औ३म
हम दान कर अपनी कमिया दूर करे
डा.अशोक.आर्य
हम रोग क्रामियो से लड़े,हमारा प्रत्येक अंग शक्तिशाली हो , मन शिव संकल्प वाला हो ,हम धन आदि का सदा दान करते हुए अपनी कमीयो को दूर हटा कर इन्हे शुद्ध करे | यजुर्वेद प्रथम अध्याय का यह २४ वा मंत्र इस पर ही उपदेश करत्रे हुए कह र्हा है,कि.:-
स वर्चसा पयसा संतनुभिरगन्महि मनसा स शिवेन |
त्वष्ट सुदत्रो विदधातु रायो नुमार्ष्टु तन्वो यद्वित्निष्टम || यजुर्वेद १.२४ ||
जब मानव अपने यत्न से , अपने प्रयास से राक्शसी प्रव्रतियो को अपने से दूर करने मे सफल हो जाता है तो यह अपने संबंध मे प्रभु से कुछ प्रार्थना करने की स्थिति मे आ जाता है | अब वह प्रभु से प्रार्थना करता है क़ि :-
1 हे प्रभु हमारे मे एसी शक्ति हो कि हम अपने अंदर के जो रोगाणु है , जो रोग बटाने तथा फैलाने वाले कीट आदि हमारे अंदर निवास कर रहे है ,उन्हे मारने मे हम सदा सफल हो | इस जगत मे बहुत से लोग तो एसे है कि जो बुराई से लड़ने का साहस ही नही करते और अनेक एसे भी होते है जो अकारण ही लड़ाई करते रहते है किंतु मंत्र उपदेश करता है की बुराई तथा रोग के कीटाणुओ से हम कभी लड़ने से पीछे न हटे | यह रोग के कीटाणु जब फैल जाते है तो हमारे लिए भ्यकर रोग परेशानी का कारण हो जाते है | इस लिए पैदा होते ही इनका विनाश उत्तम होता है | इस लिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हम इन रोगो के कीटो से लड़ने मे सक्षम हो तथा अपनी प्राण शकति के रक्षक बनकर प्राणो को अर्थात जीवन को लंबा करे |
२. हम ने रोग के कीटणु के रुप में आये शत्रु से लडना है किन्तु हम तब ही उनसे लड पवेंगे ,जब हम स्वस्थ होंगे , शक्तिशली होंगे, पुष्ट होगे । इस लिए मन्त्र मे यह जो दूसरी प्रर्थना की गयी है कि हमारे एक एक अंग की शक्ति निरन्तर ब्रद्धि की ओर ही अग्रसर रहे । जितना हम संघर्ष करें , उतना ही हमारे अंगों की शक्ति भी बटे । इस में कभी कमी न आने पावे। प्रत्येक अंग सशक्त हो ।
३. हम ने रोगणुओ से लडना है किन्तु यह हम तब ही कर सकते है , जब हम शक्ति का संरक्शण कर सकेगे । कोई भी सेना शत्रु पर तब तक विजयी नही होती , जब तक कि वह शत्रु से शक्ति मे कुछ अधिक न हो । यदि शक्ति मे शत्रु से कम है तो विजय का प्रश्न ही नहीं होता । फ़िर जिस शत्रु से हम लडने जा रहे हैं ,वह तो हमारे शरीर के अन्दर ही है । अन्दर रहते हुए ही यह हमारा नाश कर रहा है । इस से लडने के लिए हमारे शरीर के अनदर भी एसी शक्ति हो कि यह अन्दर बौटे इस शत्रु का नाश कर सके । इस प्रकर की शक्ति को पाने के लिए ही मन्त्र कह रहा है कि एसी शक्तियां जिस शरीर में निरन्तर बटती रहती हैं , हे प्रभु ! हमें एसा शरीर दो । भाव यह है कि हमारा शरीर इतना पुष्ट हो कि जो रोधक शक्तियों की निरन्तर व्रधि करता रहे ।
४. हमने अपने अन्दर की राक्षसी प्रवरतियों से लड़ाई लड़नी है किन्तु इस में हमें विजय कैसे मिलेगी ? यह विजय पाने के लिए हमारे मन में मजबूती का होना आवश्यक है | जब हमारा मन ही मजबूत नहीं है , हमारा मन ही स्थिर नही है तो हम इस लड़ाई में विजय कैसे पा सकते हैं ? इस लिए मन्त्र कहता है की हम शिव संकल्प वाले हों | अर्थात हम द्रट निश्चय वाले हो , जो निर्णय हमने ले लियॆ है , उसे पूरा करने के लिए अपनी सब शक्ति लगा देवें | यह ही हमारी विजय का एक मेव मार्ग है | इस प्रकार के प्रयत्न से जब हम अपने शत्रुओ का नाश करने में सफल हो जाते हैं तो हमारा जीवन लंबा हो जाता है |
