हम अपने जीवन की मलिनता हटाएं
डा. अशोक आर्य
प्रभु की सहायता पाकर हम अपने अन्दर के काम , क्रोध आदि दुष्ट प्रव्रतियों को दूर करें । सदा दिव्य व उतम कर्मों में लगे रह कर जीवन को शुद्ध करें तथा जीवन में जो जो भी बुराईयां हों उन्हें दूर करने का सदा प्रयत्न करें । यजुर्वेद का यह मन्त्र इस पर ही प्रकाश डाल रहा है ।
युष्माऽव्रणीत व्रत्रतूर्ये युयमिन्द्र्मव्रणीध्वं व्रत्रतूर्ये प्रोशिता स्थ । अग्नये त्वा जुष्ट प्रोक्शाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुश्टं प्रोक्शामि । दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोऽशुद्धा: प्राज्ध्नुरिदं वस्तच्छुन्धामि ॥यजु.१.१३॥
इस मन्त्र में सात बातें बताई गई हैं :=
१. हम अपने कामादि का नाश करें :-
इस मन्त्र में जिस प्रथम विष्य पर चर्चा की गई है, वह है कामादि का नाश । मानव जीवन में काम, क्रोध, मद, लोभ , अहंकार आदि अनेक शत्रु होते हैं । इन शत्रुओं के वश में रहने वाला जीव सदा ही विपतियों से घिरा रहता है । लडाई – झगडा, कलह – क्लेष उसके जीवन का आवश्यक अंग बन जाते हैं । उसका जीवन नरक के समान बन जाता है । इस लिए इन सब को जीवन के शत्रु माना गया है । यह मन्त्र अपने उपदेश के आरम्भ में यह ही कह रहा है कि हम इन शत्रुओं का नाश करें , इन का संहार करें । इन शत्रुओं को हम अपने जीवन में न आने दें ।
जब हम इन बुराऒयों का नाश करने के लिए इन से लड रहे होते हैं तो इस लडाई को मन्त्र तूर्य का नाम देता है तथा जब हम इस का संहार करते हैं तो मन्त्र इसे व्रत्रतूर्य का नाम देता है । मन्त्र कहता है कि हे जीव तू व्रत्रतूर्य बन । अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ युद्ध करते हुए इन सब का संहार करदे । यह बुराईयों के संहार के रुप में तूं एक प्रकार का यग्य कर रहा है । इस यग्य की अग्नि कभी बुझने न दे । इस में सफ़लता प्राप्त कर ही विश्राम करना । जब तक सफ़लता नहीं मिलती, इस युद्ध को , इस यग्य को करते ही रहना ।
हे जीव ! प्रभु ने तुम्हें इस कामादि शत्रुओं को नष्ट करने के लिए चुना है क्योंकि तूंने विगत में उतम कर्म किये थे। जिन प्राणियों का विगत कर्मों का संग्रह उतम होता है , प्रभु उसे ही उतम कर्म करने का अधिकारी बनाता है । जिन के बैंक में कु्छ जमा ही नहीं , वह क्या कुछ बैंक से निकालेगा अर्थात कुछ भी नहीं । इस प्रकार ही जिस प्रणी ने अपने विगत जीवन को मौज मस्ती में बिताया था ,कुछ उतम किया ही न था । एसे प्राणियों को प्रभु ने भोग योनी में भेज दिया । उनका काम मात्र भोग ही रह गया किन्तु जिन प्राणियों ने कुछ उतम कार्य किये ,चाहे वह कर्म उनके मध्यम स्थिति में ही रहे , एसे प्राणियों को ही उस प्रभु ने मानव जीवन दिया । इस प्रकार के प्राणी को मानव जीवन तो दे दिया किन्तु वह सामन्य प्राणी ही बने रहते हैं । वह कामादि दोषों से प्रताडित ही रहते हैं ।
जिन प्राणियों ने यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के मन्त्र संख्या बारह के अनुरुप कार्य करते हुए अपने जीवन को उतम व पवित्र बनाया , एसे प्राणियों को प्रभु ने सात्विक श्रेणी , उतम श्रेणी दी । जिस प्रकार एक स्कूल की एक ही कक्शा को कई भागों में बांट कर अ , ब, स आदि विभाग किये ह्जाते हैं । अ भाग में सब से उतम , ब में मध्यम तथा स में निक्रष्ट प्रकार के बच्चों को रख दिया जाता है । इस प्रकार ही जो प्राणी अपने जीवन को पवित्र बनाने में सफ़ल रहते हैं , एसे प्राणियों को प्रभु कामादि शत्रुओं से लडने तथा उनका संहार करने की शक्ति देता है । एसे व्यक्ति ही सात्विक कहलाते है तथा एसे प्राणियों की श्रेणी का नाम ही सात्विक श्रेणी होता है । इस प्रकार के प्राणी कामादि से तब तक निरन्तर लडते रहते हैं, जब तक कि वह इन दोषों का नाश करने में सफ़ल नहीं होते ।
