इस्लामिक जिहाद

जिहाद (धर्मयुद्ध)

जिहाद के सिद्धान्त ने इस्लाम को तलवार का धर्म बना दिया है ।

[1. आज विश्व में इस्लामी आतंकवाद फैला हुआ। मुस्लिम संस्थाओं व मौलवियों ने इन जिहादियों आतंकवादियों के विरुद्ध कोई फ़तवा नहीं दिया। न इनका उग्र विरोध किया है। यह जिहादी चिन्तन की ही तो उपज है। भारत में ही जिहादियों के विरुद्ध सामूहिक रूप से इस्लामी जोश से मुसलमानों ने कुछ भी नहीं किया। यदा कदा कुछ लोग गोलमोल शब्दों में आतंकवाद की निन्दा करते हुए जिहाद की अपनी व्याख्या कर देते हैं।   —‘जिज्ञासु’]

इस्लामी परम्पराओं के अनुसार मुसलमानों के लिए, यदि उनमें शक्ति हो तो अमुस्लिमों पर आक्रमण करना, उनसे लड़ना और उन्हें मार डालना अथवा वे धार्मिक कर (जज़िया) देना स्वीकार करें तो ज़िम्मी (शरणागत) बना लेना धार्मिक कर्त्तव्य है।

इसमें सन्देह नहीं कि कुरान में यह शिक्षा है कि—

व कातिलू की सबीलिल्लाहै अल्लज़ीना युकातलूनकुम।

—(सूरते बकर 190)

और लड़ो ईश्वर के मार्ग में उनसे जो तुमसे लड़ते हैं।

परन्तु तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है कि—

र्इं हुकुम ब  आयते सैफ़  मन्सू ख अस्त।

यह आदेश आयते सैफ़ द्वारा निरस्त किया गया है।

मुज़िहुल कुरान की टिप्पणी इस आयत पर यह है—

यह जो फ़रमाया है कि जो तुमसे लड़े उनसे लड़ो और अत्याचार न करो इसके अर्थ यह हैं कि लड़ाई में लड़कों, स्त्रियों व बूढ़ों को लक्ष्य बनाकर न मारे, लड़ने वालों को मारे।

जलालैन में कहा है—

यह आयत आगामी आयत से निरस्त हो गई।

अर्थात् लड़ने का आदेश केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही नहीं, अपितु आक्रमणकारी युद्ध व झगड़ा करने का आदेश है।

कुरान में एक स्थान पर यह भी कहा गया है—

अफ़अन्ता तकरिहुन्नासो हत्ता यकूनुल मौमिनीम।

—(सूरते यूनुस आयत 99)

ऐ मुहम्मद क्या तू लोगों पर उनके मुसलमान बनाने के लिए बलात्कार करेगा।

यह स्पष्ट ही अत्याचार का निषेध है। परन्तु इस पर भी भाष्यकारों ने लिख रखा है कि इस निषेध को आयत सैफ़ ने निरस्त कर दिया है। पाठक को यह आयत पढ़कर यह विचार भी होगा कि अल्लामियाँ को यह आदेश देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्यों हज़रत मुहम्मद से पूछताछ की गई? क्या हज़रत मुहम्मद की इच्छा बलात्कार करने की थी? यह इच्छा किसके आदेश से उत्पन्न हुई? और क्या यह सम्भव नहीं कि विवश अल्लाह के प्यारे ने अपनी इच्छा अल्लाह मियाँ से मनवा ही ली हो? भाष्यकारों का विचार है कि निषेध जहाँ भी हुआ परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण हुआ है। अल्लाह मियाँ प्रतीक्षा करा रहे थे, जब परिस्थितियाँ अत्याचार करने के अनुकूल हो गर्इं तो वह आदेश भी प्रदान कर दिया और अब इन सब आदेशों के अर्थ यही लिए जाते हैं कि बिना किसी झिझक व संकोच के अपनी ओर से ही आक्रमण करो। अतएव हदाया जो सुन्नी सम्प्रदाय की प्रामाणिक संहिता है उसमें जिहाद (धर्मयुद्ध) के अध्याय का प्रारम्भ ही इन शब्दों से हुआ है—