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स्वस्थ होने से हमारी प्राणशक्ति बट जाती है | जब हमारी प्राण शक्ति बट जाती है तो हमारे शरीर के सब अंग स्वस्थ व द्रट हो जाते हैं | हम अपने शरीर के शब्द को नाम को सार्थक करने वाले बन जाते हैं |
५. जब हम सब प्रकार के सुखो को पा लेते है तो हम अपने जीवन को उतम बनाने के लिए धन की इच्छा करते है और इस मन्त्र के माध्यम से उस पिता से प्रार्थना करते हैं क़ि सब सुखों को देने वाला वह प्रभु न केवल हमें युद्धों में विजयी कर स्वस्थ ही बनाने वाला है बल्कि यह हमें सुन्दर भी बनाने वाला है | उस ने हमारे रंग रूप से तो हमें सुन्दर बनाया ही है , हमें रस गंध, रूप , स्वस्थ शरीर दे कर इस शरीर से भी सुन्दर बनाया है | वह पिता एक अद्भुत शिल्पी है , वह जब कुछ बनाने बैठता है तो उस की कारीगरी में , उसकी निर्माण कला में किंचित भी कमीं नहीं रहती , वह पूर्ण है ओर उसकी क्रती भी पूर्ण ही होती है | इस प्रकार हमें उतम से उतम साधन तथा शक्तियां देने वाला प्रभु हमें दान देने के लिए उतम धन भी दे | इस प्रकार पूर्ण स्वस्थ होने के पश्चात हमने उस पिता से धन मांगा है , यह धन भी हमने अपने लिए नहीं दूसरों की सहायता के लिए , दुसरों को उन्नत करने के लिए मांगा है |
यहां पर मन्त्र एक अन्य उपदेश कर रहा है | मन्त्र कहता है क़ि प्राणी उस पिता से धन की कामना कर रहा है किन्तु कुबेर बनने के लिए नहीं | धन का चौकीदार अथवा स्वामी बनने के लिए नहीं बल्कि दूसरों की सहायता के लिए , दान के लिए | कितना सुन्दर उपदेश दे रहा है यह मन्त्र | हम धन तो मांगें किन्तु दूसरों की सहायता के लिए | हमने धन अपने हित के लिए नहीं मांग रहे | हमने धन इस लिए नहीं मांगा की इस से हम विलासिता की सामग्री प्राप्त कर नशे में धुत हो आलसी बनकर लेटे रहें , कर्म हीन हो जावें , पराश्रित हो जावें | इस प्रकार हम निरंतर म्रत्यु के पाश में जकडते चले जावेंगे | नहीं हमारा प्रभु हमारा पिता भी है | वह हमें एसा धन कभी भी नहीं देगा , जिस से हम अपने आप को नष्ट कर दें | वह तो वह धन एसा ही देगा जिस से हमारा स्वास्थ्य उत्तम हो तथा हमारे यश व कीर्ति भी बढे |
६. प्रभु कृपालु है , प्रभु दयालु है | वह प्रभु हम पर कृपा करके , हम पर दया कर के , हमारे शरीर में जो भी अलपग्यता है , जो भी कमियां है , जो भी त्रुटियां है , अपनी शक्ति से उन सब को दूर करदे | हमारी सब न्यूनताऒ को अपनी कृपा से दूर करदे | हमारे मलों को धो कर , नष्ट कर दे , उनको शुद्ध करदे | इस प्रकार जब हमारे अन्दर किसी प्रकार का मालिन्य नहीं रहे गा तो हम स्वयं ही सुन्दर से भी कहीं अधिक सुन्दर हो जावेंगे | यहां एक बात समझने की है क़ि प्रभु उसकी ही सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करता है | अत: जो इस प्रकार का पुरुषार्थ करता है , मेहनत करता है , एसी सुन्दरता प्रभु उसे ही देता है | अन्य किसी को नही |
डा.अशोक.आर्य
104 शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद