हमारा बनाने वाला

हमारा बनाने वाला

– पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय

प्रिय पाठको! ऋषि दयानन्द की शिष्य परमपरा के जिन विद्वानों की लेखनी और वाणी के समक्ष विरोधी मौन साध  लेते थे, उनको देखने और सुनने का सौभाग्य तो हमें नहीं मिला, परन्तु उनकी लेखनी के खजाने का लाभ तो हम आज भी ले सकते हैं। उसी परमपरा में पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के लिखे दार्शनिक ट्रैक्ट ‘परोपकारी’ अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रही है। – समपादक

‘‘हमारा बनाने वाला कौन है?’’ यह प्रश्न हर एक बुद्धिमान् पुरुष के मन में उठता है। संसार में दो प्रकार की वस्तुएँ दिखाई देती हैं-एक वह, जिनको किसी मनुष्य या अन्य प्राणियों ने बनाया है और दूसरी वह, जिनका बनाने वाला दिखाई नहीं पड़ता। हम बया आदि को घोंसला बनाते देखते हैं, इसलिये संसार में जहाँ कहीं कोई घोंसला दीखता है, वहाँ तुरन्त ही यह भी विचार हो जाता है कि इसको किसी चिड़िया ने बनाया है। इसी प्रकार मकान, मेज आदि को भी मनुष्यों द्वारा बनते देखा है, ताजमहल आदि बड़े-बड़े मकानों या रेल आदि यानों को देखते ही यह परिणाम निकाल लेते हैं कि किसी न किसी आदमी ने ही इनका निर्माण किया है। यह हमारा अनुमान-प्रमाण है। यह कभी गलत नहीं होता, इसकी सत्यता में कोई सन्देह नहीं है, यह बात निश्चित है। वे लोग भी जो अनुमान प्रमाण की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं करते, अपने जीवन के व्यवहार से यही सिद्ध करते हैं कि अनुमान-प्रमाण अवश्य है। यदि वह किसी पुस्तक को देखते हैं तो झट पूछते हैं-यह किसने बनाई, कहाँ छपी इत्यादि। उनको कभी सन्देह नहीं होता कि समभव है यह पृथ्वी में से वनस्पतियों की भाँति उगी हो अथवा वृक्ष पर फल- फूल के समान लगी हो।

परन्तु संसार में बहुत-सी वस्तुएँ ऐसी हैं, जिनको हमने या किसी अन्य मनुष्य ने कभी किसी को बनाते नहीं देखा। पहाड़, नदियाँ, पृथ्वी, सूर्य, चाँद आदि को किसने बनाया-यह प्रश्न है। ‘मनुष्य को किसने बनाया’ यह भी प्रश्न है। जो यह कह देते हैं कि मनुष्य को माँ-बाप ने बनाया, वे ऐसा कहकर अपनी अज्ञता ही दर्शाते हैं, क्योंकि माँ-बाप को मनुष्य के शरीर की रचना का कुछ भी ज्ञान नहीं। जो घड़ी को बनाता है, वह घड़ी के पुर्जों को भली प्रकार जानता है। बिना पुर्जों का ज्ञान हुये कोई किसी चीज को बना ही नहीं सकता। माँ-बाप को बच्चों के शरीर के विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं। जो घड़ी को बना सकता है, वह घड़ी को सुधार भी सकता है। यदि माँ अपने बच्चों को बनाने वाली होती तो रोगी-बच्चे को डाक्टर तथा वैद्यों के पास लिये-लिये न फिरा करती। जिस माँ को यह नहीं मालूम कि मेरे पेट में लड़की है या लड़का, काना है या अन्धा, लूला है या लँगड़ा, उसको बच्चे का बनाने वाला कभी नहीं कह सकते। कुतिया कुत्तों के पिल्लों को उसी प्रकार जनती है जैसे स्त्री मनुष्य के बच्चों को। चिड़िया उसी  प्रकार अण्डे देती है, जैसे चींटियाँ, परन्तु न स्त्री को, न चिड़िया वा चींटी को अपने बच्चों के विषय में कुछ भी ज्ञान है। कुत्ते के पिल्ले की शरीर-रचना उस विचित्र कला से भी विचित्र है, जिसको बुद्धिमान् से बुद्धिमान् मनुष्य बनाता है। यदि कुतिया पिल्ले को बनाने वाली होती, तो वह अवश्य ही उस बुद्धिमान् मनुष्य से अधिक बुद्धिमती होती।

