होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निवायू यज्ञश्च । छन्दः भुरिक् पङिः।

घृताची स्थो धुर्यों पात सुम्ने स्थः सुम्ने मा धत्तम्। यज्ञ नमश्च तऽउप च यज्ञस्य शिवे सन्तिष्ठस्व स्विष्टे मे सन्तिष्ठस्व।

-यजु० २ । १९

हे अग्नि और वायु ! तुम (घृताची ) घृत आदि हवि को फैलाने वाले और मेघ-जल को भूमि पर लाने वाले, तथा ( धुर्यों ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के धुरे को वहन करने वाले (स्थः ) हो, ( पातं ) मेरी रक्षा करो। तुम (सुम्ने स्थः ) सुखदायक हो, ( सुम्ने मा धत्तम् ) सुख में मुझे रखो। ( यज्ञ ) हे सब जनों के पूजनीय परमेश्वर । ( नमः च ते ) आपको नमस्कार है। आप ( यज्ञस्य शिवे ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के मङ्गलप्रद सुख प्राप्त कराने हेतु ( उप सं तिष्ठस्व ) सामीप्य के साथ संनद्ध हों, (मे स्विष्टे ) मेरे यज्ञ का सुफल प्राप्त कराने हेतु ( सं तिष्ठस्व) संनद्ध हों।

मन्त्र के देवता अग्नि-वायु और यज्ञ हैं। अग्नि से पार्थिव अग्नि, विद्युत् और सूर्य तीनों ग्राह्य हैं। यज्ञ से होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ दोनों अभीष्ट हैं। होमयज्ञ में यज्ञाग्नि और वायु घृत आदि हव्य द्रव्य को दूर-दूर तक फैलाने का कार्य करते हैं। वे हविर्द्रव्य के सूक्ष्म परमाणुओं को अन्तरिक्षस्थ मेघजल तक भी ले जाते हैं, जिससे जल उन परमाणुओं से भरपूर तथा सुगन्धित हो जाता है। अग्नि-वायु मेघस्थ जल को बरसाने का काम भी करते हैं। इस वृष्टि में यज्ञाग्नि, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्य तीनों अग्नियाँ कारण बनती हैं। सुगन्धित जल बरस कर वनस्पतियों और प्राणियों को प्राप्त होता है तथा रोगों को नष्ट करता एवं प्राण प्रदान करता है और सुख देता है। इस प्रकार अग्नि और वायु होमयज्ञ के धुर्य (धुरे को वहन करने वाले) होते हैं। तीनों अग्नियाँ और वायु शिल्पयज्ञ के भी धूर्वह या साधक बनते हैं। ये भूमियानों, जलयानों और विमानों को तथा विविध यन्त्रों एवं कल-कारखानों को चलाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं और मनुष्यों को सुख देते हैं।

मन्त्र के उत्तरार्ध में ‘यज्ञ’ सम्बोधन पूजनीय परमेश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है। उसे नमस्कार करके उससे प्रार्थना की गयी है कि आप होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ का मङ्गलप्रद सुखदायक फल हमें प्राप्त कराते रहें, क्योंकि अग्नि-वायु भी ईश्वरीय नियमों के अनुसार ही कार्य करते हैं।

उवट एवं महीधर ने यज्ञ के शिव में संस्थित होने का आशय लिया है यज्ञ को न्यून या अधिक न होने देना और उसके लिए श्रुतिप्रमाण भी प्रस्तुत किया है।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

 

पाद टिप्पणियाँ

१. घृतम् आज्यम् उदकं च अञ्चयत: स्थानान्तरं प्रापयत: इति घृताच्यौ। घृताची+औ, पूर्वसवर्णदीर्घघृताची। अञ्चु गतिपूजनयोः, भ्वादिः ।

२. सुम्नम्-सुखम्, निघं० ३.६।।

३. इज्यते सर्वैर्जनैः स यज्ञ: ईश्वर:-द०भा० ।

४. यज्ञस्य शिवे संतिष्ठस्व अन्यूनातिरिक्तं यज्ञं कुर्वित्यर्थः ।। ‘यद्वै यज्ञस्यान्यूनातिरिक्तं तच्छिवं, तेन तदुभयं शमयति’ इति श्रुतेः म० ।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

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