२. प्रभु की सहायता से ही हम सफ़ल होते हैं :-
हम कामादि शत्रुओं से लडने की शक्ति भी प्रभु से ही प्राप्त करते हैं । इस लिए उस परमैश्वर्य शाली पभु का वरण करना , उसका आशीर्वाद पाने का यत्न , उसकी निकटता पाने का प्रयास हम निरन्तर करते हैं और यह आवश्यक भी है , क्योंकि उसकी सहायता के बिना हम सफ़ल तो क्या होंगे ? कुछ कर भी न सकेंगे । हम जानते हैं कि केवल महादेव ही काम देव को भस्म कर सकते हैं , अन्य कोई नहीं । इस लिए हमें उस महादेव रुपि उस पिता से निकटता बना कर , इस कार्य की सफ़लता का उससे आशीर्वाद प्राप्त करना है ।
३. प्रभु क्रपा से ही हम शुद्ध होते हैं :-
कामादि शत्रुओं से लडने के लिए हमारे अन्दर शुद्धता का ,पवित्रता का होना आवश्यक है । जब हम स्वयं ही शुद्ध पवित्र नहीं हैं , जब हम स्वयं ही कलुषित कार्य कर रहे हैं तो हम कलुषित के साथ लड कर कैसे विजयी हो सकते हैं । इस लिए हमें पहले अपने जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाना होता है तकि हमारी शक्ति हमारे शत्रु से अधिक हो सके तथा फ़िर जब हम इन शत्रुओं से लडेंगे तो निश्चय ही सफ़ल भी होंगे । कहा गया है अपने उपर जल छिडको , स्नान करो तो तुम शुद्ध हो जावोगे । जल शुद्धि का प्रतीक माना गया है । इस प्रकार ही प्रभु की समीपता को पाना, उस प्रभु का वरण करना , उसका आशीर्वाद प्राप्त करना भी शक्ति का प्रतीक है । जब तुम प्रभु का वरण करने में सफ़ल हो जाते हो तो तुम शक्तिशाली हो जाते हो , प्रत्येक अंग में शक्ति का संचार हो जाता है तथा इस युद्ध में तुम्हारी विजय निश्चित हो जाती है । इस लिए हम प्रभु की सहायता प्राप्त कर अपने जीवन को शुद्ध बनावें ।
४. हम केवल यग्य शेष का ही सेवन करें :-
मानव सदा पका हुआ भोजन ही करता है । कच्चा भोजन वह नहीं करता क्योंकि एसा भोजन इस के लिए सुपाच्य नहीं होता । कभी वह कच्चा भोजन कर भी लेता है तो उसको उल्टी. टट्टी या पेट दर्द आदि कई प्रकार की व्याधियां हो जाती है । यह क्यों होती हैं ?, क्योंकि उसने प्रभु के बनाए हुए नियम को तोडते हुए अपने शरिर का तनाशाह बनने का यत्न किया । इस दु:साहस के लिए साथ के साथ ही प्रभु ने उसे दण्डित करते हुए उसके पेट में दर्द आदि कुछ व्याधि पैदा कर दी । यह व्याधि उसे केवल कष्ट देने मात्र के लिए पैदा नहीं की अपितु इस लिए भी की कि उसे पता चले कि उसने गल्ती की है तथा भविष्य में इस प्रकार की गलती को पुन: नहीं करना ।
इसलिए प्रभु उपदेश करते हैं कि हे मानव ! यग्य की अग्नि को ही अपने में अवशिष्ट कर । अर्थात यग्य करने के पश्चात जो शेष बचता है , उसे ही तूं उपभोग कर । संसार की वस्तुओं पर आश्रित न रह कर यग्य शेष पर ही आश्रित रह । इस सब का भाव यह है कि हमारे पास जो कुछ भी है, उसे हम यग्य पर , परोपकार के कार्यों पर व्यय करें और इस प्रकार से दूसरों की सहायता करने के पश्चात ही शेष बचे पदार्थ को हम अपने हित के लिए प्रयोग करें । हम जानते हैं कि हमारी यह प्राचीन काल से ही परम्परा रही है कि हम भोजन बनाते समय या भोजन करते समय पहले गाय , फ़िर पशु , पक्शी आदि का भाग रखकर फ़िर ही भोजन को अपने पेट की भेंट करते हैं । इस का भाव यह ही है कि हम पहले यग्य करते हैं तथा फ़िर यग्य शेष को अपने लिए ग्रहण करते हैं ।