मनुष्य, सूर्य, चाँद तथा सृष्टि की अन्य वस्तुओं के निर्माण के विषय में कई प्रकार के मत हैं। एक मत तो यह है कि इनकी बनाने वाली सूक्ष्म, अदृष्ट, पूर्णज्ञान तथा शुद्ध स्वभाव और महती शक्तिशाली एक सत्ता है, जिसका नाम ईश्वर है। भिन्न-भिन्न लोग इसको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं-‘‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति।’’ कोई उसको खुदा कहता है, कोई गॉड, कोई परमेश्वर, कोई ब्रह्म इत्यादि। इस सत्ता के मानने वाले आस्तिक कहलाते हैं, परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने को नास्तिक कहते हैं और उस सत्ता को नहीं मानते। उनके मन में भी आस्तिकों के समान यह प्रश्न उठता है कि हमको किसने बनाया है, परन्तु वे इसका उत्तर भिन्न प्रकार से देते हैं। एक कहता है कि इस सृष्टि का बनाने वाला कोई नहीं, केवल स्वभाव या कुदरत से सब चीजें बन जाती हैं। जैसे शराब बनाने के पदार्थों को एक प्रकार से इकट्ठा कर देने से नशे वाली शराब स्वयं ही बन जाती है। या चूना और हल्दी मिला देने से रोरी बन जाती है, इसी प्रकार भिन्न-भिन्न परमाणुओं के परस्पर मिलने से सृष्टि की समस्त वस्तुएँ बनती रहती हैं। उनसे पूछा जाए कि सूर्य को किसने बनाया है? तो वे उत्तर देते हैं, कुदरत ने। कुछ लोग कहते हैं कि सृष्टि को किसी ने नहीं बनाया, अकस्मात् ही by chance  यह इस प्रकार की बन गई है। बहुधा देखा गया है कि कोई कीड़ा पृथ्वी पर रेंगते-रेंगते कोई अक्षर भी बना देता है। वस्तुतः कीड़े का यह तात्पर्य नहीं होता कि अमुक अक्षर बने। इसी प्रकार सृष्टि भी अकस्मात् ही बन जाती है। वह कहते हैं कि यदि वस्तुतः सृष्टि का बनाने वाला कोई होता तो सृष्टि बुरी न होती, जैसी आजकल दिखती है। एक संस्कृत का कवि कहता हैः-

गन्धः सुवर्णे फलमिक्षुदण्डे, नाकारि पुष्पं खलु चन्दनेषु।

विद्वान् धनाढ्यो नृप दीर्घजीवी, धातुस्तदा कोपि न बुद्धिदोऽभूत।।

अर्थात् न सोने में सुगन्ध दी, न ईख में फल दिया, न चन्दन में फूल दिया, न विद्वान् को धन दिया और न राजा को दीर्घजीवी किया। इससे प्रतीत होता है कि सृष्टि के रचने वाले को बुद्धि देने वाला कोई था ही नहीं।

यह तो कवि की कविता रही, परन्तु बहुत से दार्शनिकों ने भी सृष्टि में दोष दिखलाने की कोशिश की है। कोई कहता है कि यदि सूर्य को इस प्रकार से बनाया जाता कि रात में भी प्रकाश दे सकता तो अच्छी बात होती। कोई कहता है कि मनुष्य की आँख ऐसी बुरी बनाई कि इसमें बहुत-सी त्रुटियाँ रह गई हैं। यदि वस्तुतः कोई ज्ञानवान् शक्ति इसको बनाती तो इन त्रुटियों को रहने न देती। कोई कहता है कि संसार में इतना दुःख है कि हम कभी इसको पूर्णज्ञानी ईश्वर का बना हुआ नहीं मान सकते। मनुष्योंके सिर पर कोई न कोई विपत्ति आती ही रहती है। कहीं भूकमप आया, कहीं बाढ़ आई, कहीं जंगल में आग लग गई। जिस संसार में इतना दुःख हो, उसको सर्वज्ञ, शुद्ध, हितचिन्तक और प्रेममय ईश्वर का बना हुआ मानना मूर्खता नहीं तो क्या है? इससे वह यही नतीजा निकालता है कि घुणाक्षर न्याय के अनुकूल परमाणुओं के अकस्मात् by chance  मिलने से ही सृष्टि बनती है। इस प्रकार सृष्टि के कारण चार बताये जाते हैंः-

