स्वामी श्रद्धानन्द :
जिन्होंने ‘मिस्टर गाँधी’ को ‘महात्मा गांधी’ बनाया
-डॉ. सुरेन्द्र कुमार
जिस समय श्री मोहनदास कर्मचन्द गाँधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद, नस्लभेद और उपनिवेशवादी शोषण के विरुद्ध सामाजिक आन्दोलन कर रहे थे, उसी समयावधि में भारत में एक महात्मा अपना सर्वस्व त्यागकर विदेशी शिक्षा, अस्पृश्यता, असमानता, जातिवाद, अशिक्षा, राजनीतिक पराधीनता, अन्धविश्वास, पाखण्ड आदि के विरुद्ध सामाजिक क्रान्ति कर रहे थे। उनका नाम था- महात्मा मुंशीराम (संन्यास नाम-स्वामी श्रद्धानन्द) जो हरिद्वार के निकट कांगड़ी नामक गांव में गंगा तट पर स्वस्थापित ‘गुरुकुल कांगड़ी’ नामक शिक्षा-संस्था के माध्यम से अपने उद्देश्यों की पूर्ति में संलग्न थे। दक्षिण अफ्रीका में श्री गाँधी का नाम और काम सुर्खियों में था तो भारत में महात्मा मुंशीराम का। दोनों अपने-अपने देश में सामाजिक सुधार में संलग्न थे, किन्तु एक का दूसरे से साक्षात् परिचय नहीं था और न मेल-मिलाप हुआ था। दोनों महापुरुषों का परस्पर साक्षात् परिचय और मेल-मिलाप कराने में सेतु का कार्य किया श्री गाँधी के मित्र प्रो. सी.एफ. एंड्रूज ने। प्रो. एंड्रूज सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली में शिक्षक थे और दोनों के सुधार-कार्य से प्रभावित थे। उन्होंने श्री गाँधी को लिखे एक पत्र में परामर्श दिया कि ‘आप जब भी दक्षिण अफ्रीका से भारत आयें तो भारत के तीन सपूतों से अवश्य मिलें।’ वे तीन व्यक्ति थे-महात्मा मुंशीराम, कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली के पि्रंसिपल श्री सुशील रुद्र (यंग इण्डिया 06.01.1927)। श्री गाँधी महात्मा मुंशीराम के कार्यों को पढ़कर अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के फीनिक्स आश्रम नेटाल से दिनांक 21 अक्टूबर 1914 को एक पत्र लिखा, जिसमें महात्मा मुंशीराम जी के कार्यों की प्रशंसा की और उनके प्रति श्रद्धाभाव से आत्मीयता व्यक्त करते हुए उनको ‘महात्मा’ एवं ‘भारत का सपूत’ लिखा तथा उनके चरणों में नमन करने हेतु मिलने के लिए अपनी अधीरता व्यक्त की। श्री गाँधी द्वारा अंग्रेजी में लिखे उक्त पत्र की कुछ पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद है- ‘‘प्रिय महात्मा जी,…….मैं यह पत्र लिखते हुए अपने को गुरुकुल में बैठा हुआ समझता हूँ। निस्सन्देह उन्होंने मुझे इन संस्थाओं (गुरुकुल काँगड़ी, शान्ति निकेतन, सेंट स्टीफेंस कॉलेज) को देखने के लिए अधीर बना दिया है और मैं उनके संचालक भारत के तीनों सपूतों के प्रति अपना आदर व्यक्त करना चाहता हूँ। आपका-मोहनदास गाँधी’’। उसके पश्चात् दिनांक 8 फरवरी 1915 को पूना से हिन्दी भाषा में लिखे एक पत्र में श्री गाँधी ने फिर लिखा- ‘‘महात्मा जी…..आपके चरणों में सिर झुकाने की मेरी उमेद है। इसलिए बिना आमन्त्रण आने की भी मेरी फरज समझता हूँ। मैं बोलपुर से पीछे फिरूँ, उस बाबत आपकी सेवा में हाजिर होने की मुराद रखता हूँ। आपका सेवक-मोहनदास गाँधी’’।
(दोनों पत्रों की मूल प्रतियाँ गाँधी संग्रहालय, दिल्ली में उपलबध हैं।)
