्रुधारा ने ही वो सब कह दिया जो वाणी से कहा जाना असभव था। हेत्रे जी अपनी बात अधूरी ही छोड़कर भीगी आंखों से वापस बैठ गये। उसके पश्चात् परोपकारिणी सभा के मन्त्री श्री ओममुनि जी के सुपुत्र श्री श्रुतिशील जी ने उपस्थित आर्यजनों से ये अपील की कि आचार्य धर्मवीर जी ने जो प्रकल्प प्रारमभ किये, उनके सुचारु संचालन में लगभग 12 लाख रु. का मासिक व्यय होता है, एतदर्थ परोपकारिणी सभा द्वारा बनाई जा रही ‘‘आचार्य धर्मवीर स्थिर निधि’’ में अपना अधिकाधिक योगदान दें।
आचार्या सूर्या देवी चतुर्वेदा, श्री उग्रसेन राठौर, डॉ. रघुवीर जी वेदालंकार, डॉ. रामचन्द्र जी, डॉ. नयन कुमार आर्य आदि ने भी अपने आचार्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी ने रोषपूर्ण शबदों में कहा कि ‘‘आचार्य धर्मवीर जी जैसा दार्शनिक हमने इतनी आसानी से कैसे खो दिया? हमें अपने विद्वानों की सुरक्षा करनी चाहिये।’’ आचार्य जी के अनन्य सहयोगी एवं इतिहास के मर्मज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य जी के पितृकुल व मातृकुल की राष्ट्रबलिदानी परपरा पर प्रकाश डाला। स्वामी सपूर्णानन्द जी की पीड़ा थी कि एक-एक करके हमारे बीच से आर्य विद्वान् जा रहे हैं, पर हम इसे गभीरता से नहीं समझ पा रहे। आने वाले समय में हम डॉ. धर्मवीर जी से अधिक ना सही पर उनके बराबर विद्वत्ता वाला कोई व्यक्तित्व पैदा कर सकें तो ये हमारी सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी। परोपकारिणी सभा के कार्यकारी प्रधान और गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने आचार्य जी से अपने विद्यालयीय मैत्री समबन्धों की चर्चा करते हुये उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाला।
सममेलन के अन्त में आचार्य धर्मवीर जी के जीवन पर एक छोटा-सा वृत्तचित्र (डॉक्यूमेन्ट्री) दिखाया गया। उसमें आचार्य जी द्वारा परोपकारिणी सभा के लिये किये गये कार्यों को क्रमवार तरीके से प्रस्तुत किया गया। जिस समय आचार्य जी परोपकारिणी सभा के समपर्क में आये, तब सभा की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। कार्यालय के औपचारिक कार्यों का वहन भी जैसे-तैसे होता था। फिर आचार्य जी ऋषि उद्यान में आने लगे। ऋषि उद्यान में उस समय भवन के नाम पर सरस्वती भवन और कुछ कोठरियाँ थीं। ऋषि मेले का आयोजन केवल एक औपचारिक कार्य था। पर आज इस आयोजन में तीन हजार के लगभग पंजीकरण होते हैं। आचार्य जी आकर आश्रम की झाड़ियाँ साफ करते। आश्रम में साधुओं के रहने की व्यवस्था की। आर्यसमाज के प्रचारकों और विद्वानों के रहने व खाने-पीने की व्यवस्था भी की। धीरे-धीरे ऋषि उद्यान का परिचय बढ़ने लगा।
प्रातःकाल नित्य उपनिषद् के प्रवचन व यज्ञ का प्रारभ किया। पौरोहित्य व प्रचार आदि के लिये जहाँ भी जाते, वहाँ सभा की ही बात करते। परोपकारी पत्रिका के सदस्य उन दिनों उंगलियों पर गिने जा सकते थे। फिर आचार्य जी के सपादकत्व में परोपकारी ने जिन ऊँचाइयों को छुआ, वह सर्वविदित है। आश्रम का वर्तमान स्वरूप उस आचार्य के अथक परिश्रम का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऋषि उद्यान का एक-एक पौधा उस माली ने अपने पसीने से सींचा है। परोपकारिणी सभा द्वारा संचालित गुरुकुल की स्थापना उसी कर्मयोगी के बृहत् चिन्तन का ही परिणाम है।