  1. ईश्वर 2. स्वभाव 3. कुदरत 4. अकस्मात् घुणाक्षर न्यायवत्।

हम अन्तिम मत से आरमभ करके क्रमशः एक-एक की संक्षिप्त मीमांसा करते हैं-

वस्तुतः सृष्टि के किसी काम को देखकर यह प्रतीत नहीं होता कि घुणाक्षर न्यायवत् सृष्टि बन गई हो। हमको प्रत्येक कार्य में एक विचित्र नियम दिखाई देता है। यदि घुणाक्षर न्याय के समान सृष्टि होती तो साइंस और विज्ञान की कभी उन्नति नहीं हो सकती थी। ‘विज्ञान’ का क्या काम है, यही न कि उन नियमों का पता लगाये जो सृष्टि में कार्य कर रहे हैं। भिन्न-भिन्न विज्ञान भिन्न-भिन्न नियमों की मीमांसा करते हैं, रात-दिन वैज्ञानिक लोग इन्हीं नियमों की खोज में लगे रहते हैं। एक पुरुष ने ठीक कहा है कि यदि छापेखाने के कपोजीटर लोग भिन्न-भिन्न टाइपों को करोड़ों वर्षों तक उछालते रहें तो भी कभी शैक्सपियर के नाटकों को नहीं बना सकते। शेक्सपियर के नाटकों में जो अक्षर की योजना है, वह अकस्मात् नहीं, किन्तु नियमपूर्वक है और उससे शेक्सपियर की ब़ुद्धि का बोध होता है। यदि अक्षरों के स्वयं उछलने से पुस्तक-विशेष नहीं बन सकती तो परमाणुओं के एक-दूसरे के साथ मेल खाते रहने से अकस्मात् सूर्य और चाँद जैसे प्रकाशक लोक, नदी, पर्वत जैसी चमत्कारपूर्ण वस्तुयें और शरीर जैसी अद्भुत कलाएँ नहीं बन सकतीं। जो पुरुष सृष्टि में भिन्न-भिन्न त्रुटियाँ बताते हैं, उनकी दृष्टि अति क्षुद्र है। वह सृष्टि के एक अंश को ही देखते हैं और मनमानी बात को आदर्श समझ लेते हैं। उनका हाल उस बालक के समान है, जो अपनी पट्टी पर लकीर करके अपने पिता से कहता है-‘‘आप छोटे-छोटे अक्षर क्यों लिखते हो? मेरे समान बड़े-बड़े क्यों नहीं लिखते?’’ जो पुरुष आँख, की बनावट में दोष निकालते हैं, उन्होंने आज तक दोष-रहित एक आँख भी बनाकर नहीं दी। और न वह आँख जिसको यह लोग दोषरहित कहना चाहते हैं इस प्रकार की है कि उसमें दूसरा कोई दोष न निकाल सके। कल्पना करो कि मैंने रोटी पकाने के लिए एक मकान बनवाया। जो पुरुष उसको सोने का कमरा बनाना चाहता है, उसको उसमें अनेक दोष प्रतीत होंगे और जिस कमरे को उसने प्रयोजन के विचार से आदर्श कहा, उसको वह पुरुष जो उसे स्वाध्याय का कमरा बनाना चाहता है, दोषयुक्त कहेगा। यही हाल सृष्टि का है। वर्षा हो रही है। किसान खुश हो रहा है, क्योंकि खेती को उससे लाभ होगा। अनाज का व्यापारी रो रहा है, क्योंकि उसका उद्देश्य महँगा अनाज बेचना है। वर्षा होगी तो अनाज बहुत होगा और महँगा न बिक सकेगा। सृष्टि को भिन्न-भिन्न मनुष्यों के दृष्टिकोण से नहीं बनाया गया। न तो उसमें त्रुटियाँ हैं, न वह आकस्मिक  बन गई है।