कुमभ पर्व के अवसर पर अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ यात्रा-कार्यक्रम बनाकर श्री गाँधी एक सामान्य कार्यकर्त्ता की तरह 5 अप्रैल 1915 को हरिद्वार पहुँचे। 6 अप्रैल को उन्होंने गुरुकुल काँगड़ी में पहुँचकर उसके संस्थापक महात्मा मुंशीराम से भेंट कर उनके चरणों में झुककर प्रणाम किया। आठ अप्रैल को गुरुकुल की कनखल स्थित-मायापुर वाटिका में गाँधी जी का समान किया और एक अभिनन्दन पत्र भेंट किया, जिसमें उनको ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया। वक्ताओं ने भी स्वागत करते हुए कहा कि ‘‘आज दो महात्मा हमारे मध्य विराजमान हैं।’’ महात्मा मुंशीराम ने अपने सबोधन में आशा व्यक्त की कि अब महात्मा गाँधी भारत में रहेंगे और ‘‘भारत के लिए ज्योति स्तमभ बन जायेंगे।’’ महात्मा गाँधी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि मैं महात्मा मुंशीराम से मिलने के उद्देश्य से ही हरिद्वार आया हूँ। उन्होंने पत्रों में मुझे ‘भाई’ कहा है, इसका मुझे गर्व है। कृपया आप लोग यही प्रार्थना करें कि मैं उनका भाई बनने के योग्य हो सकूं। अब मैं विदेश नहीं जाऊँगा। मेरे एक भाई (लक्ष्मीदास गाँधी) चल बसे हैं। मैं चाहता हूँ कोई मेरा मार्गदर्शन करे। ‘‘मुझे आशा है कि महात्मा मुंशीराम जी उनका स्थान ले लेंगे और मुझे ‘भाई’ मानेंगे।’’ (सपूर्ण गाँधी वाङ्मय एवं हिन्दू 12.04.1915 अंक)
इस भेंट ने दो समाज-सुधारकों को ‘घनिष्ट मित्र’ और ‘एक-दूसरे का भाई’ बना दिया। गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार में इस अवसर पर दोनों महात्माओं के मेल से भारत में सामाजिक सुधार और राजनीतिक स्वाधीनता का एक नया अध्याय आरमभ हुआ, जिसका सुखद परिणाम भारत की स्वतन्त्रता और शैक्षिक जागरूकता के रूप में सामने आया। गुरुकुल काँगड़ी के उक्त सार्वजनिक अभिनन्दन में श्री गाँधी को ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान करने के पश्चात् महात्मा मुंशीराम ने अपने पत्रों और लेखों में सर्वत्र उनको ‘महात्मा गाँधी’ के नाम से समबोधित किया। परिणामस्वरूप जन समुदाय में उनके लिए ‘महात्मा’ प्रयोग प्रचलित हो गया, जो सदा-सर्वदा के लिए गाँधी जी की विश्ववियात पहचान बन गया। उससे पूर्व दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी सभयता के अनुसार उनको ‘मिस्टर गाँधी’ कहा जाता था। इस प्रकार ‘मिस्टर गाँधी’ गुरुकुल काँगड़ी आकर ‘महात्मा गाँधी’ बनकर निकले।
इस भेंट के बाद श्री गाँधी और महात्मा मुंशीराम के समबन्धों में निकटता बढ़ती गई। उक्त प्रथम आगमन के अतिरिक्त गाँधी जी फिर तीन बार गुरुकुल काँगड़ी में पधारे। दूसरी बार 18-20 मार्च 1916 को आये और गुरुकुल के अछूतोद्धार सममेलन तथा वार्षिक उत्सव में भाषण किया था। तीसरी बार 18-20 मार्च 1927 को गुरुकुल के दीक्षान्त समारोह में उपस्थित होकर वक्तव्य दिया। चौथी बार 21 जून 1947 को गुरुकुल में पधारकर गुरुकुलवासियों को आशीर्वाद देकर गये। गुरुकुल काँगड़ी में चार बार आने का महात्मा गाँधी का यह एक रिकॉर्ड है, क्योंकि इतनी बार वे भारत की किसी अन्य शिक्षा-संस्था में नहीं गये। उनका मानना था कि ‘‘गुरुकुल काँगड़ी तो गुरुकुलों का पिता है। मैं वहाँ कई बार गया हूँ। स्वामी जी के साथ मेरा समबन्ध बहुत पुराना है।’’(महादेव भाई की डायरी,खण्ड 7)
ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी के अभाव में या अन्य कारणों से कुछ लेखकों ने यह धारणा फैला दी है कि ‘श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रथम बार श्री गाँधी को पहले से ही ‘महात्मा’ कहकर पुकारा था।’ यह विचार बाद में प्रचलित किया गया है, जो अनुमान पर आधारित कल्पना मात्र है। इसका कोई लिखीत ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। इस समबन्ध में कुछ तथ्यों पर चिन्तन किया जाना आवश्यक है-
- ‘महात्मा’ शबद का प्रयोग श्री गाँधी और महात्मा मुंशीराम के पारस्परिक लेखन और व्यवहार में प्रचलित था, श्री टैगोर के साथ नहीं। गाँधी जी मुंशीराम जी को महातमा लिखते और कहते थे, प्रत्युत्तर में गाँधी जी से प्रभावित महात्मा मुंशीराम ने भी समान देने के लिए गाँधी जी को ‘महात्मा’ कहा। यह स्वाभाविक ही है।
- यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाये कि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सर्वप्रथम श्री गाँधी के लिए ‘महात्मा’ शबद का प्रयोग किया। यदि ऐसा हुआ भी होगा तो वह व्यक्तिगत और एकान्तिक रहा होगा, सार्वजनिक रूप में प्रयोग और लेखन कविवर टैगोर की ओर से नहीं हुआ तथा न वह सार्वजनिक रूप में हुआ और न उनकी भेंट के बाद वह जनसामान्य में प्रचलित हुआ। यह प्रयोग सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप में महात्मा मुंशीराम की ओर से गुरुकुल काँगड़ी से आरमभ हुआ। उसके पश्चात् ही जन-सामान्य में गाँधी जी के लिए ‘महात्मा’ प्रयोग प्रचलित हुआ।
- केन्द्रीय सरकार के अभिलेखों में इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है कि श्री गाँधी को सर्वप्रथम गुरुकुल काँगड़ी में ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गया। 30 मार्च 1970 को स्वामी श्रद्धानन्द (पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम) की स्मृति में भारतीय डाक तार विभाग द्वारा डाक टिकट जारी किया गया था। विभाग द्वारा प्रकाशित डाक टिकट के परिचय-विवरण में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है-‘‘उन्होंने (स्वामी श्रद्धानन्द ने) काँगड़ी हरिद्वार में वैदिक ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप एक बेजोड़ विद्या-केन्द्र गुरुकुल की स्थापना की।……महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तो सर्वप्रथम इसी संस्थान ने उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया और भारत लौटने पर वे सबसे पहले वहीं जाकर रहे। यहीं गाँधी जी को ‘महात्मा’ की पदवी से विभूषित किया गया।’’
- उत्तरप्रदेश सरकार के सूचना विभाग द्वारा 1985 में प्रकाशित गाँधीवादी लेखक श्री रामनाथ सुमन द्वारा लिखित ‘उत्तरप्रदेश’ नामक पुस्तक के ‘सहारनपुर सन्दर्भ’ शीर्षक में उल्लेख है कि ‘हरिद्वार आगमन के समय गाँधीजी को गुरुकुल काँगड़ी में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने ‘महात्मा’ विशेषण से सबोधित किया था, तब से गाँधी जी ‘महात्मा गाँधी’ कहलाने लगे।’
