ऋषिः दीर्घतमाः । देवता परमात्मा । छन्दः स्वराड् आर्षी जगती । स पर्वग॑च्छुक्रम॑का॒यम॑त्र॒णम॑स्नावि॒रः शुद्धमपा॑पविद्धम् । क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्थान् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः
– यजु० ४०।८
( सः ) वह परमात्मा ( परि – अगात् ) चारों ओर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, ( शुक्रं ) तेजस्वी है, ( अकायम् ) शरीर- रहित है, (अव्रणं ) घावरहित है, ( अस्नाविरं ) नस-नाड़ियों से रहित है, ( शुद्धं ‘ ) पवित्र है, ( अपापविद्धं ) पाप से विद्ध नहीं है । वह ( कवि: ) मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, ( मनीषी ) बुद्धिमान् है, (परिभू: ४) दुष्टों को तिरस्कृत करनेवाला है, ( स्वयम्भूः ) स्वयम्भू है । उसने ( याथातथ्यतः ) यथातथ रूप में, अर्थात् जैसे होने चाहिएँ वैसा ( अर्थान् ) पदार्थों को ( व्यदधात् ) रचा है ( शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ) शाश्वत वर्षों
से सबने परमेश्वर के विषय में विभिन्न नामों से बहुत कुछ श्रवण किया हुआ है । फिर भी आओ, वेद उसके गुण-कर्म- स्वभाव का क्या परिचय दे रहा है, यह जानें । वेद कहता है कि वह चारों ओर गया हुआ है, चारों दिशाओं में विद्यमान है, सर्वव्यापक है । यह एक विचित्र विरोधाभास है कि चारों ओर विद्यमान है, फिर भी आँखों से दिखायी नहीं देता । आँखों से उसका प्रत्यक्ष इस कारण नहीं होता कि वह ‘ अकाय’ है, उसकी भौतिक काया ही नहीं है । आँख तो भौतिक वस्तु को ही देख सकती है । जब भौतिक शरीर ही नहीं है, तो शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग नस – नाड़ी आदि और शरीर के धर्म फोड़ा फुंसी, पीड़ा, ज्वर आदि भी उसके नहीं हैं, वह ‘अव्रण’ और अस्नायु’ है । वह ‘ शुक्र’ है, देदीप्यमान है, तेजोमय है, उसी के तेज से अग्नि, विद्युत्, सूर्य, तारे सब तेजोमय बने हुए हैं, उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित हो रहे हैं । वह ‘शुद्ध’ है, अविद्यादि दोषों से रहित होने के कारण सदा पवित्र रहता है । वह ‘ अपापविद्ध’ है, तस्करी, डकैती आदि पापों से विद्ध नहीं होता। वह ‘कवि’ है, मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, दूरदर्शी है । वेदरूप काव्य का काव्यकार होने के कारण भी वह ‘कवि’ है । वह ‘ मनीषी’ है, मनस्वी है, पारदर्शी विचारों का अधीश्वर है । वह ‘ परिभू’ है, सबका परिभव या तिरस्कार करके सर्वोपरि विराजमान है । वह बड़े से बड़े दस्युओं को तिरस्कृत करके धूल में मिला देता है । वह ‘स्वयम्भू’ है, स्वयं सर्वशक्तिमान् बना हुआ है । अपनी शक्तिशालिता के लिए वह किसी अन्य पर निर्भर नहीं है । वह सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक यथोचित रूप में पदार्थों की रचना करता चला आया है। उसने सूर्य आदि पदार्थों को जैसा चाहिए था, वैसा ही बनाया है, उनमें कोई त्रुटि नहीं है ।
इस कण्डिका में परमेश्वर की सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की स्तुति है । जिन विशेषणों या वाक्यों में उसके अन्दर विद्यमान गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन किया है, उनमें सगुण स्तुति है और ‘अकायम्, अव्रणम्, अस्नाविरम्, अपापविद्धम्’ विशेषणों द्वारा निर्गुण स्तुति है । आओ, हम भूयोभूयः प्रभु की स्तुति करें और उसके जिन गुण-कर्म-स्वभावों को ग्रहण कर सकते हैं, उन्हें ग्रहण करने का प्रयास करें ।
पाद-टिप्पणियाँ
१. शुक्रः = यः शोचति ज्वलति स शुक्रः । शोचति ज्वलतिकर्मा, निघं०
१.१६
२. (शुद्धम् ) अविद्यादिदोषरहितत्वात् सदा पवित्रम् – द० ।
३. कविः – मेधावी, निघं० ३.१५ । मेधावी कविः क्रान्तदर्शनो भवति
कवतेर्वा, निरु० १२.७।
४. (परिभूः ) यो दुष्टान् पापिन: परिभवति तिरस्करोति सः – द० ।