व कत्तालुल कुफ़्फ़ारो बाजिबुन व इनलम यब्तदिओ विही।

और काफ़िरों से युद्ध करना कर्त्तव्य है चाहे वे अपनी ओर से प्रारम्भ न भी करें।

सर अब्दुल रहीम जो बंगाल हाईकोर्ट के जज रहे उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘मुस्लिम जुरिस्परोण्डेंस’, अर्थात् ‘इस्लामी आचार संहिता’ जिसे न्यायालयों में भी इस्लामी आचार संहिता पर प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है। उसमें लिखा है—

“मक्का के काफ़िरों ने जो व्यवहार हज़रत रसूल से किया था उससे अनुमान किया जाता है कि इस्लाम को सदा अमुस्लिमों से शत्रुता व पक्षपात से प्रतिशोध व ख़तरों की आशंका है। इसलिए इस्लाम की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इस्लामी राज्य यदि उसमें   ऐसा करने का सामर्थ्य है तो किसी पराए या विरोधी या अमुस्लिम राज्य के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर सकता है। ” —पृष्ठ 393

कुरान में फ़रमाया है—

या यत्तरिवज़ुल मौमिनूना लकाफ़िरीना औलियाआ मिन दूनिल मौमिनीना व मन यफ़अलो ज़ालिका फ़लैसा मिनल्लाहे फी शैइन इल्ला अनतत्तकू मिनहुम तुकता।

—(सूरते आले इमरान आयत 28)

इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

यदि किसी भय के कारण बचाव के दृष्टिकोण से मित्रता का वचन भी कर दिया जाए और दिल में उसके ईर्ष्या व शत्रुता रहे तो इसमें कोई हानि नहीं……जिस स्थान पर इस्लाम ने पूरी शक्ति नहीं पकड़ी है वहाँ अब भी यह आदेश चालू है…….काफ़िर की मित्रता ख़ुदा के क्रोध व अप्रसन्नता का कारण है।

जहाँ शत्रुता कर्त्तव्य हो जाए मित्रता उचित भी हो तो धोखाधड़ी के रूप में, वहाँ न्याय व प्रेम ही क्या है? अच्छे या बुरे सभी धर्मों में पाए जाते हैं। अमुस्लिम सज्जन भी हों तो भी उसके विरोधी रहो, यह कहाँ का सदाचार है?

यही बात सूरते निशा में फरमाई है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनूला तत्तरिवज़ुल काफ़िरीना औलिया- आमिन दूनिल मौमिनीन।

—(सूरते निसा आयत 144)

ऐ वह लोगो! जो ईमान लाए हो मत चुनो काफ़िरों में से मित्र केवल मुसलमानों को ही मित्र बनाओ।

आजकल की राजनीतिक कठिनाईयों का बीज इस आयत में स्पष्ट मिल जाता है। हर काफ़िर का स्थान दोज़ख़ निश्चित करने के पश्चात् ऐसी शिक्षाएँ आवश्यक हैं। जिन लोगों को अल्लाह ताला ने बनाया ही दोज़ख़ का र्इंधन बनाने के लिए है उनसे मित्रता का सम्बन्ध कैसे अपनाया जा सकता है? वे तो ईश्वरीय क्रोध के पात्र हैं, उनका जीवन हो या मृत्यु समान है। उनके जीवन का मूल्य ही क्या? फ़रमाया है—

वक्तलुहुम हैसो तक्फ़ितमूहुम व रवरिजूहुम मिन हैसो अख़रजूकुम वलफ़ितनतो अशद्दो मिनल कतले।

—(सूरते बकर आयत 191)

और मार डालो उनको जहाँ भी पाओ उनको और निकाल दो उनको जहाँ से निकाल दिया तुमको और कुफ़्र कत्ल से भी बहुत बुरा है। —(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

यह आयत कातिलू फ़ीसबीलिल्लाह के बाद आई है जिसमें कहा था जो तुमसे लड़े उनसे ही लड़ो। परन्तु जलालैन फ़रमाते हैं—