जो लोग कहते हैं कि सृष्टि को कुदरत (nature) ने बनाया है वे शबद जाल में फँसे हुये हैं, क्योंकि कुदरत या नेचर बनाने वाले का नाम नहीं, किन्तु चीज के बनाने का ही नाम है। यदि पूछा जाए कि ‘रोटी किसने बनाई?’ और उत्तर दिया जाये कि ‘रसोई ने’ तो यह ठीक उत्तर न होगा, क्योंकि ‘रसोई’ के अन्तर्गत ही रोटी आ जाती है। इसी प्रकार कुदरत या नेचर के अन्तर्गत ही संसार की सब वस्तुयें आ जाती हैं। बहुत से लोग किसी कार्य का कारण न बतलाकर उस कार्य का ही दूसरा नाम ‘कारण’ के स्थान में ले देते हैं। यह बड़ी भूल है। जैसे यदि किसी वैद्य से पूछो कि ‘‘अमुक पुरुष की मृत्यु का क्या कारण है?’’ तो वह कहता है, ‘‘हृदय की गति रुक गई।’’ यहाँ वस्तुतः ‘‘हृदय की गति रुक जाना’’ और ‘मृत्यु’ दोनों पर्यायवाची (समानार्थक) हैं, कारण और कार्य नहीं। ‘‘मृत्यु ही हृदय की गति का रुकना है’’ और ‘‘हृदय की गति रुकना ही मृत्यु है’’ तो इसका यह उत्तर कदापि न होगा कि उसे ज्वर है, ‘ज्वर’ बीमारी का रूप है, कारण नहीं। इसी प्रकार कुदरत या नेचर ही सृष्टि है और सृष्टि ही कुदरत या नेचर है। बीज का पृथ्वी में पड़कर खाद आदि की सहायता से उग आना ही सृष्टि है और यही कुदरत या नेचर है। नेचर इसके  अतिरिक्त अन्यकोई वस्तु नहीं।

अब रहा स्वभाव का प्रश्न। यदि परमाणुओं में स्वयं मिलकर वस्तु बनाने का स्वभाव होता तो मनुष्य या अन्य प्राणियों को किसी चीज के बनाने की जरूरत न पड़ती। जो परमाणु अपने स्वभाव से ही वृक्ष बना सकते, तो उन्हीं परमाणुओं से, उसी स्वभाव की प्रेरणा से मेज, सन्दूक और कुर्सी भी बन सकती थी। जिन परमाणुओं से स्वभाव द्वारा पहाड़ बनते हैं, उनसे मकान भी बनने चाहियें थे, क्योंकि यह तो मानना पड़ेगा कि जिन परमाणुओं से मेज बनी है, वह उन परमाणुओं के स्वभाव के विरुद्ध नहीं बनी। यदि मेज का बनना उन परमाणुओं के स्वभाव के विरुद्ध होता तो कोई बढ़ई भी वृक्ष से मेज न बना सकता। चूने को हल्दी में मिलाने से रोरी बनती है, परन्तु चूने का यह स्वभाव नहीं कि वह स्वयं जाकर हल्दी से मिल सके। इनको परस्पर इकट्ठा करने की जरूरत होती है। संसार में देखा जाता है कि कभी पानी ऐसी वस्तुओं के संसर्ग में आ जाता है कि उसके दोनों भाग अर्थात् आक्सीजन और हाइड्रोजन अलग-अलग हो जाते हैं और कभी भिन्न-भिन्न पदार्थ आपस में मिल जाते हैं, जिनका हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन जाता है। इन पदार्थों का परस्पर संसर्ग स्वयं नहीं होता। इसके लिये कोई निमित्त चाहिये। कभी इस निमित्त को हम देख सकते हैं, जैसे प्रयोगशाला में प्रयोग करने वाला और कभी नहीं देख सकते। यदि प्रयोगशाला में रखी हुई वस्तुएँ स्वयं स्वभाव से नहीं मिल जाती हैं और न अलग हो पाती हैं, तो सृष्टि के अन्य स्थानों में वे कैसे स्वयं मिल गई होंगी? फिर देखना चाहिये कि स्वभाव क्या है। यदि कहो कि परमाणुओं में रहने वाली अदृष्ट शक्ति को स्वभाव कहते हैं, जिनसे प्रेरित होकर वह परमाणु आपस में मिलते हैं, तो ऐसी शक्ति के अस्तित्व की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि जो परमाणु एक स्थान पर मिलते हैं, वे दूसरे स्थान पर अलग भी होते हैं। यदि मिलना स्वभाव है तो वियोग नहीं होना चाहिये था। यदि वियोग होना स्वभाव होता तो मिलना नहीं चाहिये था। परमाणुओं में न तो परस्पर मिलने का स्वाभाव है न अलग होने का। उनमें ऐसे गुण तो अवश्य हैं कि यदि कोई उनको मिला दे तो एक विशेष वस्तु बन जाए, जैसे चूना और हल्दी ही के मिलने से रोरी बनती है, चूने में दही मिलाने से रोरी न बनेगी, परन्तु न तो चूना हल्दी से स्वयं मिलेगा और न हल्दी चूने से। इनका मिलाने वाला कोई दूसरा ही होगा।

