शङ्का समाधान
डॉ. वेदपाल, मेरठ
शङ्का- आजकल व्यक्ति, महापुरुषों, संस्था के जन्मदिन, जयन्ती, विवाह दिन, मृत्यु दिन, प्रतिवर्ष तीज त्यौहार मनाते हैं। प्राचीनकाल में ऐसा देखने को नहीं मिलता आदि-आदि। क्या इस विषय में ऐतिहासिक व महर्षि अभिमत प्रमाण हैं?
वृद्धिचन्द्र गुप्त, जयपुर
समाधान- आपके विस्तृत शङ्कात्मक लेख का सार शङ्का के रूप में यहाँ उद्धृत कर दिया गया है। व्यक्ति के द्वारा क्रियमाण कर्मों को नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य इस रूप में विभक्त कर समझना सुगम रहेगा। नित्यकर्म वह कर्म हैं, जो व्यक्ति के द्वारा प्रतिदिन किए जाने चाहिए। इन कर्मों का ऐहिक प्रयोजन स्वल्प है, किन्तु आमुष्यिक प्रयोजन अतिमहत्त्वपूर्ण है। यथा-सन्ध्या, अग्निहोत्र आदि। ये वैयक्तिक तथा लौकिक प्रयोजन के स्वल्प होने पर भी पारमार्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
नैमित्तिक कर्म- किसी निमित्त को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म नैमित्तिक हैं, क्योंकि निमित्त के न रहने पर इन कर्मों का आयोजन नहीं होता है। एतद्विषयक परिभाषा है-‘‘निमित्तापाये नैमित्तिकस्यापाय:’’। संस्कार तथा संस्कारों के अवसर पर होने वाले यज्ञ आदि भी नित्य न होकर नैमित्तिक ही कहलाते हैं।
काम्य कर्म- व्यक्ति द्वारा किन्हीं विशिष्ट कामनाओं (जैसे पुत्र की कामना से पुत्र्येष्टि, वर्षा की कामना से वर्षेष्टि आदि यज्ञ विशेष) को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के लौकिक कर्म-आयोजन के साथ कामना पूत्र्यर्थ किए जाने वाले यज्ञ आदि भी परिगणित किए जा सकते हैं। इस प्रकार यदि आप देखें, तब तीनों अवसरों (नित्य, निमित्त [नैमित्तिक], कामना) पर होने वाले यज्ञ भी पृथक्-पृथक् हैं।
जन्मदिन आदि मनाने का ऐतिहासिक व महर्षि प्रतिपादित प्रमाण विषयक आपका प्रश्न इस रूप में देखा जाना चाहिए कि उसका शास्त्र अथवा महर्षि मन्तव्यों से विरोध अथवा अविरोध किस रूप में है? जन्मदिन, किसी संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती, व्यक्ति की वैवाहिक वर्षगांठ तथा मरण दिवस-बलिदान दिवस जिसे कभी शहीदी दिवस कहा जाता है को मनाए जाने का प्रयोजन क्या है?
सामान्यत: जन्मदिन, संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती का अवसर-इनके मनाने का प्रयोजन यदि एक क्षण के लिए ठहरकर यह अवलोकन करना है कि जीवन अथवा संस्था के उद्देश्य पूर्ति की दशा में किए जाने वाले प्रयत्न क्या ठीक प्रकार किए जा रहे हैं अथवा न्यूनता है? इत्यादि के विचारपूर्वक किए जाने वाले आयोजन का निश्चय ही शास्त्र से अविरोध है, भले ही शास्त्रकारों ने इसका विधान न किया हो। इसी प्रकार किसी बलिदान (गुरु तेगबहादुर, बन्दा बैरागी, महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम आदि-आदि) को स्मरण करना उसी विशिष्ट तिथि को सम्भव है। यदि कोई कुल, समाज अथवा राष्ट्र ऐसे अवसर पर किन्हीं प्रेरक घटनाओं का स्मरण कर उन महापुरुषों के द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने का संकल्प ले और विगत वर्ष का अवलोकन कर प्रेरणा ग्रहण करता है, तब इसे भी शास्त्राविरोधी मानना चाहिए, किन्तु किसी मरणदिन के अवसर पर उस मृतात्मा के नाम पर श्राद्धादि कर्म निश्चय ही शास्त्र-विरोधी होंगे।
आपकी अन्तिम शङ्का तीज-त्यौहार के सन्दर्भ में यह विवेच्य है कि शास्त्र पर्व का विधान करते हैं। पर्व के स्थान पर ही त्यौहार शब्द का प्रयोग है। तीज शब्द तृतीया तिथि का वाचक है। हिन्दुओं के (पौराणिक जगत् के) पर्व संवत्सर प्रारम्भ के बाद हरयाली तीज-श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया से प्रारम्भ होते हैं। अत: त्यौहार से पूर्व तीज शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ होगा, किन्तु इस तृतीया (तीज) का पर्व शास्त्रविहित नहीं है। हाँ, वैदिक संस्कृति में विहित पर्व (पर्व अभिप्राय है जोड़, सन्धि इसलिए शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष के सन्धि-पर्व दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा हैं।) अर्थात् अमावस्या-पूर्णिमा के दिन मनाने का विधान है। दर्शपौर्णमासेष्टि के साथ चातुर्मास्येष्टि सभी पर्व इन दिनों में ही सम्पन्न होते हैं। आजकल रक्षाबन्धन के नाम से प्रसिद्ध श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा के दिन ही होता है। इन पर्व-दिन में शास्त्र इष्टि (यज्ञ) का विधान करते हैं।
श्रौत सूत्रों के पश्चवर्ती काल (गृह्यसूत्रों) में अष्टका भी विहित हैं। महर्षि दयानन्द श्रावणी आदि चातुर्मास्येष्टि के साथ दर्शपौर्णमास के समर्थक हैं। राम-कृष्ण के जन्म की तिथियां उल्लिखित हैं, किन्तु याज्ञवल्क्य, मनु आदि की अज्ञात हैं। इस सन्दर्भ में ऐतिहासिक परिस्थितियां भी कम उत्तरदायी नहीं हैं। गुरुवर विरजानन्द दण्डी के जीवन संघर्ष पर विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनकी जन्मतिथि आदि स्मरण करने वाला कौन था?
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