यह आयत अगली आयत द्वारा निरस्त (निरर्थक) कर दी गई है। अब अगली आयत वही है जिसका अनुवाद हमने ऊपर दिया है। इस पर जलालैन की टिप्पणी यह है—

और उनको जहाँ भी पाओ मारो और निकालो उनको मक्का से जैसे कि उन्होंने तुमको निकाला। (अतएव मक्का विजय के वर्ष में उन्हें निकाल दिया) और हरम (हजकाल) में जब तुम हज की अवस्था में हो, लड़ने से, जिसको तुम बुरा समझते हो इस्लामी परम्परा के विपरीत आचरण बहुत बुरा है।

सूरते इन्फ़ाल में कहा है—

व कातिलूहुम हत्तालातकूनो फ़ितनतुन व यकूनुद्दीना कुल्लहू लिल्लाहे।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 39)

और लड़ो उनसे यहाँ तक कि न शेष रहे काफ़िरों का उपद्रव व उनका वर्चस्व समाप्त हो जाये और सारा समुदाय अल्लाह के दीन (मत) में मिल जाये। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

जलालैन की टिप्पणी है—

और काफ़िरों की हत्या करो यहाँ तक कि इस्लाम विरोधी कोई भी विचारधारा मतभेद का नामो-निशान तक न बच पाए और सर्वत्र अल्लाह का दीन वहदहूला शरीक (कल्मा पढ़ने वाला) ही फैल जावे उसके सिवा किसी और की पूजा न रहे।

आगे फ़रमाया है—

या अय्युहन्नबियो हुर्रिजल मौमिनीना अललकिताले इनयकुन आशिरुना सबिरुना यग़लिबू मियतैने।

—(इन्फ़ाल)

ऐ पैग़म्बर मुसलमानों को (काफ़िरों से) लड़ने पर उत्तेजित करो यदि तुम में धीरज वाले (और मुकावले पर) जमने वाले बीस आदमी भी होंगे तो वह दो सौ पर अपनी विजय प्राप्त कर लेंगे।

—(टिप्पणी जलालैन)

सूरते तौबा में है—

या अय्युहुल्लज़ीना आमनू कातिलुल्लज़ीना यनूतकुम मिनल- कुफ़्फ़ारे व लयजिदूफ़ीकुम ग़िलज़तन।

—(सूरते तौबा आयत 123)

ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, लड़ो उन लोगों से जो तुम्हारे पास रहने वाले काफ़िर हैं। ऐसा होना जरूरी है कि वे तुम्हारे अन्दर कठोरता पावें।

अर्थात् सर्वप्रथम उन काफ़िरों से लड़ो जो तुमसे मिले हुए हैं फिर उनसे जो उनके निकटवर्ती हैं इस प्रकार एक के बाद दूसरे सभी काफ़िरों का मुकाबला करो।

सूरते फ़ुरकान में है—

फ़लाततअल काफ़िरीना व जाहदाहुम जिहादनकबीरन।

—(सूरते फ़ुरकान आयत 52)

और काफ़िरों का कहना मत मान बल्कि उनके साथ बड़ा धर्मयुद्ध कर।

तफ़सीरे हुसैनी में जिहाद की परिभाषा दी है—

या ब कुरआन या ब इस्लाम या ब शमशीर या ब तरके इताअते एशां।

कुरान, इस्लाम या तलवार के बल पर अथवा उनकी अधीनता को छोड़ देने पर।

सूरते तहरीम में कहा है—

ता अय्युहन्नबिओ जाहिदलकुफ़्फ़ारा वलमुनाफ़िकीना वग़ालज़ोअलैहुम।

—(सूरते तहरीम)

ऐ पैग़म्बर काफ़िरों से धर्मयुद्ध कर (साथ वाणी के) उन पर विजय पाने के लिए उन पर लड़ाई कर उन्हें झिड़क व क्रोध कर।

सूरते सफ़ में आया है—

इन्नल्लाहा यहिब्बुल्लज़ीना युकातिलूना फ़ी सबीलिही सफ़्फ़न।

—(सूरते सफ़्फ़ आयत 4)