- गाँधीजी के गुरुकुल काँगड़ी आगमन के समय वहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने अपने संस्मरणों में, गुरुकुल के स्नातक इतिहासकारों ने अपने लेखों और पुस्तकों में श्री गाँधी के सममान-समारोह का और उस अवसर पर उन्हें ‘महात्मा’ पदवी दिये जाने का वृत्तान्त दिया है। प्रसिद्ध पत्रकार श्री सत्यदेव विद्यालंकार ने लिखा है-‘‘आज गाँधी जी जिस महात्मा शबद से जगद्विखयात हैं, उसका सर्वप्रथम प्रयोग आपके लिए गुरुकुल की ओर से दिए गए इस मानपत्र में ही किया गया था।’’ (‘महात्मा गाँधी और गुरुकुल’ पृष्ठ 481) इस वृत्तान्त को लिखने वाले अन्य स्नातक लेखक हैं-डॉ. विनोदचन्द्र विद्यालंकार, इतिहासकार डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार, श्री दीनानाथ विद्यालंकार, श्री जयदेव शर्मा विद्यालंकार और डॉ. विष्णुदत्त राकेश आदि। कोई कारण नहीं कि विद्यार्थी अपने संस्मरणों को तथ्यहीन रूप में प्रस्तुत करें। अतः ये विश्वसनीय हैं।
- श्री गाँधी और महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) दोनों एक-दूसरे के महात्मापन के कार्यों से पहले से ही सुपरिचित थे, इसलिए दोनों के व्यवहार में आत्मीयता और सहयोगिता का खुलापन था। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ श्री गाँधी का ऐसा समबन्ध नहीं था। दोनों के निकट समबन्धों की पुष्टि तीन विशेष घटनाओं से होती है। पहली घटना वह है, जब दक्षिण अफ्रीका में चल रहे श्री गाँधी के सामाजिक आन्दोलन के लिए रु. 1500/- की आर्थिक सहयोग राशि राष्ट्रनेता श्री गोपालकृष्ण गोखले के माध्यम से गुरुकुल काँगड़ी के द्वारा भेजी गई थी। यह राशि गुरुकुल के विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा सन् 1914 में गंगा पर बनाये जा रहे ‘दूधिया बाँध’ पर दैनिक मजदूरी करके और एक मास तक अपना दूध-घी त्यागकर उसके मूल्य से एकत्रित करके भेजी थी। इस मार्मिक घटना को सुनकर गाँधी जी का हृदय द्रवित हो गया था। उन्होंने अनेक लेखों में इसकी चर्चा की है।
दूसरी घटना यह थी कि सन् 1915 में जब श्री गाँधी दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर भारत आ रहे थे तो उन्होंने स्वस्थापित फीनिक्स आश्रम के विद्यार्थियों को भी भारत भेज दिया। श्री टैगोर के आश्रम शान्ति निकेतन (तत्कालीन नाम ब्रह्मचर्याश्रम) में उनके निवास एवं खान-पान का प्रबन्ध सुचारु रूप से नहीं हो सका। तब गाँधी जी ने उन विद्यार्थियों को महात्मा मुंशीराम के पास गुरुकुल काँगड़ी में भेज दिया। वहाँ वे अच्छे प्रबन्ध के साथ दो महीनों तक रहे। जब गाँधी जी गुरुकुल में प्रथम बार पधारे थे तो उन्होंने अपने वक्तव्य में दोनों सहयोगों के लिए महात्मा मुंशीराम और विद्यार्थियों के प्रति आभार व्यक्त किया था।
तीसरी घटना यह है कि स्वामी श्रद्धानन्द की एक मुस्लिम हत्यारे के द्वारा हत्या होने के पश्चात् 9 जनवरी 1927 को गाँधी जी बनारस गये। वहाँ गाँधी जी और श्री मदनमोहन मालवीय जी ने स्वामी श्रद्धानन्द के सिद्धान्तों के स्वानुकूल न होते हुए भी अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि व्यक्त करने के लिए उनके लिए गंगा में जलांजलि प्रदान की और गंगा-स्नान किया।
पाठक इन घटनाओं से अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय के राष्ट्रनेताओं का स्वामी श्रद्धानन्द के प्रति कितना श्रद्धाभाव था और उनके कितने गहरे समबन्ध थे।