हम पहले कह चुके हैं कि संसार के सभी कार्यों के केवल दो भाग हो सकते हैं, एक वह-जिनका बनाने वाला नास्तिकों और आस्तिकों दोनों को स्वीकार है, जैसे मेज, कुर्सी आदि, दूसरा वह-जिसमें मतभेद हैं। इनसे अतिरिक्त तीसरा कोई भाग ही नहीं। यहाँ तर्कशास्त्र के अनुसार पहले प्रकार के कार्य को दृष्टान्त कोटि में रख सकते हैं, दूसरे को नहीं, क्योंकि यह नियम है कि-

लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थेबुद्धिसायं सः दृष्टान्तः।

(न्याय दर्शन)

दृष्टान्त वही हो सकता है, जिसको दोनों  पक्षवाले स्वीकार कर सकते हैं। यदि पहले प्रकार के कार्यों को दृष्टान्त माना जाए तो दूसरे प्रकार के कार्यों के लिये भी जो कि साध्य कोटि में हैं एक निर्माता मानना पड़ेगा। ‘साध्य कोटि’ के किसी कार्य को दृष्टान्त नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह साध्य कोटि में हैं। इनसे बाहर ऐसा कोई कार्य नहीं मिलता जो बिना कर्त्ता के हो सके। इसलिये सिद्ध है कि सृष्टि का बनाने वाला कोई है अवश्य। इसी को हम लोग ईश्वर कहते हैं।

(आक्षेप) ईश्वर की सिद्धि किसी प्रमाण से नहीं होती, प्रत्यक्ष तो ईश्वर है नहीं। इसको आस्तिक भी मानते हैं। किसी ने ईश्वर को सूर्य या चाँद बनाते नहीं देखा। जब प्रत्यक्ष नहीं तो अनुमान, उपमान, शबद आदि भी नहीं घट सकते, क्योंकि इन सबका आश्रय प्रत्यक्ष पर है। (उत्तर)यह युक्ति ठीक नहीं। यहाँ दो बातें याद रखनी चाहिएँ। पहली तो यह कि कार्य-विशेष को देखकर कारण विशेष का उसी समय अनुमान करते हैं, जब उस कारण से कार्य होना पहले प्रत्यक्ष हो चुका हो। दूसरी यह कि अनुमान प्रमाण का प्रयोग वहीं होता है जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण का प्रयोग न हो सकता हो। आक्षेप करने वाले ने दूसरी बात पर ध्यान नहीं दिया। यदि संसार की सभी वस्तुएँ प्रत्यक्ष हुआ करतीं तो अनुमान आदि की आवश्यकता न पड़ती और केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण होता। कल्पना कीजिये कि एक बालक है। उसके माता-पिता को जनते नहीं देखा। अनुमान प्रमाण से यह नतीजा निकलता है कि उसके कोई न कोई माँ-बाप अवश्य होंगे, क्योंकि इस बात का प्रत्यक्ष हो चुका है कि माँ-बाप से ही बालक की उत्पत्ति होती है, बिना इनके नहीं। यदि इस बालक के माता-पिता का प्रत्यक्ष होता, तो भी अनुमान न लगाते। इसी प्रकार यह तो प्रत्यक्ष हो चुका है कि बिना निमित्त के कार्य नहीं होता। सूर्य, चाँद, पृथ्वी, मनुष्य का शरीर आदि कार्य हैं, अतः यही अनुमान होता है कि इनका निमित्त भी कोई है। ऐसा अनुमान न करने में उक्त दोष कदापि नहीं आ सकता।