वास्तव में ख़ुदा अपनाता है उनको जो गिरोह बनाकर उसके मार्ग में युद्ध करते हैं।

सूरते आले इमरान में है—

या अय्युहल्लज़ीना आमिनू असबरु वसाबिरु व राबितू।

—(सूरते आले इमरान आयत 200)

ऐ ईमान वालों धैर्य रखो परस्पर दृढ़ता व विश्वास रखो और युद्ध में लगे रहो। —(अनुवाद शाह रफीउद्दीन)

हम ऊपर प्रकट कर चुके हैं कि मुसलमान धर्माचार्यों के मत में  युद्ध केवल आत्मरक्षा के निमित्त ही कर्त्तव्य नहीं, अपितु यदि सामर्थ्य हो तो स्वयं दूसरे पर आक्रमण करने का भी आदेश है। सारे युद्ध का रोक देना तो कठिन है। अत्याचार के विरुद्ध युद्ध करने की आज्ञा दी जा सकती है, परन्तु इस्लामी आचार संहिता में इस सीमा को स्वीकार नहीं किया गया है। इस सीमा के साथ भी युद्ध का ढंग ऐसा होना चाहिए कि अनावश्यक कठोरता न बरती जाए। हत्या भी करनी पड़े तो बर्बरता पूर्वक न हो। परन्तु कुरान ने तो फ़रमाया है—

सउलिकीफ़ी कुलूबिल्लज़ीना कफ़रुर्रुअबो फ़जरिबू फ़ौकलअअनाके वज़रिबू मिनहुम कुल्ला बनानिन।

—(सूरते इनफ़ाल आयत 12)

मैं काफ़िरों के दिल में आतंक डालूँगा अब मारो उनकी गर्दनों पर और काटो उनकी बोटी-बोटी। गर्दनें तो उनकी आत्मरक्षा में काटी होंगी अब उंगलियों के पोर-पोर काटने में कैसी आत्मरक्षा हुई?

यह अत्याचार व प्रतिशोध की पराकाष्ठा है। सूरते मुहम्मद में फ़रमाया है—

फ़इज़ा लकीतुमुल्लज़ीना कफ़रु फ़लरव र्रिकाबिन हत्ता इज़ा अतरब्नतमूहुम।

—(सूरते मुहम्मद आयत 4)

फिर जब तुम भेंट करो उनसे जो काफ़िर हुए बस काट दो उनकी गर्दनें यहाँ तक कि चूर-चूर कर दो उनको।

—(अनुवाद शाह रफ़ीउद्दीन)

व माकाना लिमौमिनिन अन यकतुला मौमिनून इल्ला ख़ताअन व मनकतला मौमिननख़ताअन फ़तहरीरो मोमिनतिन वदिय्यतुन मुसल्लम तुन इला अहलिही इल्लाअन यस्तद्दिद्दू। फ़अनकाना मिनकौमिन उदुव्वकुम……….व मन यक्तुला मौमिनन मुअतमिदन फ़जज़ाउहू जहन्नमा खालिदन फ़ीहा व गज़बल्लाहो अलैहे व लअनहू।

—(सूरते निसा आयत 62,93)

मुसलमानों को मुसलमान का मारना उचित नहीं, परन्तु अनजाने में, परिणामतः एक मुसलमान को आज़ाद करना है व खून की क्षति-पूर्ति अदा करना उसके घर वालों को, परन्तु यह कि दान कर देवे अतः यदि होवे उस कौम से जो दुश्मन है तुम्हारे……और जो कोई मुसलमान जानकर मार डाले वहाँ उसका फल है कि दोज़ख़ में सदा के लिए रहेगा और क्रोध अल्लाह का उसके ऊपर और लानत है।

इतना पक्षपात!—इन आयतों ने जिहाद की वास्तविकता को और स्पष्ट कर दिया है यदि जिहाद आत्मरक्षा की लड़ाई है और प्रतिशोध में विरोधी की जाति की हत्या की जा रही हो तो उस जाति में चाहे जो कोई मुसलमान हो चाहे अमुस्लिम समानरूप से वध करने योग्य होगा, परन्तु नहीं अमुस्लिम की हत्या जानकर करना भी कर्त्तव्य है और मुसलमान की हत्या यदि भूल से भी हो जाए तो उसका रक्त का बदला प्रायश्चित। इससे अधिक पक्षपात और क्या हो सकता है और यदि खून का बदला व प्रायश्चित न करे तो उसका दण्ड क्या? वही दोज़ख़।