इस प्रकार जो पदार्थ अग्नि व सोम द्वारा सेवित होता है ,संस्कारित होता है , उसका ही मैं अपने लिए प्रयोग करता हूं अर्थात इस प्रकार से संस्कारित भोजन को ही हम ग्रहण करें क्योंकि एसा भोजन शन्ति देने वाला होता है, एसा भोजन शुद्धि देने वाला होता है, एसा भोजन पवित्रता व निरोगता देने वाला होता है , एसा भोजन शक्ति व स्वास्थ्य देने वाला होता है । इस प्रकार हमारा भोजन भी यग्य के रूप में बन जाता है । इस भोजन को करने का उद्देश्य एक मात्र यह ही होता है कि हमारा शरीर शक्ति सम्पन्न व शान्ति से भरपूर हो ।
५. हम शुद्ध हो प्रभु का संगतिकरण करें :-
मन्त्र का उपदेश है कि हम प्रभु से संगतीकरण करें , हम प्रभु का साथ बनावें , हम प्रभु से निकटता बनावें , किन्तु कैसे ? हम प्रभु का संगतिकरण किस प्रकार कर सकते हैं ?, इस पर भी मन्त्र प्रकाश डालते हुए हमें कुछ मार्ग बताता है ।
मन्त्र बता रहा है कि हम सर्व प्रथम अपने को अथवा अपनी आत्मा को शुद्ध करें ,पवित्र करें इस शुद्धता व पवित्रता लाने के लिए यह निश्चित है कि हम अपने प्रयोग में , उपभोग में आने वाले प्रत्येक पदार्थ के प्रयोग के लिए इस भावना को बनाए रखें कि पहले हम ने यग्य करना है तथा फ़िर यग्य शेष को ही अपने लिए प्रयोग करना है । एसा करने से ही तुम्हारी शुद्धि होगी ,एसा करने से ही प्रभु से संगतिकरण होगा । एसा करने से ही उस पिता की संगति , समीपता , निकटता व साथ प्राप्त होगा । हमारे इतिहास पुरुष सदा ही एसा ही करते आये हैं । हमें भी उनका अनुसरण करना है । इस प्रकार के साधनों को अपनाने से जनक ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की थीं , हे जीव ! तुम भी एसे ही उपाय करो , जिन से उस प्रभु की निकटता तुम्हें मिल सके ।
६. आत्मशुद्धि के लिए कर्म करो :-
हम ने अपनी आत्म शुद्धि करना है क्योंकि आत्मशुद्धि के बिना प्रभु का सानिध्य प्राप्त नहीं हो सकता । हम जब प्रभु की निकटता पाने का यत्न कर रहे हैं तो हमारे लिए आत्म शुद्धि आवश्यक है । जब तक आत्मशुद्धि नहीं हो जाती, तब तक हम प्रभु के निकट नहीं जा सकते । इस लिए हम यत्न पूर्वक आत्मशुद्धि के कार्यों को , विधियों को , साधनों को अपनाते हैं । जब हम अपने आप को दिव्य कार्यों में लगा देंगे , उतम कार्यों के लिए अपने जीवन को अर्पित कर देंगे तो हमारे अन्दर की सब मलिनताएं , सब दोष , सब गन्दगी धुल जावेगी और हम शुद्ध व पवित्र हो प्रभु का आशीर्वाद पाने के अधिकारी बन जावेंगे । हम जानते हैं कि संसार के जितने भी योगी हुए हैं , वह सदा आत्म शुद्धि के लिए कर्म करते रहे हैं । हम भी इस प्रकार के कर्मों में ही लगें ।
७. प्रभु सब का शोधन करते हैं :-
जब हम प्रयत्न पूर्वक अपना शोधन करने में जुट जाते हैं , जब हम केवल यग्य शेष को ही ग्रहण करते हैं , जब हम परोपकार के कार्यों को अपनाते हैं तो प्रभु कहते हैं कि मेरे लिए फ़िर सम्भव ही नहीं है कि हे जीव ! मैं तुझे दोष मुक्त न कर सकूं अर्थात अब मैं तुझे शुद्ध करता हूं ,पवित्र करता हूं । अब तूं पूर्ण संस्कारित हो चुका है । अब मैं तुझे मेरी संगति में आने का ,मेरे निकट आने का अधिकार देता हूं ।
डा. अशोक आर्य
जीवन की सार्थकता दूसरों के लिए जीने में है
यह सारा संसार एक ईश्वर का ही प्रकार है, हर व्यक्ति से यह आशा की जाती है की जाती है कि वह अपनी बुद्वि, मन और शरीर से, यथायोग्य स्वार्थरहित सेवा करे। जब भी किसी व्यक्ति को सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है, तो मान लीजिए कि ऐसा ईश्वर के अनुग्रह या अनुभूति से ही होता है।
सर पहले पूरे मंत्र का अनुवाद करके फिर इसे समझाने की शैली अपनाए तो अच्छा होता ताकि एक नजर मे भाष्य समझ आ सके।
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