(प्रश्न) बढ़ई को तो मेज बनाते देखते हैं, परन्तु ईश्वर को पर्वत, नदी बनाते नहीं देखते फिर कैसे मान लें? (उत्तर) हम ऊपर कह चुके हैं कि अनुमान प्रमाण है ही उन अवस्थाओं के लिये, जहाँ प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये अनुमान प्रमाण से ईश्वर को मान लो। कभी-कभी तो बढ़ई को भी नहीं देखते, फिर भी उसका अनुमान कर लेते हो। इंजन के भीतर बैठे हुये ड्राइवर को नहीं देखते, तो भी इंजन के चलने और गाड़ियों के खींचने से ड्राइवर का अनुमान कर लेते हैं, इसी प्रकार जब हम समस्त सृष्टि रूपी इंजन की गति का प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में प्रत्यक्ष करते हैं तो उस ड्राइवर के मानने में क्या दोष आता है, जिसके द्वारा यह गति हो रही है?

(प्रश्न) अच्छा, अगर मान लें कि सृष्टि को बनाने वाली कोई अदृष्ट संज्ञा है तो इसके अन्य गुणों का कैसे पता लगाते हो?

(उत्तर)सृष्टि को देखकर। पुस्तक को देखकर पुस्तक के रचयिता की योग्यता मालूम होती है। कलम को देखकर कलम के बनाने वाले के गुण मालूम होते हैं? जैसे समस्त सृष्टि में नियमों की एकता मालूम होती है, इसलिये सृष्टि का नियन्ता एक ही है, अनेक नहीं (2) सृष्टि बहुत बड़ी है। इसलिए ईश्वर भी महान् है। (3) सृष्टि स्थूल से स्थूल और सूक्ष्म से सूक्ष्म है, इसलिये ईश्वर सूक्ष्मतम सृष्टि से भी सूक्ष्म और इसलिये निराकार है (4) सृष्टि ज्ञान से परिपूर्ण है, इसलिये ईश्वर सर्वज्ञ है। (5) सृष्टि प्राणियों के हित के लिये है, इसलिये ईश्वर हितकारी है।