इस प्रकार के रक्तपात व हत्या में अपनी ओर के लोग भी मारे जायेंगे और रुपया भी खर्च होगा। इसकी व्यवस्था निम्नलिखित आयत में की है—

व लातकूल्लू लिमन्युकतलो फ़ो सवीलिल्लाहे अमवातुन बल अहयाउन।

—(सूरते बकर आयत 149)

और जो ख़ुदा के मार्ग में मारे जाते हैं उन्हें मरा हुआ मत कहो, अपितु वह जीवित है।

जलालैन में टिप्पणी में लिखा है—

हरे पक्षियों के लिबास में हैं जो जन्नत में चुगते हैं।

यदि धर्म प्रचार बलपूर्वक न हो तो व्यर्थ का रक्तपात व हत्या काण्ड क्यों हो? और क्यों मरे हुओं को व्यर्थ ही जीवित कहें और बहिश्त में उन्हें पक्षी बनाएँ?

सूरते तौबा में आया है—

व लाकिनिर्रसूलो वल्लज़ीना आमन् मअहूजाहिदू विअम- वालिहिम व अनफ़ुसिहिम व उलाइकालहुमल ख़ैरातो।

—(सूरते तौबा आयत 88)

परन्तु रसूल और जो लोग ईमान लाए उसके साथ, जिहाद किया उन्होंने अपने धन और अपने जीवन व व्यक्तित्व सहित और भलाईयाँ उन्हीं के लिए हैं।

फिर फ़रमाया है—

इन्नल्लाहश्तरा मिनउल मौमिनीना अनफ़ुसहुम व अमवालहुम व अन्ना लहुम जन्नता युकातिलूना फ़ीसबीलिल्लाहे फ़यकतलूना व युकतिलून।

—(सूरते तौबा आयत 111)

सचमुच अल्लाह ने ख़रीद ली है मुसलमानों से उनकी जानें और माल उनके, इस मूल्य पर कि उनके लिए बहिश्त (दे दिया) है। वे ख़ुदा के मार्ग में लड़ेंगे।

ख़ुजमिन अमवालिहुम सदकतन तुतहिरहुम व तुन्ज़की हिमविहा।

—(सूरते तौबा आयत 103)

उनकी सम्पत्ति में से दान ले लें कि पवित्र करें उनको (प्रकट रूप में) और शुद्ध करे तू उनको साथ उनके (आन्तरिक रूप से)।

मज़हब के लिए त्याग ऐसे भी—अब यदि मुसलमानों को केवल अपने जानोमाल मज़हब पर बलिदान करने का आदेश हो तो फिर भी ठीक है, क्योंकि अमुस्लिमों से लड़े बिना यह दोनों वस्तुएँ मज़हब को भेंट की जा सकती हैं। जैसे ताऊन के समय पीड़ितों की सहायता करें। आपत्तिग्रस्त लोगों की सहायता में अपनी जान जोखिम में डालें। परन्तु इस्लाम के इतिहास में इस प्रकार के उदाहरण नहीं मिलेंगे (कि ऐसे सेवा कार्य के लिए किसी ने अपनी जान व माल भेंट किया हो।)

[ कोष्ठक में दिये गये शब्द अनुवादक ने व्याख्या के लिए दिये हैं। —‘जिज्ञासु’]

यह जानें व यह माल इस्लाम पर कैसे सत्य सिद्ध होंगे? फ़रमाया है—

व ग़नहनो नतरब्बसो बिकुम अन्युसीबुकुसुल्लाहो विअज़ाबे मिनइन्दही औविएदेना।

—(सूरते तौबा आयत 52)

और हम प्रतीक्षा करते हैं तुम्हारे लिए कि अल्लाह पहुँचाए पीड़ा अपने पास से या तुम्हारे हाथों से। 