उस महान् दूरदर्शी, महान् मानवशिल्पी ने केवल पांच-सात लोगों से शिविरों का आरा किया। प्रशिक्षक का कार्यभार वे अकेले ही समभालते थे। आज वही शिविर वर्ष में दो बार आयोजित होता है, और प्रतिभागियों की संया लगभग 250 होती है। ये समृद्धि, ये भव्यता, ये विशालता यूँ ही नहीं आई। इस निर्माण के लिये आर्यसमाज को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है, एक पूरा जीवन इस महायज्ञ में आहूत हुआ है।
लिखने को तो इतना लिखा जा सकता है कि लिखते-लिखते स्याही और कागज दोनों ही कम पड़ जायें, पर इस विशाल व्यक्तित्व के पीछे भी एक नींव छिपी है। इस नींव को भुलाकर ये विवरण अधूरा ही रहेगा।
उस नींव का नाम है- श्रीमती ज्योत्स्ना। सपादक शिरोमणि श्री भारतेन्द्रनाथ जी की ज्येष्ठ पुत्री। बचपन से ही जो वैदिक साहित्य की पुस्तकों में पली-बढ़ी हों। ‘‘वेद मन्दिर’’ ही जिनका घर था। वेद की पुस्तकें ही उनके लिये खिलौने थीं और उन्हें बंडल बनाकर डाकघर तक पहुँचाना ही उनका खेल। छोटी-सी आयु में ही उन्होंने पुस्तकों का संशोधन करना प्रारमभ कर दिया। समपादन की कला उन्हें विरासत में मिली, विद्वानों की संगति और उच्च बौद्धिक सामर्थ्य उनके लिये सहज प्राप्य था। वह स्वाभाविक विदुषी आचार्य धर्मवीर जी की जीवन संगिनी के रूप में जीवन भर उनकी सारथीवत् रहीं। घर की आन्तरिक व्यवस्था से लेकर बेटियों की उच्च शिक्षा-व्यवस्था तक, और यहाँ तक कि आर्थिक तंगी के दिनों में अपनी शैक्षणिक योग्यता का परिचय देते हुये घर को आर्थिक दृष्टि से भी सभाला। आचार्य जी इतना बृहत् कार्य कर पाये, उसका सबसे बड़ा कारण था- श्रीमती ज्योत्स्ना जी का हर दृष्टि से सक्षम होना। आज भी आचार्य जी के प्रचार कार्यक्रमों की व्यवस्था व उनके रेल आरक्षण जैसे कार्य भी श्रीमती ज्योत्स्ना जी ही करती थीं। उनकी योग्यता को देखते हुए उन्हें परोपकारिणी सभा का सदस्य चुना गया।
सभा की प्रथम महिला सदस्य–परोपकारिणी सभा के इतिहास में पहली बार किसी महिला को सदस्य के रूप में चुना गया। इसका कारण उनका धर्मवीर जी की धर्मपत्नी होना नहीं है, अपितु उनकी बौद्धिक, सैद्धान्तिक व प्राशासनिक योग्यता है। ऋषि दयानन्द ने बौद्धिक दृष्टि से स्त्री व पुरुष को समान ही माना है। बराबर अधिकार दिलाने की वकालत भी प्रथमतः ऋषि दयानन्द ने ही की। श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने अपनी योग्यता के बल पर ऋषि के कार्य में अपना योगदान दिया है। सभा और उसके कार्यों व उद्देश्यों से ज्योत्स्ना जी का आत्मिक जुड़ाव लबे समय से रहा है। आचार्य धर्मवीर जी के बाद सभा एक पिता की जो कमी अनुभव कर ही थी, वो कमी बहुत कुछ अंशों में श्रीमती ज्योत्स्ना जी ने एक माता के रूप में पूरी की है।
ये छिपी हुई नींव आचार्य श्री का सबसे बड़ा बल था। इस कृतज्ञता सममेलन के विवरण का समापन करते हुए ये अनुभव कर रहा हूँ कि हम सब आर्य-जन, ये आर्य समाज, ये राष्ट्र आचार्य प्रवर का कृतज्ञ तो है ही, साथ ही इस व्यक्तित्व को निखारने में श्रीमती ज्योत्स्ना जी का भी कृतज्ञ है, ऋणी है।