(प्रश्न) ईश्वर ने हमको अज्ञानी क्यों बनाया? वह हमें इन वस्तुओं का दुरुपयोग क्यों करने देता है? (उत्तर) ईश्वर दुरुपयोग नहीं कराता। हम स्वयं दुरुपयोग करते हैं। ईश्वर ने हमको स्वतन्त्र छोड़ा हुआ है। (प्रश्न) ईश्वर ने हमको स्वतन्त्र क्यों छोड़ा है? (उत्तर) हमारी उन्नति इसी में है कि हम स्वतन्त्र रहें। यदि हर एक बात में हम परतन्त्र हों तो हमको सुख भी किस  बात का मिलेगा? जो अध्यापक प्रत्येक प्रश्न का उत्तर अपने शिष्यों को स्वयं ही लिखवा देता है, तो वह उनकी प्रशंसा भी क्यों करेगा? क्योंकि इसका यश अध्यापक को है, न कि शिष्यों को। शिष्य तभी यशस्वी हो सकते हैं, जब उनको उत्तर लिखने में स्वतन्त्रता हो और वह अपनी बुद्धि लगा सकें। यदि जीवों को स्वतन्त्रता न दी जाए तो प्रत्येक काम ईश्वर की प्रेरणा से होगा। और जीव जड़ पदार्थों के समान निर्जीववत् हो जायँगे। क्या तुम ऐसी अवस्था को पसन्द करोगे? कदापि नहीं। (प्रश्न) सान्त अर्थात् अन्त वाली सृष्टि को देखकर अनन्त ईश्वर का अनुमान क्यों करते हो? (उत्तर) कारण हमेशा कार्य से महान् होता है। जिसने घड़ी बनाई है, उसकी बुद्धि उस बुद्धि से कहीं अधिक होगी जो घड़ी बनाने के लिये चाहिये। हम सृष्टि के छोटे-छोटे भागों को तो देख सकते है, परन्तु समस्त सृष्टि को नहीं, इसलिये सृष्टि हमारे लिये बहुत बड़ी है। ईश्वर सृष्टि से भी बड़ा होने से अनन्त है (प्रश्न) जैसे घड़ी बनाने वाला घड़ी के बाहर होता है, उसमें व्यापक नहीं होता, इसी प्रकार ईश्वर को भी सृष्टि से अलग होना चाहिये। (उत्तर) क्रिया वहाँ हो सकती है जहाँ कर्त्ता हो। घड़ी बनाने का अर्थ यह है कि कुछ पुरजों को लेकर आपस में एक नियम से जोड़ देना। ‘जोड़ने’ रूपी क्रिया के समय घड़ीसाज घड़ी के पास होता है। घड़ीसाज घड़ी के केवल एक अंश का बनाने वाला है और उस अंश तक उसका और घड़ी का साथ है। घड़ी के पुर्जे जिस लोहे के बने हैं, उस लोहे के परमाणुओं को विशेष नियम से रखना घड़ीसाज का काम नहीं, इसलिये उस काम के लिये घड़ीसाज को घड़ी के पास रहने की जरुरत नहीं। परन्तु ईश्वर की सृष्टि में क्रियायें निरन्तर होती रहती हैं-कहीं संयोगरूपी, कहीं वियोगरूपी और कहीं दोनों तरह की। इसलिये ईश्वर भी उन क्रियाओं के साथ होने से सर्वव्यापक है, जैसे जाला तानने और सिकोड़ने वाली मकड़ी अपने शरीर में ही व्यापक रहती है। इसी प्रकार ईश्वर है। घड़ी में वस्तुतः दो प्रकार की क्रियायें हैं-एक वह, जो धातु अर्थात् लोहे के परमाणुओं से समबन्ध रखती है और दूसरी पूर्जों से। पूर्जे की क्रिया का समबन्ध घड़ीसाज से है और लोहे के परमाणुओं की क्रियाओं का ईश्वर से। यदि लोहे के परमाणु नियम विशेष से कार्य करना छोड़ दें, तो पुरजों के ठीक होते हुये भी घड़ी न चले। वस्तुतः घड़ीसाज की घड़ी उन क्रियाओं के जोर पर चलती है जो ईश्वर द्वारा निरन्तर हुआ करती हैं। जब ईश्वर की क्रियायें प्रत्येक देश और काल में निरन्तर होती रहती हैं, तो ईश्वर को सर्वव्यापक ही होना चाहिये। (प्रश्न) बहुत लोग ईश्वर को निष्क्रिय अर्थात् क्रिया-रहित मानते हैं और बहुत से कहते हैं कि ईश्वर के  बिना पत्ता भी नहीं हिलता। यह परस्पर विरुद्ध बातें हैं। कौन-सी ठीक है और कौन-सी गलत (उत्तर) दोनों गलत हैं। ईश्वर को निष्क्रिय मानना ईश्वर के अस्तित्व का निषेध करना है, क्योंकि ईश्वर के कामों से ही तो हम ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। निष्क्रिय ईश्वर को न कर्त्ता कह सकते हैं, न कर्मों में जो कुछ होता है वह सब ईश्वर ही करता है, क्योंकि मनुष्य तथा अन्य प्राणी भी बहुत से काम करते हैं, जैसे ईश्वर मेज नहीं बनाता, न ईश्वर झूँठ बोलता या चोरी करता है। जीव जीव के काम करता है और ईश्वर ईश्वर के। (प्रश्न) ईश्वर को न मानने से क्या हानि है? (उत्तर) एक तो अज्ञान। जो वस्तु है उसका न मानना मुर्खता है। दूसरे ईश्वर का चिन्तन करने से आदमी पापों से बचता है। तीसरे ईश्वर को सर्वव्यापक मानने से जीव निर्भय और आनन्दमय रहता है, अतः ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये।

 

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