तफ़सीरे हुसैनी में इस अन्तिम वाक्य की व्याख्या ऐसे की है—

अज़ नज़दीके ख़ुद चूं सैहा व रजफ़ व ख़सफ़ ता हलाक शवेद या बिरसानद अज़ाबे बशुमा ब दस्तहाए मा कि शुमा रा बसबब कुफ़र बकतल रसानेम।

अपने पास से (पीड़ा) जैसे सूरज ग्रहण, चन्द्र ग्रहण से मृत्यु हो जावे या तुम्हें पीड़ा पहुँचाए हमारे हाथों ताकि तुम्हें कुफ़्र के कारण वध करें।

इन ख़ुदाई फ़ौजदारों को देखना कि अल्लामियाँ ने कुफ़्र दण्ड का आदेश नहीं दिया है कि काफ़िर को वध कर दो। क्या व्यंगोक्ति है? लड़ाई में यह मरें तो जीवित हैं और जो काफ़िर मरें तो उन पर क्रोध व दण्डादेश हुआ है। मृत्यु तो भाई दोनों की एक समान है इसका नाम बलिदान है तो, और दण्डादेश है तो—

यह तो जीवनों का प्रयोग, माल (सम्पत्ति) का भी सुन लीजिए। फ़रमाया है—

या अय्युहल्लज़ीना आमनू ला तरख़ुनुल्लाहा वर्रसूला।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 26)

ऐ लोगो! जो मुसलमान बने हो, विश्वासघात अल्लाह व रसूल से मत करो (धन मत छुपाओ)।

इस पर मूज़िहुल कुरान में लिखा है—

अल्लाह व रसूल की चोरी यह है कि काफ़िरों से छुपकर मिलें अपनी सम्पदा व सन्तानों को बचाने के लिए………और यह भी है कि लूट के (युद्धों के) माल को छुपाकर रखें, सेना के सरदार को न प्रकट करें।

मुसलमानों की जानें व माल अल्लाहमियाँ की सम्पत्ति हुए मगर अब अल्लाहमियाँ कर्ज़ भी चाहता है। कहा है—

मनज़ल्लज़ी युकरिज़ोल्लाहा करज़न हसनन फ़यजइफ़हू।

—(सूरते बकर आयत 245)

भला कौन है जो ऋण दे ख़ुदा को अच्छा ऋण फिर वह उसके लिए उस ऋण को दोगुना करे।

इस कर्ज़ की व्याख्या मूज़िहुल कुरान में की है—

धर्मयुद्ध (जिहाद) में खर्च करें।

तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है—

अबू अलदहद्दाह अंसारी पेश आमद व गुफ़्त वा रसूलिल्लाह ख़ुदा र्इं करज़ चिरा मेतलबद, आंहज़रत फ़रमूद कि मेख्वाहद कि ता शुमा रा ब वास्ताए आँबबहिश्त बिबुरद। अबूअलदहद्दाह गुफ़्त या रसूलिल्लाह मरा दोख़रामस्तान हस्तन्द व बहतरीन ख़रा मस्तान जनीमा नाम दारद अगर आंरा बकरज़ ख़ुदा दहम शुमा ज़ामिने बहिश्त मन मेशवेद, सैय्यद आलम फ़रमूद कि मन ज़ामिन मेशवम कि हक सुबहानहू दहचन्दा दर रियाज़े जिनां बतो अरज़ानी दारद। गुफ़्त ए सैय्यद, बशर्तें आंकि फ़रज़न्दाने मन व मादरे एशां बा मन बा मन बाशद। ख्वाजा आलम फ़रमूद कि आरे चुनीं बाशद।

अबू अलदहद्दाह अंसारी सामने आया और कहा कि या रसूलिल्लाह ख़ुदा यह कर्ज़ क्यों माँगता है। आं हज़रत ने फ़रमाया कि ख़ुदा चाहता है कि तुम्हें इसके द्वारा स्वर्ग में ले जाए। अबूअलदहद्दा ने कहा या रसूलिल्लाह मेरे पास दो नख़लिस्तान हैं उनमें से उत्तम का नाम जनीमा है, यदि उसे ख़ुदा को कर्ज़ दे दूँ तो क्या आप मेरे लिए बहिश्त के ज़ामिन (उत्तरदायी) होते हैं? सरवरे आलम ने फ़रमाया कि मैं उत्तरदायी होता हूँ कि सच्चा ख़ुदा बहिश्त में दस गुना तुझे देगा। कहा ऐ पैग़म्बर! इस शर्त पर कि मेरे लड़के व उसकी माँ भी मेरे साथ हो, फ़रमाया हाँ ऐसा ही होगा।

धर्मयुद्ध के लिए रुपये की ज़रूरत होती है। सरकार भी युद्ध के लिए कर्ज़ लेती है। अल्लाह मियाँ ने भी तो क्या बुरा किया? सरकार भी सूद का वचन देती है यह भी स्वर्ग में कई गुना दिये जाने का वचन है और केवल देने वाले को नहीं उसकी सन्तान व सन्तानों की माता को वहाँ ले जाने का वचन है। एक नख़लिस्तान के बदले में एक परिवार का परिवार स्वर्ग में, यह दयालुता है या आवश्यकता, ब्याज की दर बढ़ रही है।

यही बात सूरते माइदा में फिर फ़रमाई है—

व अकरज़ुतुमुल्लाहो करज़न हसनतन लउकुफ़िरन्ना अनकुम सियातिकुम व लअदरिवलन्नकुम जन्नातिन।

—(सूरते मायदा आयत 12)

और ऋण दो तुम अल्लाह को अच्छा, निश्चय ही मैं तुम्हारी बुराई दूर करूँगा और तुम्हें जन्नतों में प्रविष्ट करूँगा।

धर्मयुद्ध (जिहाद) में ख़र्च कर दिया। अब चाहे पाप किए भी हों सब दूर, ऊपर जो फ़रमा आय हैं। ले माल इनसे धर्मादे में ताकि तू इन्हें शुद्ध पवित्र कर दे।

यह माल किस काम में ख़र्च होता है फ़रमाया है—

व अइदूलहुम मस्ता अतुममिन कुव्वतिन व मिनरिबा तिलाहैले, तुरहिबूना बिहि अदुव्वाल्लाहो व अदुव्वकुम…………वा मातुनफ़िकू मिनशैइनकी सबीलिल्लाहे युवाफ़्फ़ा अलैकुम व अन्तुमला तुज़लिमून।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 59-60)

और जो तुम कर सको उनके लिए तैयारी करो शक्ति से और घोड़ों से और उनके द्वारा अल्लाह के शत्रुओं को डराओ और अपने शत्रुओं को डराओ………….और जो तुम व्यय करोगे अल्लाह के मार्ग में अल्लाह तुम्हें पूरा कर देगा। और तुम पर अत्याचार नहीं किया जाएगा।

इस्लामी शासन के काल में अधिकतर देशों में ग़ैर मुस्लिमों के लिए घोड़े की सवारी और हथियारों का प्रयोग निषिद्ध घोषित किया जाता रहा है। इसकी आधारशिला मुसलमान धर्माचार्यों ने इसी आयत को निश्चित किया है और इन सारे साधनों की आवश्यकता धर्मयुद्ध (जिहाद) के लिए है। काफ़िरों के हाथ में इन सभी साधनों को छोड़ना धर्मयुद्ध के नियमों की स्पष्ट आज्ञा का उल्लंघन है।

जान व माल ख़ुदा के मार्ग में ख़र्च करने का बदला अब तक परलोक के लिए रहा है, अर्थात् मृत्यु के पश्चात् सम्भव है कोई इस दूर के वचन के भरोसे इतना त्याग करने को तैयार न हो इसका भी फल बतलाया है—

व अदकुमुल्लाहो मग़ानिकसीरतन ताख़ुज़ूनहा।

—(सूरते फ़तह रकूअ 3)

और वचन दिया है तुमको अल्लाह ने बहुत लूटों का, कि उनको प्राप्त करोगे।

व आलमू अन्नमा ग़निमतुम मिनशैअन व अन्नल्लाहे ख़मसहू व लिर्रसूले।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 41)

और इस बात को समझलो कि जो कोई वस्तु तुम लूटकर लाओ उसमें से पाँचवाँ भाग अल्लाह के और रसूल के लिए (निर्धारित) है।

व यसइलूनका अनिल अन फ़ाले, कुलिल अनफ़ालो लिल्लाहे वर्रसूले बत्तकुल्लाहा।

—(सूरते इन्फ़ाल आयत 1)

तुमसे लूटों के माल के सम्बन्ध में पूछते हैं लूटें ख़ुदा के लिए और रसूल के लिए हैं इसलिए ख़ुदा से डरो।

अर्थात् ख़ुदा व रसूल का हिस्सा दो। और शेष तुम ले जाओ यही नहीं कुछ और भी है। फ़रमाया है—

ओ मा मलकत एमानहुम।

—(सूरते अलमोमिनून रकूअ 1)

और वह (लूटी हुई स्त्रियाँ) तुम्हारे दाएँ हाथ इन स्वामी बनें।

यह एक परिभाषा है कुरान की जिसका अनुवाद प्रत्येक भाष्यकार ने युद्धों में हाथ लगी हुई स्त्रियाँ किया है और वे लौंडियों (दासियों) के रूप में रखी जा सकती हैं।

गैर मुस्लिम के लिए केवल वध का ही आदेश नहीं है यदि वे धार्मिक कर (जज़िया) दे दें तो उसे प्रजा बनाकर रखा जा सकता है।

कातिलुल्लज़ीना लायोमिनूना बिल्लाहे व लाबिलयोमि लआरिवरे वला युहर्रिमूनामा हर्रमल्लाहो व रसूलूहा। वलायदीनूना दीनलहक्के मिल्लज़ीना उतुल किताबो हत्तायअतुलजतियता अनयदिव्वहुम साग़िरुन।

—(सूरते तौबा आयत 29)

जो मुसलमान नहीं बन जाते उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और जो न्याय के दिन (कयामत) पर विश्वास नहीं लाते उनसे और सच्चे दीन (इस्लाम) का पालन नहीं करते जो जिन बातों को, हराम नहीं करते जो अल्लाह ने हराम किया है और उसके रसूल ने और उनमें से जिन्हें ख़ुदा ने किताब दी है जब वह आज्ञापालक हों और अपने हाथ से कर जज़िया दें और दुर्गति स्वीकार करें।

जलालैन की टिप्पणी इस आयत पर यह है कि—

उन लोगों को जो अल्लाह और कयामत पर विश्वास नहीं   रखते उनको मारो-काटो (अर्थात् रसूलिल्लाह सल्लम के प्रति भी अविश्वासी हैं, क्योंकि अल्लाह व कयामत पर विश्वास रखते तो रसूल पर भी विश्वास रखते) और जिन वस्तुओं को अल्लाह व उसके पैग़म्बर ने हराम (अवैध) निश्चित किया है जैसे शराब पीना। उसको हराम नहीं मानते और इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते जो सच्चा दीन है व सब दीनों को निरस्त करने वाला है। ये लोग यहूदी व नसरानी हैं जिनको आसमानी किताब दी गई यह कदापि मुसलमान न होंगे फलतः जो कर उन पर लगाया जाएगा प्रति वर्ष अपमानित होकर उसे देंगे और इस्लामी शासन के अधीन विवशता में होंगे।

कुरान में जो यह सुविधा है कि कर (जज़िया) लेकर अपनी प्रजा बना लो ईसाइयों व यहूदियों तक ही सीमित है, परन्तु बाद के धर्माचार्यों (इस्लामी आचार संहिता के प्रणेताओं) ने इसे समस्त गैर मुस्लिमों के लिए सामान्य बना दिया है। अतएव हदाया (इस्लामी आचार संहिता) में लिखा है—

फ़इन्नमतनिऊ दऊहुम इललजियते फ़इन बज़लूहा कुलहुम मालिल मुसलिमीन।

यदि इस्लाम स्वीकार करने से अस्वीकृति दें तो उन पर कर निर्धारित किया जाए यदि उन्होंने स्वीकार कर लिया तो उनके लिए सुरक्षा है, जैसा मुसलमानों के लिए है।

 

2 thoughts on “इस्लामिक जिहाद”

    1. तफसीर जलालैन दी तो हुयी हुयी है

      कुछ और चाहिए

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